कहानी:काला टीका-दीप्ति मित्तल
काला टीका
पात्र- तीन महिलाएँ
काव्या ने कार सोसायटी की विजिटर पार्किंग में पार्क की और सधे कदमों से अपनी सहेली रूपाली के घर की ओर बढ चली। उसकी चाल से समझ आ रहा था कि साड़ी पहनने के मामले में अभी वह नौसिखिया ही है। कभी पल्लू संभालती तो कभी प्लेट.., ऊपर से हाई हिल में भी चलने की आदत नहीं थी अतः बीच बीच में चाल भी लड़खड़ा रही थी। खैर जैसे तैसे उसने रूपाली के घर पहुँचकर डॉरबेल बजाई। रूपाली की मम्मी आराधना ने दरवाजा खोला।
“नमस्ते आँटी जी, कैसी हैं आप?” कहकर काव्या ने पॉज लेकर मुस्कुराते हुए जिस उम्मीद के साथ आराधना की ओर देखा वह उन तक पहुंच गई। वे काव्या के मनोभावों को समझते हुए उसकी तारीफों के पुल बाँधने लगी।
“अरे वाह काव्या बेटा! आज तो तुम गज़ब ढ़ा रही हो! हमेशा तुम्हें वेस्टन आउटफिट में ही देखती हूं, पर सच कहूं तो तुम्हारी पर्सनैलिटी पर साड़ी खूब फ़बती है, क्या जच रही हो…! पार्टी में जरा संभल के रहना किसी की नज़र ना लगे।”
“आंटी जी! आप तो बस यूं ही मुझे झाड़ पर चढ़ा रही हो! इतनी भी खास नहीं लग रही हूं, आइना देखा था मैंने…”, अपनी तारीफ सुन काव्या लजाते हुए मुस्कुराई। “अच्छा रूपाली कहां है, तैयार हुई कि नहीं.. हमें पहले से ही लेट हो रहा है?”
“मैं क्या जानू, तू खुद ही देख ले, घंटे भर से कमरा बंद किए बैठी है, तैयार हो रही है या क्या कर रही है, पता नहीं”
काव्या ने रूपाली के कमरे का दरवाजा खटखटाया, “जल्दी कर हम लेट हो रहे हैं।”
वह भीतर से ही बोली, “हाँ, हाँ बस 5 मिनट” काव्य और रूपाली दोनों कॉलेज टाइम फ्रेंडस् थी। दोनों ने एक ही कॉलेज से इंजीनियरिंग की और फिर उन्हें कैंपस सलेक्शन द्वारा एक ही कंपनी में नौकरी भी मिल गई। आज उनके एक कलीग की इंगेजमेंट थी जहां पर ये दोनों जा रही थी।
“चाय पियोगी काव्या, मैं अपने लिए बना रही हूँ?”
“नहीं आंटी जी! अभी नहीं।” काव्य साड़ी को लेकर अभी भी कॉन्शियस थी, वह उसे ही ठीक करने में लगी हुई थी।
“उठो जरा, तुम्हारी साड़ी ठीक कर दूं”, आराधना ने उसकी मनोस्थिति को भाँप कर उसे खड़ा किया और इधर-उधर घुमाकर देखा। फिर उसकी साड़ी ऐसे करीने से बांधी कि काव्या चलने-फिरने, उठने-बैठने में सहज हो गई। उसका लड़खड़ाया आत्मविश्वास लौट आया। “काव्य बेटा साड़ी तो अब ठीक है लेकिन मेरे ख्याल से इस पर गोल्डन के बजाय सिल्वर ज्वेलरी ज्यादा सूट करेगी”,
“ओह! ऐसा क्या आंटी जी? पर मेरे पास तो नहीं है।”
“अरे तो क्या हुआ, मैं लाती हूं रुको।”
जितना समय रूपाली ने तैयार होने में लिया उतनी देर में आराधना ने काव्या को बहुत अच्छी तरह तैयार कर दिया। खुले बालों का बड़े सलीके से जूड़ा बनाया, साड़ी के साथ मैचिंग पर्स दिया, ज्वेलरी पहनाई और थोड़ा मेकअप ठीक कर माथे पर मैचिंग बिंदी लगा दी। काव्या ने जब शीशे में देखा तो उसे अपने बदले रूप पर यकीन ही नहीं हुआ। वह आराधना को गलबहियाँ डाल कर बोली, “आंटी जी! आप नहीं होती तो आज मेरा क्या होता…आपको तो किसी नामी फैशनहाउस में स्टाइल गुरु होना चाहिए।” इतने में रूपाली बाहर आ गई, आज वह भी गज़ब ढ़ा रही थी।
“अरे वाह! क्या बात है! ! देखना आज तुम दोनों सहेलियों के लिए उस पार्टी से ही कोई रिश्ता जरूर आ जाएँगा।”
“क्या मॉम! दिन-रात बस मेरी शादी के ही सपने देखते रहती हो, और कुछ काम नहीं है तुम्हें…?, रूपाली तुनककर बोली।
“जवान लड़की की मॉ को इससे बडा काम क्या हो सकता है कि अपनी बेटी के लिए एक अच्छा सा लड़का खोजे…।” फिर आराधना काव्या से रूपाली की शिकायत करने लगी, “कितनी बार इसे बोला कि खुद ही कोई सुटेबिल मैच देख ले, मुझे कोई आपत्ति नहीं है, मगर ना खुद देखती है, ना हमें देखने देती है….काव्या! तू तो इसकी पक्की सहेली है, तुझे तो जरूर पता होगा..कहीं कुछ है क्या इसका? हो तो मुझे बता दे, सच कहती हूँ जो है, जैसा है.. मैं उसके साथ इसके हाथ पीले कर दूंगी… बस लडका हो…, मुझे दामाद चाहिए बहू नहीं….।” कहकर आराधना खिलखिलाकर हँसी तो काव्या भी उनकी ठिठोली में शामिल हो गई।
“अच्छा अब ये सब बाद में…अभी हमें लेट हो रहा है”, मॉ को फेवरेट टॉपिक पर उतरता देख रूपाली अपनी सैण्डल पहनते हुए बोली तो आराधना भागी भागी आई।
“अरे, ये सैण्डल इस ड्रेस पर मैच नहीं कर रही हैं, वो मेरी गोल्डन ऐंब्रायडीवाली है ना, वो पहन… ”
“क्या मॉम कुछ भी, वो बहन जी टाइप मैं नहीं पहनूगी…” रूपाली चिढ गई।
“अच्छा बिंदी तो लगा ले, इंडियन ट्रडिशनल बगैर बिंदी अधूरे-अधूरे लगते हैं…”
“मुझे नहीं लगते, बाय मॉम, चल काव्या” रूपाली काव्या को खींचकर ले जाने लगी, मगर आराधना को चैन कहा था। बेटी बडे दिनों बाद अच्छे से तैयार होकर कहीं जा रही थी, मॉ का दिल सशंकित हो उठा और उसे जमाने भी बुरी नजर से बचाने के लिए झट से आँखों से काजल ले रूपाली के माथे पर एक ओर काला टिका लगा दिया।
“ईईई…ये क्या किया!! मैं क्या कोई दुधमुई बच्ची हूँ?”, रूपाली बिफर पडी।
“चुपकर इतनी सुंदर लग रही है, कहीं किसी की नजर लग गई तो… ”
“क्या मॉम, भला कोई कह सकता है कि तुम साइंस की रिटायर्ड प्रोफेसर हो, हरकतें तो अनपढों वाली करती हो…नजर-वजर कुछ नहीं होती…., सारा मेकअप खराब कर दिया..”, बडबडाते हुए रूपाली बाहर चली गई।
काव्या कार स्टार्ट करने लगी तो रूपाली ने कार के मिरर को अपनी ओर घुमाया और मॉ का लगाया काला टीका पोंछने लगी, “मॉम भी ना, थोडा भी तैयार हो जाऊ तो कभी मेरी बलाईया लेती हैं, कभी ये काला टीका जड देती हैं…समझती नहीं, आई डोंट लाइक दिस…”, मगर काव्या ने उसका हाथ रोक लिया।
“ये टीका मत हटा रूपाली, अच्छा लग रहा है…।”
“क्या यार, ये फालतू की चीज तुझे अच्छी लग रही है, मेरा मजाक उडा रही है ना…, कितनी बार मना किया है मॉम को कि यह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं…. कोई देखेगा तो क्या सोचेगा? यही ना कि मैं कितनी रूढ़ीवादी हूं या खुद को हूर समझती हूँ जो ये नजर का टीका लगाए घूमती हूँ।”
“जानती है इसे देखकर मैं क्या सोचती हूँ?”
“क्या?”
“यही कि कितनी लकी है तू, तेरे पास कोई एक ऐसा है जो तुझे देखता है, निहारता है, जो चाहता है कि तू हमेशा, हर पल सलामत रहे…। जानती है रूपाली! ये काला टीका नहीं, तेरे लिए आँटी की दुआए हैं, ईश्वर से तेरे लिए की गई प्रार्थनाएँ हैं कि तेरे साथ कभी कुछ बुरा न हो, उसका रक्षण हर वक्त तेरे साथ रहे…। ये काला टीका एक निशान नहीं बल्कि उनके बेइंताह प्यार का प्रमाण है।”
“अरे वाह, मुझे तो अच्छा खासा लेक्चर दे दिया मगर तू तो इसे कभी नहीं लगाती…?”
“मैं नजर का टीका इसलिए नहीं लगाती क्योंकि मेरे लिए दुआएँ करनेवाला… मुझे बुरी नजर से बचाने की ख्वाहिश करनेवाला कोई नहीं….। मेरी मां को कभी इतनी फुर्सत नहीं रही कि मेरी तरफ कभी नजर भर देखे भी…। वे और पापा तो अपनी प्रोफेशनल लाइफ में ही इतने बिजी हैं कि उन्हें खुद अपनी सुध नहीं, मेरी ओर तो क्या देखेगे…? मैं कब और कैसे नौकरों के भरोसे बड़ी हो गई उन्होंने कभी देखने की जरूरत ही नहीं समझी। मैं कैसे भी तैयार होकर निकलूं, कुछ भी पहनूं, कहीं भी जाऊं…उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता…। वे इसे मुझे स्पेस देना कहते हैं मगर मैं इसे उनकी सेल्फसेंटर्डनेस और रिश्तों के प्रति लापरवाही समझती हूँ।
जानती है, रूपाली आज जब आँटी तुझे ये टीका लगा रही थी तो मुझे तुझसे ईष्या हो रही थी….। मुझे उन्होंने कितने अच्छे से तैयार किया मगर ये प्यार भरी निशानी अपनी आँखों से उतारकर तुझे ही दी क्योंकि तू उनकी बेटी है, मैं नहीं….। उनकी जान तुझमें बसती है, मुझमे नही…।, तरसती हूं ऐसे नजर के टीके के लिए क्योंकि उसके साथ मुझे कम से कम किसी की ऐसी प्यार भरी नजर तो मिलेगी…।”
काव्या की बात सुन रूपाली स्तब्ध रह गई। सचमुच अपनी मॉम के बारे में इस तरह से तो उसने कभी सोचा ही नहीं था। हमेशा मॉ के प्यार को फॉरग्रांटिड लेती रही…, आज भी तो इतनी बडी रिटायर्ड प्रोफेसर को अनपढ और न जाने क्या-क्या बक आई…, और मॉम, वो तो सब हँसकर ही टाल देती है। पापा के गुजर जाने के बाद भी मॉ ने किसी मजबूत स्तंभ की तरह हमेशा उसका साथ दिया, कभी किसी बात की कमी नहीं होने दी….। उसकी हर छोटी से छोटी जरूरत का ख्याल रखा, वर्किंग होते हुए भी जरूरत के समय सदा उसके आस-पास बनी रही..। सचमुच इस काले टीका के रूप में उन्हीं की तो नजर हमेशा मेरे साथ बनी हुई है जो हर पल मेरा ख्याल रखती है।
यही सब सोचते हुए रूपाली ने काव्या की ओर देखा तो उसकी सजल हो उठी आँखों से काजल बाहर छलक रहा था, “अरे ये क्या कर रही है, जानती नहीं, लडकियों को मेकअप करके रोना अलाउड नहीं है, सारा मेकअप बहकर खूबसूरत चेहरे को मार्डन आर्ट बना देता है, जैसे इस वक्त तेरा चेहरा बना हुआ है..। देख सारा काजल गालों पर बह रहा है, पूरी बंदरिया लगने लगी है…। चल अभी वापस घर चलते हैं, थोडा मेकअप और मूड ठीक करते हैं, फिर पार्टी में जाएँगे, वैसे भी हमारी अपनी ऐंगेजमेंट थोडे ही ना है, जो टाइम से पहुँचना जरूरी है।”, रूपाली, हँसते हुए बोली और दोंनो कार से उतर वापस घर की ओर चल पडी।
अनुराधा ने दरवाजा खोला तो काव्या का उतरा चेहरा देख बिना कुछ पूछे, जाने रूपाली पर बरस पडी, “क्या कहा तूने इसे, फिर से लडी तू इसके साथ… ?, अनुराधा रूपाली को डाँटते हुए काव्या को दुलारने लगी। मॉ का दुलार पा काव्या भरे मन से फिर आँखे पनियाली कर बैठी।
“अरे! मैंने कुछ नहीं कहा मॉम! सच तुम्हारी कसम…। एक फोन आ गया था, इसकी किसी दूर की दादी का…, बस उन्हीं से बात करते-करते इमोशनल हो गई। सच्ची… ”, रूपाली भोला सा चेहरा बनाकर बोली तो काव्या की भी हँसी फूट पडी।
“चल, अब जल्दी से चेहरा-मोहरा ठीक कर वरना मॉम की ख्वाहिश अधूरी रह जाएँगी…”
“मेरी कौन सी ख्वाहिश..?”
“अरे वही रिश्तेवाली! ऐसी रोनी सूरत वाली बंदरिया को पार्टी में कौन पसंद करेगा?”, रूपाली ने ठिठोली की तो अनुराधा ने उसकी कमर पर धौल जमा दी।
“हाँ काव्या बेटा! तुम मेकअप ठीक कर लो, तब तक मैं तुम्हारे लिए अदरक वाली चाय बनाकर लाती हूँ।”, कहते हुए अनुराधा रसोई में चली गई।
“मॉम, आप वो कौन सी सैण्डल पहनने को कह रही थी, दो ना जरा…आप सही कह रही थी, ये वाली तो बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही… और मेरी ड्रेस से मैचिंग बिंदी भी ला दो ना..। काव्या को ही तैयार करती हो, मेरी तो कोई चिंता ही नहीं.. ”, रूपाली का माँ से शिकायत भरा, रूठता, इठलाता स्वर इस बात की गवाही दे रहा था कि उसे मॉ के प्यार का अहसास हो चला था।
“चिंता तो तेरी भी करती हूँ, मगर तू मेरी सुनती ही कहाँ है! वह चुपचाप सुनती है, वो मेरी अच्छी बेटी है.., आराधना की बातों से काव्या के दुखते मन पर जैसे मरहम लग गया हो.., उसे सुकून हुआ चलो, उसकी बातों से ही सही, उसकी सहेली को उस नजर के टीके की कीमत तो पता चली जो दुनिया की सबसे अनमोल चीज से भी बडी थी।
- लेखिका- दीप्ति मित्तल
बहुत सुन्दर प्रस्तुति परम्परा और आधुनिकता का संगम
बहुत मार्मिक कहानी,,,,, साधुवाद