कहानी : मटर की फलियाँ – पूनम पाठक

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मटर की फलियाँ  

 

“बंसी काका, देखो न मटर की फलियाँ कितनी कम हो गयीं? अभी कल ही तो हमने देखा था, ढ़ेरों फलियाँ लदी पड़ी थीं।”मटर की क्यारी देख प्रज्ञा की भौंह पर बल आ गए।
“हाँ बिटिया, पर चोर कौन है ये कैसे पता चलेगा?” बंसी काका जान बूझकर अनजान बनते हुए बोले।
“चोर नहीं काका, चोरनी कहो। जब से आई है जीना मुश्किल कर दिया है। वो समझती है मुझे कुछ मालूम नही। पर जिस दिन रंगे हाथों पकड़ लूंगी उस दिन ऐसी पिटाई लगाऊँगी कि नानी याद आ जाएगी।”प्रज्ञा ने पड़ोस की ओर मुंह करके थोड़ी तेज़ आवाज में कहा। बंसी काका को हँसी तो बहुत आयी पर उन्होंने जल्दी से मुंह फ़ेर लिया। कहीं बिटिया ने देख लिया तो मुफ़्त में उनकी भी डांट पड़ जाएगी।
“चलो चलो बिटिया, चाय ठंडी हो रही है।”कहते हुए लगभग धकेलते हुए वो प्रज्ञा को घर के अंदर लाने में कामयाब हो गए।
  ये प्रज्ञा का रोज़ का नियम था। ऑफिस से आते ही सबसे पहले वो अपने बगीचे की खैर खबर लेती थी, फिर अपने खूबसूरत लॉन में चाय की चुस्कियां लेते हुए घंटों पेड़ पौधों के बीच बिताती थी। घर का ज्यादातर काम बंसी काका ही किया करते, हालाँकि वो उन्हें इतना काम करने को मना करती पर इस बारे में वो उसकी एक न सुनते।
  आर्मी ऑफिसर कर्नल प्रसाद की इकलौती बेटी प्रज्ञा के जीवन में यूँ तो कहीं कोई कमी न थी। सिवाय इसके कि उसे उसके जन्मदाताओं का प्यार कभी नसीब न हुआ। उसकी अति आधुनिका माँ और ऑफिसर पिता की आपस में कभी बनी नहीं। उन दोनों के ‘मैं’ के टकराव से निकली चिंगारियों ने नन्हीं प्रज्ञा के जीवन की छोटी छोटी ख़ुशियों को भी जलाकर ख़ाक कर दिया। रईस घराने की माँ का गुस्सैल स्वभाव और पिता का अफसरी मिजाज़ छोटी छोटी बातों पर अक्सर ही घर को जंग का मैदान बना लेता।
  उस दिन भी यही हुआ था जब एक पार्टी से लौटे उसके मम्मी पापा में अचानक ही बहस होने लगी, जिससे उसकी नींद उचट गयी। ये तो रोज का ही काम है सोचकर चौदह वर्षीय प्रज्ञा फिर से सोने की कोशिश करने लगी।
  लेकिन उस दिन उनकी लड़ाई थमी नहीं, बल्कि बेडरूम से होते हुए घर के टेरिस पर जा पहुंची। जहाँ अचानक ही मम्मी का पैर फ़िसला और वे गिरने लगीं। हड़बड़ाहट में पापा ने उनके हाथ को तो थाम लिया पर खुद को न संभाल पाए। नतीजतन दोनों ही नीचे जा गिरे। माँ तुरंत ही खत्म हो चुकी थीं और हॉस्पिटल ले जाते जाते पिता की साँसों ने भी उनका साथ छोड़ दिया।
  पल भर में उसकी समूची दुनिया खत्म हो चुकी थी।पहले जिन माँ बाप की आपसी कलह से उसकी ज़िंदगी में कोलाहल मचा रहता था, वहीं आज उनके जाने के बाद  एक अजीब सा सूनापन पसर गया। ऐसे वक्त में उसे सिर्फ़ बंसी काका का ही सहारा था, जिन्होंने उसे बचपन से अपनी गोद में खिलाया था।
  बंसी काका ने भी प्रज्ञा बिटिया की ख़ुशी को ही अपने जीने का आधार बना लिया। वे प्रज्ञा की परवरिश करने में इतने मशगूल हो गए कि अपने आपको ही भूल बैठे। प्रज्ञा के सुनहरे भविष्य की ख़ातिर उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।
  बंसी काका के त्याग को प्रज्ञा ने व्यर्थ न जाने दिया। उसने मेहनत करके न सिर्फ़ अपने करियर को एक उच्च मुकाम पर पहुंचाया बल्कि एक सफ़ल व्यक्तित्व की स्वामिनी भी बनी। लेकिन बचपन में मिली रिश्तों की खटास और प्रतिकूल परिस्थितियों ने उसके व्यवहार में कुछ कठोरता भी भर दी। लिहाज़ा उसकी ज़िंदगी एक मशीनी अंदाज़ में चलती, उसका हर काम वक्त के दायरों में कैद था।
  उम्र का बत्तीस आंकड़ा पार कर चुकी प्रज्ञा ने ज़िंदगी के कड़वे अनुभव के कारण अभी तक शादी नहीं की थी। वो औराई शुगर मिल बनारस में अकाउन्ट्स ऑफिसर के पद पर पिछले छह सालों से कार्यरत थी। अपने वर्कप्लेस के अलावा आस पास रहने वालों के साथ उसका ज्यादा घुलना मिलना नहीं था। हाँ बंसी काका के बहुत ज़ोर देने पर वो यदा कदा ऑफिसर्स की पार्टीज़ अटैंड कर लिया करती।
  लेकिन पिछले चार महीनों से उसके शांत जीवन में मानो भूचाल सा आ गया था, जब डॉ प्रणव को उसके बगल वाला बंगला अलॉट हुआ। फैक्ट्री के हॉस्पिटल में हाल ही में डॉ प्रणव की नियुक्ति हुई थी। कहने को तो उनकी फ़ैमिली में उनकी मां और इकलौती बच्ची मनु ही थी। पर उस मनु के आ जाने से प्रज्ञा के जीवन की शांति भंग हो चुकी थी। वह कहने को आठ साल की थी लेकिन सिर्फ़ आठ साल की उस बच्ची ने प्रज्ञा की रातों की नींद हराम कर दी थी। वो चुलबुली बच्ची अपनी शैतानी हरकतों से प्रज्ञा को परेशान किए रहती।
  कभी वो प्रज्ञा के गार्डन से उसके प्रिय लाल, पीले, सफेद गुलाब के फूल तोड़ती और कभी उसकी क्यारियों से अधपकी मटर की फलियाँ तोड़ ले जाती। चूँकि उनके बगीचे आपस में मेहँदी की हेज (झाड़ी) से जुड़े हुए थे, और उनके बरामदों को भी तकरीबन दो हाथ की एक दीवाल जोड़ती थी तो ऐसे में कोई भी कूद फांद कर आसानी से इधर उधर जा सकता था। शैतान मनु प्रज्ञा के ऑफ़िस में होने पर बेरोकटोक इधर उधर घूमते हुए अपनी मनमर्ज़ी किया करती। यही नहीं प्रणव की बूढ़ी माँ भी सुबह पांच बजे से ही अपने भजन कीर्तन, पूजा पाठ वगैरह शुरू कर देती थीं। जिसकी वजह से प्रज्ञा की सुबह सुबह की नींद उचट जाया करती थी।
  तो सालों से एकाकी जीवन जीती आ रही प्रज्ञा की ज़िंदगी में दादी पोती का ये अनाधिकार प्रवेश उसे विचलित करने लगा। उसे उस बच्ची मनु की बालसुलभ शैतानियाँ भी बहुत खलती थीं। वो चाहती थी मनु उसकी आँख के एक इशारे से डर जाए, पर दादी की लाड़ली पर प्रज्ञा के गुस्से का कोई असर न होता। उलटे प्रज्ञा के आँख दिखाने पर वो भी अपने नन्हें नन्हें हाथ कमर पर रख प्रज्ञा से लड़ने खड़ी हो जाया करती। उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली कहावत चरितार्थ होते देख प्रज्ञा का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचता। वो मनु को सबक सिखाने के बहाने ढूँढा करती।
  इधर दो शेरनियों को एक दूसरे से भिड़ा देख बहुत हिम्मत करके बंसी काका प्रज्ञा को और मनु की दादी मनु को युद्ध के मैदान से जैसे तैसे लेकर जाते। बत्तीस साल की प्रज्ञा मनु से लड़ते वक्त बिलकुल बच्ची ही नज़र आती। ये देखकर बंसी काका को बहुत ख़ुशी होती। ऑफ़िस के बाद चुपचाप, ख़ामोश, अपने काम से काम रखने वाली प्रज्ञा कम से कम मनु से लड़ने के बहाने ही अपनी चुप्पी तोड़ने लगी थी।
  डॉ प्रणव के कानों तक भी इस युद्ध के चर्चे पहुँचने लगे थे। इस बात के लिए उन्होंने अपनी लाड़ली को बहुत समझाया पर बिन माँ की नन्हीं सी बच्ची को वे ज्यादा कुछ कह भी नही पाते थे। वे खुद बड़े ही सौम्य व् शांत नेचर के व्यक्ति थे। एकाध बार घर के बाहर व् ऑफ़िस में प्रज्ञा से सामना होने पर उन्होंने उससे इस बाबद बात करने की कोशिश भी की। पर प्रज्ञा का रूखे लहजे में दो टूक बात करना उन्हें हमेशा उनकी हद याद दिलाता रहा।
  वो ठंड की एक दुपहरी थी, उस दिन प्रज्ञा को हल्की हरारत महसूस हो रही थी। लिहाज़ा ऑफ़िस से छुट्टी लेकर उसने घर पर ही आराम करना उचित समझा। बंसी काका ने मूंग की खिचड़ी बनाकर उसे खिलाई और फिर कुछ सामान लेने पास ही मिर्ज़ापुर चले गए. इधर एक पैरासिटामोल खाकर प्रज्ञा भी सोने की कोशिश करने लगी।
  घर पर पसरे सन्नाटे को सूंघ प्रज्ञा की सबसे बड़ी दुश्मन मनु मटर की फ़लियों को खाने का मोह न छोड़ पायी। धीरे से बरामदे की दीवाल फांद कर वो मटर की क्यारी की तरफ़ दबे पाँव बढ़ने लगी। छोटी सी घेरदार फ्रॉक में काफ़ी फलियाँ तोड़कर वो घर वापसी के लिए मुड़ी ही थी कि अचानक प्रज्ञा को सामने खड़ा देख उसकी सारी ख़ुशी काफ़ूर हो गयी। “आज पकड़ी गयी चोरनी।” कहते हुए उसे कुछ डराने की गरज़ से प्रज्ञा धीरे धीरे उसकी ओर बढ़ने लगी।
  रंगे हाथों पकड़े जाने से भयभीत मनु सहसा ही पीछे मुड़ी और भागने लगी। फ्रॉक में रखी मटर को उसने दोनों हाथों से पकड़ रखा था, लिहाज़ा सामने का रास्ता सही से न देख पाने के कारण क्यारी की सजावट के लिए लगी इंटों की कतार से उसका पैर जा टकराया और वो लड़खड़ाकर गुलाब के पौधों पर जा गिरी। आअई…उसके मुंह से एक चीख़ निकली। पर अपनी फ्रॉक को जैसे तैसे काँटों से छुड़ाकर वो फिर से घर की तरफ़ दौड़ पड़ी।
  “अरे रुको, देखूं तुम्हें कहाँ चोट लगी है?”कहकर प्रज्ञा ने उसकी बांह पकड़नी चाही। पर डरी हुई मनु ने झटके से अपना हाथ छुड़ाया और भागने लगी। 
  लेकिन फिर से सामने न देख पाने के कारण वो बरामदे की दीवाल की ऊँचाई का सही अंदाज़ा न लगा पायी और धड़ाक से मुंह के बल दीवाल से भिड़ गयी। उसकी ठोड़ी से खून का फ़व्वारा बह निकला और उसके फ्रॉक की सारी मटर ज़मीन पर गिरकर बिखर गयी। पीछे से भागकर आती प्रज्ञा मनु की ये हालत देखकर घबरा गयी। उसकी तबियत पहले ही सुस्त थी। लिहाज़ा उस पर बेहोशी छाती चली गयी और वो वहीं एक ओर लुढ़क गयी।
  गनीमत थी कि उसी पल बंसी काका ने मेनगेट खोलकर घर के अहाते में प्रवेश किया। एक के बाद एक होती इन आवाजों से मनु की दादी भी “क्या हुआ…कहती हुई बाहर निकलीं और दोनों की हालत देख घबरा गयीं। हाथ का थैला वहीं पटक बंसी काका ने मांजी से प्रज्ञा को संभालने की गुज़ारिश की और मनु को गोद में उठाकर हॉस्पिटल की तरफ़ दौड़ पड़े। तुरंत ही प्रणव ने बेटी मनु का प्राथमिक उपचार कर उसकी कटी ठोड़ी पर चार टाँके लगाये। “पापा आंटी भी गिर पड़ी हैं, आप उन्हें भी दवाई लगा दो।”थोड़ी ठीक होते ही मनु के मुंह से निकला।
  “हाँ साहब, प्रज्ञा बिटिया को मैं बेहोशी की हालत में मांजी के पास छोड़ आया था। आप घर चलकर उन्हें भी देख लो। आज सुबह उन्हें हल्का बुखार भी था।”
  “ठीक है बंसी काका।”कहकर प्रणव ने अपने असिस्टेंट को बुलाकर उसे सब काम समझाया और मनु को गोद लेकर घर की तरफ़ चल पड़े। घबराये हुए बंसी काका के साथ गोद में मनु को लिए प्रणव ने जब प्रज्ञा के घर में प्रवेश किया तो बेडरूम में उनकी माँ प्रज्ञा के बेड के पास खड़े हुए उसे कुछ समझाईश दे रही थीं और बेड पर बैठी हुई प्रज्ञा सिर नीचा किये हुए उनकी बात को ध्यान से सुन रही थी।
  “कैसी हैं अब आप?”मनु को गोद से उतार कर प्रणव आगे बढ़े।
  “अब बेहतर फील कर रही हूँ।”प्रज्ञा ने कोमल स्वर में कहा।
  “तुलसी का काढ़ा बनाकर पिला दिया है इसे, ये बिलकुल ठीक है। सिर्फ़ कुछ कमज़ोरी और नींद पूरी न होने से हुई थकावट का असर था।”प्रणव की माँ ने बेटे की ओर रुख करते हुए कहा।
  “आंटी आप बिलकुल अच्छे हो जाओगे, मेरे पापा आपको अच्छी सी मेडिसिन दे देंगे। और हाँ, अब मैं आपको कभी परेशान नहीं करुँगी और आपकी मटर की फलियाँ भी नहीं चुराऊँगी।”प्रज्ञा की तकलीफ़ देख बालमन पिघलकर अपनी सारी दुश्मनी भूल चुका था। मनु की बालसुलभ बातों और उसके भोलेपन पर प्रज्ञा को बहुत प्यार आया।
  “आपको तो बहुत चोट लगी है।”प्रज्ञा ने उसे उठाकर अपनी गोद में बैठा लिया और उसकी चोट देखने लगी। 
  “आआअह्ह्ह्….अचानक मनु के मुंह से निकली चीख़ पर प्रज्ञा ने तड़पकर उसे गले लगा लिया और देर तक उसकी पीठ पर स्नेह से हाथ फेरती रही।
  “अब आप आराम कीजिए, आपको आराम की सख्त जरूरत है।” मनु को प्रज्ञा की गोद से लेते हुए प्रणव की नजरें उससे जा टकराईं। उन खामोश निगाहों का सूनापन प्रज्ञा के मन को बेहद आहत कर गया। मनु को लगी चोट के लिए भी वह ख़ुद को ही दोषी मान रही थी।
“बंसी काका, ये क्या हो गया मुझसे, एक मासूम की शरारतों को मैंने हार जीत का प्रश्न बना लिया और अपने अहंकार के चलते उसे कितनी चोट पहुंचा दी। सच काका मैं बहुत अभागिन हूँ। जिस पर भी मेरा साया पड़ता है वो बर्बाद हो जाता है। छोटी थी तो अपने माँ बाप को खा गयी। मेरे ही कारण आपको भी ज़िंदगी में कोई सुख न मिला और अब वो नन्हीं सी जान मेरी कुंठा का शिकार बन गयी…” प्रज्ञा का स्वर भर्रा गया।
  “अरे नहीं बिटिया ऐसी कोई बात नहीं है, तुम नाहक ही इतना सोच रही हो। छोटी सी चोट है, बच्ची जल्द ही ठीक हो जाएगी।”
  काका के लाख समझाने पर भी प्रज्ञा उदास थी। बार बार उसके कानों में मनु की चीख़ सुनाई पड़ती। उसका भोला मुखड़ा आंखों के आगे तैर जाता और वह मन ही मन अपने आपको धिक्कारने लगती।
  इधर प्रज्ञा की चुप्पी और उदासी से बंसी काका फिर परेशान हो उठे। उन्हें प्रज्ञा का अनाथ बचपन याद हो आया। वो ये अच्छे से जानते थे कि माँ बाप के प्यार और साये से मरहूम बचपन के अकेलेपन ने प्रज्ञा बिटिया को कुछ कठोर अवश्य बना दिया है लेकिन आज भी उसका दिल बच्चों जैसा निश्छल व् निष्कपट है। वह ऊपर से चाहे कितनी भी सख्त दिखती हो, पर अंदर से मोम सी मुलायम है।
  तीस साल पहले जिस प्रज्ञा को उन्होंने अपनी गोद में खिलाया था, आज वही उनका सहारा बन चुकी है। पर कल को उसका सहारा कौन होगा, उनके जाने के बाद इतनी बड़ी ज़िंदगी वो अकेले कैसे काटेगी? वो तो इतनी अंतर्मुखी है कि अपने दिल की बात भी किसी से न बता पायेगी….सोचते सोचते बंसी की आँखें नम हो गयीं। फिर अचानक ही उनके दिमाग़ में एक ख़याल आया और होठों पर मुस्कुराहट तैर गयी।
  दो तीन दिन बाद प्रज्ञा ने ऑफ़िस जाना शुरू कर दिया। इस बीच उसे मनु की बहुत याद आयी, मगर कुछ झिझक व संकोचवश वो डॉक्टर प्रणव के घर जाकर उसका हाल चाल न पूछ सकी। शाम को ऑफ़िस से लौटने के बाद आदतन वो अपने बगीचे की ओर गयी लेकिन उसका मन किसी भी चीज़ में नहीं लग रहा था। तभी बंसी काका से पता चला की डॉ साहब अपने परिवार के साथ छोटे भाई के घर बनारस गये हुए हैं।
  हर तरफ़ पहले जैसी शांति पसर चुकी थी लेकिन प्रज्ञा के मन में अजीब सा कोलाहल मचा था। बार बार पड़ोस की ओर उसकी नजरें उठतीं लेकिन उधर से कोई आहट न होती देख जैसे बुझ जातीं। मटर की फलियाँ भी मानो मनु के जाने से उदास हो चुकी थीं। बंसी काका को उसकी बेचैनी समझ में आ रही थी। परंतु प्रज्ञा बिटिया को किसी की कमी खल रही है, ये बात उनके मन को प्रफुल्लित किए जा रही थी।
  करीब एक हफ्ते बाद अचानक सुबह पांच बजे ही प्रज्ञा की नींद फिर पूजा की घंटियों से खुल गयी ‘ओह्ह लगता है सब आ गए…’ प्रज्ञा रजाई से मुंह निकाल कर बुदबुदाई। आज आरती के बोलों संग घंटियों की धुन उसे बेहद मधुर प्रतीत हो रही थी। अचानक मनु को देखने और उसे प्यार करने की भावना उसके भीतर बलवती हो उठी। तुरंत ही रजाई को परे फेंक वह उठ खड़ी हुई।
  “अरे बिटिया, इतनी जल्दी उठ गयीं, तबियत तो ठीक है न?”बंसी काका से अपनी ख़ुशी छुपाये न छुप रही थी। वे डॉ प्रणव व मनु के प्रति अपनी बिटिया के बदलते भावों से अनजान न थे।
  “हां काका, तबियत तो बिलकुल ठीक है। वो बस…ऐसे ही…..” प्रज्ञा कुछ झेंप गयी। प्रज्ञा के ऑफ़िस जाने के बाद ग्यारह बजे करीब घर के सारे काम निपटाकर बंसी काका ताज़े फल और सब्जी लेने पास के हाट चल दिए।
  “नमस्ते मांजी….कैसी हैं आप?”सब्जी खरीदते समय प्रणव की माता जी को देख बंसी काका ने उन्हें नमस्कार किया।
  “ठीक हूँ बंसी, तुम सुनाओ। तुम्हारी प्रज्ञा बिटिया कैसी है?”
  “जी वे भी बिलकुल ठीक हैं.”बंसी काका ने उनके हाथ से सब्जी का थैला ले लिया। दोनों बातचीत करते हुए साथ ही चल पड़े।
  “बंसी क्या प्रज्ञा ने शादी नहीं की, मेरा मतलब उसका परिवार वगैरह…?”
  “नहीं मांजी, प्रज्ञा बिटिया के परिवार में कोई नहीं….कहते हुए बंसी ने मांजी को प्रज्ञा के बारे में पूरी दास्तान कह सुनाई।
  “ओह्ह… प्रज्ञा वाकई बहुत बहादुर और समझदार है, जो ऐसी कठिन परिस्थितयों में भी हिम्मत नहीं हारी और साथ ही उसके जीवन में तुम्हारा योगदान भी कम नहीं है।”कहकर मांजी कुछ क्षण के लिए रुकीं।“बंसी मेरे बेटे प्रणव को तो तुम जानते ही हो। बहुत ही नेकदिल इंसान है। चार साल पहले मनु की माँ को कैंसर हुआ और लाख कोशिशों के बावजूद हम उसे बचा नहीं पाए। तब से मनु को माँ का प्यार नसीब नहीं हुआ और प्रणव की ज़िंदगी में भी एक कमी सी है। इधर प्रज्ञा के जीवन में भी उदासी है। कितना अच्छा हो अगर दोनों बच्चे एक हो जाएं। आख़िर मेरी ज़िंदगी भी कब तक है. मेरे जाने के बाद इन दोनों का क्या होगा सोचकर मन बहुत घबराता है। मनु की मां के जाने के बाद पहली बार मैंने अपने बेटे की आंखों में किसी के प्रति चाहत के भाव देखे हैं। वह प्रज्ञा को बहुत खुश रखेगा बंसी।” 
“मांजी आपने तो मेरे मुंह की बात छीन ली। दरअसल मेंरे दिमाग में भी यही बात चल रही थी।” मांजी की बात सुनकर बंसी काका की ख़ुशी का कोई ठिकाना न था। काफी देर उन दोनों की बातें चलती रहीं।
   इधर जनरल ऑफिस के अपने केबिन में बैठी प्रज्ञा का मन मनु में ही उलझा हुआ था। ‘कितनी छोटी मासूम सी है, मां के प्यार को कितना मिस करती होगी। खुद वह भी तो इसके लिए सदा ही तरसी है। एकाएक वह बुदबुदा उठी….नही नही, वह मनु के साथ ऐसा नही होने देगी, उसे बहुत प्यार देगी, अपनी सारी ममता उस पर लुटा देगी। सहसा उसका ध्यान प्रणव की ओर जा पहुंचा….कैसा सुदर्शन व्यक्तित्व, पर वो उदास तनहा आंखे…आखिर क्या कहना चाहती थीं उस दिन…उफ्फ। पल भर को प्रज्ञा मानो उन निगाहों के जादुई स्पर्श में डूब गयी। तभी केबिन के बाहर कुछ तेज हलचल हुई।
   “क्या हुआ हरिशंकर, ये शोर किसलिए?” घंटी बजाकर उसने प्यून को बुलाया।
   “मैडम, राजन सीढ़ियों से फिसल कर गिर गया है। काफी मोच आ गयी लगती है। डॉक्टर साहब को बुलाया है, आते ही होंगे।”
   “अरे” कहकर प्रज्ञा ने टेबल पर से अपना पर्स उठाया और केबिन का दरवाजा उड़काकर घटनास्थल की ओर चल पड़ी। डॉक्टर प्रणव आ चुके थे। उन्होंने चेकअप करने के बाद राजन को मोच वाली जगह पर बैंडेज बांधा और उसे पेनकिलर देकर हरिशंकर को उसे सावधानी से घर छोड़ आने को कहा।
    “मामूली चोट है, एक दो दिन में दर्द बिल्कुल चला जायेगा।” सामने खड़ी प्रज्ञा की आंखों में कौंधते प्रश्न को देखकर प्रणव ने कहा।
   “थैंक यू कि आपने तुरंत आकर देख लिया।” कहकर प्रज्ञा ने उन्हें एक कप चाय के लिए अपने केबिन में आमंत्रित किया।
   “वैसे इस का वक्त तो नही, पर चाय के लिए मैं कभी मना नही कर सकता।” प्रणव हँसे। उनकी निश्छल मासूम हँसी प्रज्ञा के दिल मे कहीं गहरे उतर गयी। चाय के साथ बातों का लंबा दौर चला जिसमे प्रज्ञा और प्रणव ने एक दूसरे के बारे में काफी कुछ जाना। प्रणव के सादगी भरे आत्मविश्वास ने प्रज्ञा को बहुत प्रभावित किया तो प्रज्ञा के जीवन की सच्चाई जान प्रणव हैरत से भर गए।
   “आप तो बेहद साहसी हैं। आपके हौसले व हिम्मत की दाद देता हूँ मैं। सच कहता हूं आप जैसी शख्सियत मिलना मुश्किल है।”
   “बस कीजिये, इतनी भी अच्छी नही हूं मैं। आज की तारीफ का कोटा पूरा हुआ। इससे ज्यादा मैं हजम नही कर पाऊँगी।” प्रज्ञा खिलखिला पड़ी।
   “नही, सच दिल से कह रहा हूं। आप मे इतनी खूबियां हैं कि बंदा पूरी उमर आपकी तारीफ करते गुजार सकता है। कहिए है मंजूर।” प्रज्ञा के सामने खड़े होकर बड़े अदब से झुकते हुए प्रणव ने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ा दिया।
    अप्रत्याशित मिले इस प्रणय निवेदन पर प्रज्ञा अचकचा गयी। एकबारगी उसे समझ न आया कि डॉक्टर प्रणव के इस प्रस्ताव पर वह क्या प्रतिक्रिया दे। हालांकि खुद उसका दिल भी यही चाहता था। अरसे बाद खुशियों ने उसके द्वार पर दस्तक दी थी। अतः अपनी बेरंग जिंदगी के कैनवास पर रंगों की छटा बिखेरने हेतु उसने फौरन ही इस निवेदन को स्वीकार कर लिया।
    मधुर मिलन की इस खुशी को दिलों में संजोए दो जोड़ी निगाहें प्रेमपथ पर चलने को आतुर नजर आयीं। जहां प्रणव प्रज्ञा को पाकर अति उत्साहित थे वहीं प्रज्ञा के मुख पर लाज की स्वाभाविक लालिमा थी। तभी फैक्ट्री के घंटे ने पांच का सायरन बजाया।
   “ओह्ह छुट्टी का समय हो गया, घर चलें।” प्रज्ञा ने अपना पर्स उठाया। बातें करते हुए वे दोनों साथ ही चलने लगे। मेनगेट खोलकर प्रज्ञा ने जैसे ही अपने घर के अहाते में प्रवेश किया।
  “आंटीइइइ…अचानक ही उसे वो चुलबुली आवाज़ सुनाई दी, जिसका वह बेसब्री से इंतजार कर रही थी।सामने देखा तो मनु फिर उसी दीवाल को फांद उसके पास दौड़ी चली आ रही थी। उसने आगे बढ़कर मनु को उठाकर अपने सीने से लगा लिया और उसे प्यार करने लगी। वहीं बाहर लॉन में बैठी मांजी ने बेटे प्रणव के चेहरे की बदली रंगत देखी तो वे भी सब समझ गयीं। मन ही मन मुस्कुराते हुए उन्होंने ईश्वर का धन्यवाद किया।
    इधर अपनी बिटिया की आंखों में ख़ुशी की चमक देख बंसी काका भी निहाल हो चुके थे। धीरे से मटर की फलियों की ओर देख उन्होंने उनका शुक्रिया भी अदा किया जो रिश्तों की मधुरता की साक्षी बनी झूम झूमकर अपनी ख़ुशी का इज़हार कर रही थीं।

पूनम पाठक
इंदौर, मध्यप्रदेश                                                                                 

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