धारावाहिक उपन्यास भाग 09 : सुलगते ज्वालामुखी
धारावाहिक उपन्यास
सुलगते ज्वालामुखी
लेखिका – डॉ अर्चना प्रकाश
9.
गरीबी और आभावों की मार इन्सान चाह कर भी भुला नहीं पता, और उम्र भर उस अनुभव के प्रभाव से बाहर भी नहीं निकल पाता है। देशराज व बिंदिया भी अपने बच्चों पर गरीबी व आभाव की परछाई भी नहीं पड़ने देना चाहते थे। इसी परिप्रेक्ष्य में देशराज ने दोनों बेटों समीर व तुषार के एडमीशन नोएडा के सबसे महंगे स्कूल दिल्ली पब्लिक कान्वेन्ट में करा दिये। घर पर पढ़ाने के लिए पा°च से सात बजे तक का इंग्लिश मीडियम का टीचर भी लगा दिया। फिर भी देशराज परेशान थे कि इतनी सब व्यवस्था के बाद भी दोनों लड़के फेल क्यों हो गये?
‘‘तुम्हारी नौकरी की धौंस और सिक्कों की खनक हमारे बच्चों के लिए बेकार है।’’ बिंदिया ने कहा।
‘‘पढ़ाई में मेहनत करनी पड़ती है तब नम्बर आते है।’’ देशराज बोले।
‘‘अगर तुम्हारा क्लर्क महीने में एक बार भी प्रिंसपल से मिलता रहता तो समीर व तुषार तीन विषयों में फेल न होते।’’ बिंदिया ने कहा।
‘‘मैं स्वयं प्रिंसपल से मिला था, बेचारे ने साफ शब्दों में असमर्थता जाहिर करते हुए हाथ जोड़ दिये थे।’’ देशराज बोले।
‘‘इतनी बड़ी पोस्ट पर होकर भी आप मेरे लिए कुछ नहीं कर सकते। वाह पापा वाह!’’ ये समीर था।
‘‘जो अधिकारी अपने बच्चों को फायदा न दिला पाये उसकी जितनी लानत मलामत करें कम है।’’ ये बिंदिया थी।
‘‘अगर यही शब्द किसी बाहरी ने कहे होते तो अवश्य ही वह शासन
के दसियों डंडे खा चुका होता।’’ देशराज सक्रोध बोले।
‘‘अच्छी बात तो ये है कि सपना एक या दो विषय में ही लुढ़कती है और साल के अन्त में प्रमोट होकर अगली क्लास भी पा जाती है।’’ बिदिया बोली।
‘‘तभी तो सपना नवीं में आ गई और हम लोग छठे में ही घिस रहे हैं’’ समीर ने जोड़ा।
सभी ह°स पड़े।
‘‘तुम सारी सुविधायें तो खुद उठाते हो और अपने रिश्तेदारों को भी दिलाते हो। इससे गा°व जवार में तुम्हारा रुतबा तो सबसे ऊपर हो जाता है लेकिन हमारे बच्चों को कोई फायदा नहीं होता।’’ बिंदिया देशराज पर खीझी।
‘‘तुम्हारा खड़ंजे का घर अब आठ कमरों की पक्की कोठी बन गया है। अगल बगल वालों की जमीने खेत सब सस्ते दामों में खरीद कर तुम्हारे नाम फार्म हाउस बन गया। वो सब नहीं दिखता क्या?’’ देशराज आवेश में बोले।
‘‘जो अपने भाई मेघराज को ट्यूबवेल लगवाये बड़ा वाला जनरेटर खरीद कर दिये। हजारों रुपये उन्हें भेजते रहते हो उसका क्या?’’ बिंदिया चुप न रह सकी।
‘‘अब क्या यू° ही लड़ते हुए दिन बीतेंगे? समस्या का कुछ भी समाधान नहीं निकला देशराज गम्भीर थे। बिंदिया भी निरुत्तर थी।’’ कुछ पल चुप रहकर बोली-
‘‘तुम्हारी नौकरी से दोनों लड़के बिगड़ गये हैं जरा सी बात पर क्लास के लड़कों को मार कर घर भाग आते हैं।’’
‘‘जब हमसे कोई दोस्ती ही नहीं करता तो क्या करें?’’ समीर परेशान सा बोला।
‘‘ये सब तुम लोगों की गलत आदतों के कारण हैं! अच्छी आदतें सीखो और मेहनत से पढ़ाई करो।’’ देशराज बच्चों को समझा रहे थे।
‘‘हमारे टीचर जी आपकी ही तरह एक दिन हमें उपदेश दे रहे थे। तभी हमने टंगड़ी मार कर उन्हें गिरा दिया। सब लड़के हंसने लगे तो वो चुपचाप उठ कर चले गये।’’ समीर ने कहा।
‘‘ये तुम लोगों ने अच्छा नहीं किया!’’ देशराज फिर बोले।
‘‘मेरी सबसे दोस्ती है पापा। कबड्डी खो खो में मेरी टीम ही जीतती है’’, सपना पिता से लिपटते हुए बोली।
‘‘शाबास! ये हुई न बात!’’ देशराज दुलार से बोले।
‘‘मैं और सिद्धान्त साथ साथ ही टिफिन लेते हैं। उसकी मम्मी टिफिन बहुत टेस्टी बनाती हैं।’’ सपना प्यार से बोली।
‘‘तुम भी टेस्टी खाना ले जाया करो न।’’ देशराज बोले।
‘‘मम्मी तो बस पूरी सब्जी ही रोज देती है उसे हम फेंक देते हैं।’’ सपना ने मु°ह बनाते हुए कहा।
‘‘अब यहा° से मेरे ट्रान्सफर का समय भी आ गया हैं!’’ देशराज सभी से बोले।
‘‘अब हम लोग नोएडा नहीं छोड़ सकते पापा! मैं और तुषार यहीं रहना चाहते हैं। हमारे कई दोस्त भी यहा° पर हैं!’’ समीर ने कहा।
‘‘मेरी पढ़ाई यहा° बहुत अच्छी चल रही है। मैं और सिद्धान्त रोज ही कम्बाइन्ड स्टडी करते हैं पापा!’’ सपना भी परेशान सी बोली।
‘‘यहा° के माल्स और विदेशी खाने तुम लोगों को बेहद पसन्द हैं। ऐसे में तुम लोग अपनी मम्मी के साथ यहीं रहो और ट्रान्सफर पर मैं अकेला ही जाऊ°, यही ठीक रहेगा।’’ ये देशराज थे।
लगभग एक माह बाद ही देशराज का ट्रान्सफर आर्डर असिस्टेन्ट कमिश्ना इनकम टैक्स के पद पर नोएडा से मेरठ के लिए आ गया। अतएव थोड़े और बेहद जरूरी सामान के साथ देशराज मेरठ पहु°च गये।
मेरठ से दो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी राकेश व सन्तोष को उन्होंने मेरठ से नोएडा घरेलू काम के लिए भेज दिया कि बिंदिया व बच्चों को कोई परेशानी न हो।
दोनों ही कर्मचारियों ने मिल कर घर परिवार का सारा काम सम्भाल लिया तो उन्हें रहने के लिए बंगले के पीछे का स्टोर रूम बिंदिया ने उन्हें दे दिया। खाना भी वे देशराज के घर पर ही खाने लगे। सबको खिला चुकने के बाद जब राकेश व सन्तोष अपनी प्लेटों में खाना परोस कर खाते तब बिंदिया उनका मजाक उड़ाती –
‘‘देखो कइसे मुफ्त का माल उड़ा रहे हैं दोनों!’’ उसके कहने के अन्दाज पर तीनों बच्चे जोर से ह°स पड़ते।
एक हफ्ता बीत चुका था। राकेश व सन्तोष दोनों स्टोर में सो रहे थे। तभी उन्हें पीठ पर किसी प्रहार का आभास लगा। राकेश की आ°ख खुली, तो देखा समीर उसे पीठ पर लाते मार रहा था। उसने सन्तोष को जगाया फिर बोला- ‘‘छोटे साब ये क्या है? ऐसे क्यों कर रहे हैं अभी तो सुबह के पा°च बजे हैं।’’
‘‘हमारे यहा° नौकरों को ऐसे ही जगाया जाता है। ऐसे न करें तो ये लोग कभी टाइम से उठे ही न।’’ समीर ने कहा।
‘‘मुझे काफी की तलब लगी है। पा°च मिनट में बनाकर ले आओ।’’ समीर पुनः बोले।
दोनों चपरासी उठ कर किचन में चले गये और काफी बना कर समीर को दे दी।
‘‘रात का खाना तो ये लोग टी.टी. देखते हुए बारह बजे तक खाते हैं और हमें सोने के लिए रात के एक दो तो रोज ही बजते हैं। ऐसा कब तक चलेगा?’’ राकेश ने सन्तोष से पूछा?
‘‘कितने ही साहबों के घर हम लोग काम कर चुके हैं मगर इन मेमसाब व लड़कों से हिम्मत टूट गई है।’’ राकेश ने प्रत्युत्तर दिया।
‘‘लड़के मारा मारी करते हैं और मैडम जी खाना खाने में खिल्ली उड़ाती है।’’ सन्तोष हताशा से बोला।
‘‘आरक्षण से बने दलित अधिकारी है साहब और बीबी बच्चे ऐसे व्यवहार करते हैं कि कहा° के ठाकुर पंडित हैं?’’ इस बार राकेश आवेश में बोला।
‘‘हम कल ही मेरठ वापस चले जायेंगे!’’ सन्तोष ने जोड़ा।
‘‘हम भी तुम्हारे साथ ही कल निकल लेंगे यहा° से!’’ राकेश का स्वर दृढ़ था।
क्रमशः