मैं हवा नहीं
मैं हवा नहीं जिसे कोई

अपने फेफड़ों में भर ले

मेरी सारी प्राणवायु सोख ले

और अपने अंदर की तमामविषाक्तता मुझमे घोलकर

दूषित और मलिन करके फिरबाहर उगल दे मुझे।।

मैं हवा नहीं जिसके बिना

कोई जी न पाये,

हवा की तरह किसी के जीने के लिएजरुरी होना बिलकुल नहींचाहती मैं।।

मैं तो बस मैं हूँ, हूँ और रहूंगी

अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक,

जीवन के सच्चे औरसार्थक अर्थों से भरपूर

आत्मसम्मान से भरी हुई,

अपने आप में अपने होने के अहसास से आनंदित।।

साल नया

 बारह मास की बारह चिट्टियां 

कुछ अनबन की कुछ प्रेम पातियाँ स्नेह,

क्षमा कुछ लिख दो तुम भी साल डाकिया

द्वार खड़ा है प्रत्युत्तर की आस लिए…..

उम्र

बरसों से देख रही हूँ
आईने को मैं
और आईना मुझे
इतने बरसों में
आईने ने कभी नहीं कहा
आज तक भी की
तुम्हारे चेहरे की रेखाओं में
उम्र की ढलान दिखने लगी है
आईना तो रोज ही
मुझसे यही कहता है
तुम आज भी वैसी ही हो
जैसी कल थी
अपनी उम्र की
ढलती रेखाएँ तो
मैंने देखी
तुम्हारी आँखों में
अचानक बढ़ी
तुम्हारी व्यस्तता में
घर में पसरते जा रहे मौन,
चाय के एकाकी कपों,
और रात भर
मेरी तरफ रहने वाली
तुम्हारी पीठ में….

कलम

मत लिखना कभी भी
मन की पीड़ाएँ,
व्यथा और दर्द
ये तो सबके पास
पहले से ही हैं…
जब भी लिखना
माँ सरस्वती के
चरणों पर अर्पित पुष्प
उठाना अपनी नोक पर
और पढ़ने वालों तक
उनका आशीर्वाद पहुंचाना…
बाँटना कुछ ऐसे शब्द
कि पीड़ा के मरुथल में
तप्त हृदय को थोड़ी
ठंडी छाँह मिल जाये
दर्द के बियाबान में
सूखती जीवन लता को
हरियाली का उपहार मिले….
किसी रोते हुए चेहरे को
हँसी की सौगात देना
व्याकुल किसी हृदय को
सांत्वना मिले कुछ ऐसा रचना…
बहते आँसू किसी के
पौंछ सको,
जगा सको जीवन से भरपूर
मुस्कुराहट किसी के मुख पर
उस दिन स्वयं को
धन्य समझना
ऐ मेरी कलम लिखना तो
सदा ऐसा ही लिखना…..

वह

बुहारती है
घर-आँगन, कमरे, रसोई
एक-एक कोने से साफ करती है
सारा कूड़ा-कचरा
समेटती रहती है सारा फैला सामान
और चमचमाते घर में
खुद तिनका-तिनका
बिखरती रहती है उम्र भर।।

वह

बनाती है रोटियाँ
चूल्हे, अंगीठी, स्टोव्ह, गैस पर
परोसती है घर-भर को
गरमा-गरम खाना
और अपनों की भूख की खातिर
उम्र की धधकती आँच में
खुद तिल-तिल सुलगकर
राख होती रहती है।।

वह

भरती है पानी
कुँए, तालाब नदी,
हैण्डपम्प या नल से
और जलस्त्रोत से मटके तक के सफर में
अपनों की प्यास की खातिर
खुद बून्द-बून्द रिसती रहती है।

वह

गर्मियों में झलती है पँखा
रात-रात भर
ताकि थोडा भी पसीना ना बहे
उसके अपनों का
और खुद पिघलकर
कतरा-कतरा बहती रहती है।।

वह

ओढ़ाती है रजाई
सर्दियों की ठिठुरती रातों में भी
सो नहीं पाती है चैन से
कहीं कोई बाल-बच्चा
बिना रजाई के तो नहीँ पड़ा
और रात भर उन्हें ढकने की
जद्दोजहद में
खुद उघड़ी, ठिठुरती रह जाती है।।

1 thought on “कवयित्री: विनीता राहुरीकर

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