समीक्षा:जागृति उद्घोष-सुधा कसेरा
पुस्तक : जागृति उद्घोष
(स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित उपन्यास)
लेखिका – अलका प्रमोद
समीक्षक – सुधा कसेरा
मानव सेवा ही वास्तविक पूजा है
सुप्रसिद्ध लेखिका अलका प्रमोद’ जी की पुस्तक ‘जागृति उद्घोष’, जो कि स्वामी जी के ही सम्पूर्ण जीवन पर आधारित है, मेरे हाथ में आने से पहले मैंने सोचा था कि यह विवेकानंद के व्यक्तित्व की तरह भारी- भरकम, क्लिष्ट भाषा में मात्र ज्ञान वर्धन के लिए लिखी गयी होगी और कोरे ज्ञान को प्राप्त करने के लिए, लिखी गयी शैली अधिकतर उबाऊ होती है,लेकिन जब यह मेरे हाथ में आई तो मैं सुखद आश्चर्य से भर गयी,क्योंकि यह एक उपन्यास के रूप में लिखी गई कृति है, जो पढ़ने में बहुत रोचक है.
कोरोना काल के एकांतवास में मुझे एक अच्छी पुस्तक पढ़ने को मिली , जो कि मेरे लिए एक वरदान स्वरुप थी. लेखिका के शब्दों में भी ,”मैं कोरोना के आक्रामक एकांतवास के आपातकाल में यह सृजन कर सकी.” ऐसे समय का एक पाठक और एक लेखक का इससे अधिक सदुपयोग क्या हो सकता है…?
इस 275 पन्नों के उपन्यास का आवरण बहुत ही आकर्षक और उपयुक्त है और शीर्षक ’जागृति उद्घोष’ भी अपने आप में पूरी पुस्तक का सार समेटे हुए है. लेखिका ने स्वामी जी के जीवन की प्रत्येक अवस्था की कड़ियाँ क्रम से, सटीक और सरल भाषा में इतनी प्रवाहपूर्ण जोड़ी हैं कि पढ़ते समय उसके प्रवाह में मैं बहती ही चली गयी.
इस पुस्तक को पढ़कर उनके जीवन संघर्षों के बारे में विस्तार से जान कर मुझे निश्चित ही बहुत कुछ सीखने के साथ इस कोरोना महामारी के दौरान नकारात्मक सोच से उबरने की भी प्रेरणा मिली. यह पुस्तक हर वर्ग के पाठकों के लिए पठनीय और संग्रहणीय है.
लेखिका ने उपन्यास का आरम्भ 1970 में कन्याकुमारी में समुद्र की लहरों से घिरे एक विशाल द्वीप, जिसपर विवेकानंद के अमर संदेशों को साकार रूप देने के लिए एक भव्य स्मृति भवन, ‘विवेकानन्द रॉक’ नाम से निर्मित किया गया था और जो आज एक प्रसिद्ध पर्यटन-स्थल है,से किया है.
इसी द्वीप के निर्जन स्थान पर साधना के बाद ही स्वामी जी को जीवन का लक्ष्य प्राप्ति हेतु मार्ग दर्शन हुआ था.
इसके बाद शिकागो (अमेरिका) में हुए ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में एक विस्तृत सभागार के मंच से उनका भाषण,जो बहुत चर्चित हुआ था, का वर्णन है.
इसके बाद लेखिका उनके जन्म के समय का वर्णन करती हैं. पूत के पाँव पालने में ही दिखाई देने लगे थे.धीरे- धीरे उनके माता-पिता ने महसूस किया कि उनका रुझान सन्यासियों की ओर बढ़ रहा है.यह देख कर वे बहुत चिंतित हुए,क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र भी अपने दादू की तरह कभी सन्यासी बन कर उनको हमेशा के लिए छोड़ कर चला जाए.
छह वर्ष की उम्र में उन्होंने नरेंद्र नाम से स्कूल में प्रवेश लिया. वे बचपन से ही चंचल,जिद्दी और हर बात को तर्क के आधार पर ही मानने वाले थे और अपने घर में छूआछूत और जात-पांत में भेद देख कर विद्रोह करने लगे थे. वे भगवान में विश्वास रखते थे, अंधविश्वास में नहीं और किसी के प्रति अन्याय को बर्दाश्त नहीं करते थे
जैसे–जैसे नरेंद्र युवा हो रहे थे,उनके विचार क्रांतिकारी हो रहे थे और वे अध्यात्म की ओर बढ़ रहे थे.वे ईश्वर, सृष्टि और जीवन के रहस्यों को जानने के लिए अनेक साधु,संत और मठाधीशों की शरण में गए, लेकिन संतुष्टि नहीं मिली.
एक दिन कॉलेज के ‘प्रधानाचार्य विलियम हेस्टी’ के बताने पर नरेंद्र दक्षिणेश्वर मंदिर जाकर रामकृष्ण परमहंस से मिलकर बहुत प्रभावित हुए,उनको ऐसा लगा मानो उन्हें ईश्वर को पाने का मार्ग मिल गया हो. इसके बाद वे आये दिन रामकृष्ण के पास जाने लगे.
रामकृष्ण जानते थे कि नरेंद्र में आध्यात्मिक शक्ति और प्रखर बुद्धि है, जिसका वे मानव कल्याण के लिए प्रयोग करना चाहते थे. नरेंद्र ने उनके कहने से मानव कल्याण के लिए स्वयं को समर्पित करने का निर्णय ले लिया. यह उनके जीवन का अहम् मोड़ था.
रामकृष्ण की मृत्यु के बाद वे उनके उत्तराधिकारी बने . उस समय उनकी उम्र तेईस वर्ष थी.एक शिष्य के ‘भारत भ्रमण’ के सुझाव के बाद वे तुरंत अपने गुरु भाइयों के साथ भ्रमण के लिए निकल पड़े. यह पदयात्रा धन के अभाव में बहुत कठिन थी, कई बार उन्हें भूखा रहना पड़ा और भिक्षा मांगनी पड़ी.
भ्रमण के दौरान उनको महसूस हुआ कि हमारी युवा-पीढी विदेशी संस्कृति से प्रभावित है और राजा महाराजा भोग-विलास में लिप्त हैं.वे देशवासियों को जागृत करना चाह रहे थे, तो पोरबंदर के दीवान शंकर पांडुरंग ने उनको सुझाया कि भारत में उनके उद्देश्य को समझने वाले बहुत कम हैं.वे अमेरिका के शिकागो राज्य में हो रहे ‘विश्वधर्म सम्मलेन’ में जाकर भारत की संस्कृति का प्रचार करेंगे, तो अधिक सफल होंगे. यह सुनकर उन्होंने अमेरिका जाने का निश्चय कर लिया.
खेतड़ी के राजा अजीतसिंह ने उनके जाने की व्यवस्था की और उनको अमेरिका में अपना नाम ’विवेकानंद’ बताने का आग्रह किया, तो वे मान गए.
अमेरिका पहुँच कर उन्हें कैसे बहुत कठिनाइयों का सामना करके ‘विश्वधर्म सम्मलेन’ में बोलने का मौका मिला और इसके बाद वे किस प्रकार अपने उद्देश्य में सफल होकर अन्य कई देशों में भी गए और लौटते समय उनके कुछ अंग्रेज अनुयाई उनके साथ भारत आए और कैसे अंग्रेज होते हुए भी,उन्होंने हिन्दू धर्म की वास्तविकता का प्रचार पूरे भारत में किया.अंत में उनको कितनी सफलता मिली और इस त्याग और सेवा के मसीहा को कैसे मोक्ष की प्राप्ति हुई,इस सब की विस्तार से जानकारी आपको पुस्तक पढ़कर ही मिलेगी, जिसको लेखिका ने बड़े रोचक और सरल शब्दों में लिखा है. इसके लिए उनको बहुत बधाई और शुभकामनाएं.
यह पुस्तक पढ़ते समय एक विचार मुझे बहुत विचलित कर रहा था कि श्रीमद्भागवत गीता के एक श्लोक में श्रीकृष्ण ने कहा है–
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानम धर्मस्य तदा आत्मानं सृजामि अहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्म संस्थापनाअर्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
(अर्थात “जब-जब भारत में धर्म की हानि होती है, तब-तब सज्जनों और साधुओं की रक्षा के लिए, दुर्जनों और पापियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में अवतार लेता हूँ.”)
लेकिन इक्कीसवीं सदी में जब साधु सन्यासी अपनी वासना पूर्ति के लिए ढोंग का लबादा ओढ़ कर देश में भ्रष्टाचार फैलाने का कार्य कर रहे हैं. युवा जो देश के कर्णधार हैं,पश्चिमी देशों की नक़ल की धुन में हिन्दू संस्कृति को भूलकर भौतिकवाद को अपना रहे हैं. नेता भी रक्षक की जगह भक्षक बन गए है.ऐसे समय में श्रीकृष्ण के अवतार विवेकानंद जैसे संत महापुरुष का अकाल क्यों पड़ गया है. वे क्यों नहीं अवतार ले रहे हैं..? जिससे पापियों का नाश होकर धर्म की रक्षा हो.आज के समय में ऐसे संत महापुरुषों की देश में बहुत आवश्यकता है. अंत में पाठक इस पुस्तक को पढ़कर उनके आदर्शों को आत्मसात करेंगे, तो लेखिका का लेखन सार्थक हो जाएगा.