कवयित्री: सुषमा भण्डारी
माहिया
1) आंखों के दर्पण में
तू ही तू है बस
हर एक समर्पण में।।
2) नदिया जो बहती है
चलते रहना ही
जीवन है कहती है।।
3) दुनिया ये झूठी है
रिश्तों की सीड़ी
कुछ टूटी फूटी है।।
4) ये रेत से रिश्ते हैं
जितना ढहते हैं
उतना ही रिसते हैं।।
5) दुनिया का मेला है
बेशक साथ रहें
हरएक अकेला है।।
दोहे
1) कुर्सी हूं मैं काठ की, है लम्बा इतिहास।
सबसे उँची मैं यहां , सब हैं मेरे दास।।
2) सटे – सटे से घर यहां, कटे- कटे से लोग।
भीतर हैं खामोशियां, फिर भी छप्पन भोग।।
3) मन मेरा पुलकित हुआ, पाकर अपना मीत।
सात सुरों में बंध गये, खुद ही मेरे गीत।।
4) टूट – टूट जुड़ता रहा, पत्थर माटी संग।
रामसेतु फिर बन गया, लंकापति था दंग।।
5) चकाचौंध में खो गई, त्यौहारों की रीत।
जितना मीठा गुड़ यहां, उतने मीठे गीत।।
6) बाड़ खा रही खेत को , कौन करे रखवाल।
अपनों की पह्चान ही , सबसे बड़ा बबाल।।
ग़ज़लें
न मुझको संभाला बिखर जाउंगी मैं
हाँ पहलु में तेरे सँवर जाउंगी मैं
अन्धेरी निशा हूं शशी बन के आज्स्स
यूँ पूनम सी उजली निखर जाउंगी मैं
न छोडोगे तुम साथ मेरा सफ़र में
वगरना’ हिना सी उतर जाउंगी मैं
है दुनिया का मेला मगर मैं अकेली
तुम्हारे बिना अब किधर जाउंगी मैं
नियति तो ” सुषमा ” तुम्ही से बंधी है
जहां जाओगे तुम, उधर जाउंगी मैं
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प्यार ऐसे सभी पर लुटाती हूं मैं
जीत की बाजियाँ हार जाती हूं मैं
थाम लेती हूं पतवार मैं आस की
खुद को तूफान में जब भी पाती हूं मैं
ख्वाहिशों के शहर अब तुझे अलविदा
अपनी दुनिया इक नई बसाती हूं मैं
टूट जाते हैं टाँके मेरे जख्म के
इश्तिहारों में जब भी समाती हूं मैं
पी गये सब उसे मुफ्त मय की तरह
खाली प्याले सा ‘सुषमा’ को पाती हूं मैं
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सच कहा तो पत्थरों से दी सजा
क्या यही है जिन्दगी का आईना
दिल मेरे से खेल कर न जाइये
दिल मेरा नाजुक बहुत है कांच- सा
अपने दिल में आप गर देते जगह
क्या बिगड़ जाता बताओ आपका
गुलशनों का है नहीं नामो- निशाँ
दूर तक मंजर है रेगिस्तान का
झेलती सुषमा रही है हर समय
हादसा-दर-हादसा-दर-हादसा
– सुषमा भंडारी
प्रकाशक मंच का हार्दिक आभार ,बहुत ही खूबसूरत कार्य