कहानी : हरदम साथ डॉट कॉम-अलका सिन्हा

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हरदम साथ डॉट कॉम

कितनी हैरानी की बात थी कि डैडी जी के गुजर जाने के बाद भी वैभव में कुछ खास फर्क दिखाई नहीं देता था। वह थोड़ा गुमसुम जरूर रहने लगा था, मगर उसमें कोई छटपटाहट या अभाव की पीड़ा वह नहीं देख रही थी। शैली जानती थी कि वैभव की जिन्दगी में शैली और डैडी जी के सिवा कोई था ही नहीं, इसलिए डैडी जी का चले जाना उसे किस कदर खोखला कर जाएगा, इसकी आशंका से ही वह सिहर जाया करती थी। शैली उस रोज कितनी दुविधा में थी कि वह किस तरह वैभव को फोन करके बताए कि डैडी जी अंतिम वक्त में उसे पुकार रहे हैं। मगर वैभव इन सभी स्थितियों को बहुत सहजता से झेल गया। ऐसा कैसे हो सकता था कि जिस पिता ने उसे बचपन से मां का भी प्यार दिया, बड़े होने पर दोस्त बना, राजदार बना, जिसने उसकी प्रेमिका को सहर्ष अपने घर में कुलवधू का स्थान दिया, आज उसके न रहने पर वैभव तनिक भी विचलित नहीं था। क्या वह तटस्थ हो गया है? पहले-पहल तो शैली ने यही समझा कि सदमा इतना गहरा है कि वह अत्यधिक संयत हो बैठा है। उसे लगता था कि कुछ समय बाद वह फूट-फूटकर रोएगा और स्वीकार कर लेगा कि उसके डैड अब इस दुनिया में नहीं रहे। शैली की समझ में ऐसा विस्फोट जरूरी था। वह नहीं चाहती थी कि कोई उसे या वह स्वयं भी खुद को किसी तरह के भ्रम में रखे। वह उसे समझाना चाहती थी कि जिन्दगी ऐसे ही चलती है, वृक्ष पर फूल खिलते हैं, फल बनते हैं, फिर पक कर टूट जाते हैं, फिर नए फूल आते हैं…यही चक्र चलता रहता है…मगर ऐसी आवश्यकता ही नहीं पड़ी। उल्टे वह बेहद संतुलित था। वह अपने सभी काम नियम से कर रहा था, डैडी जी की कम्पनी का काम भी उसने बखूबी संभाल लिया था, बल्कि वह पहले की बनिस्पत अधिक समझदार दिखाई दे रहा था। हां, अब वह पहले की तरह बात-बात में हँसता नहीं था। बोलता कम, सोचता अधिक, मन-ही-मन बातें करता, जैसे उसने एक अलग ही दुनिया रच ली हो और वह धीरे-धीरे उसमें समाता जा रहा हो। अब उसे किसी की जरूरत नहीं थी, शैली की भी नहीं। शैली को कई बार लगता, जैसे वैभव को उसकी मौजूदगी या गैर-मौजूदगी से कोई फर्क नहीं पड़ता है। वैभव में आए इस परिवर्तन से शैली खुद को बहुत अकेला और उपेक्षित महसूस करने लगी थी।

डैडी जी के गुजरने के कोई एक महीना बाद शैली बीमार पड़ गई| वैभव ने शैली की सेवा-टहल में कोई कसर नहीं छोड़ी। डॉक्टर घर आकर मुआयना कर जाता। ब्लड-टेस्ट के सैम्पल वगैरह भी घर से ही भिजवा दिये गए। वैभव ने अपनी कम्पनी से एक महिला को शैली की देखरेख के लिए भेज दिया। था तो सब व्यवस्थित ही, मगर शैली खुद को बहुत अकेला महसूस करती रही। वैभव समय से काम पर जाता रहा। उसके सभी काम यथावत चलते रहे, जैसे वह कोई रोबोट बन गया हो, निष्ठावान मगर संवेदनहीन। शैली वैभव का साथ चाहती थी मगर वैभव के पास तो बात करने की भी फुर्सत नहीं थी। वह तो अपनी सेक्रेटरी के माध्यम से ही उसका हालचाल भी पता कर लिया करता|

शैली की शिकायत पर उसने वायदा किया कि कल से वह खुद शैली को फोन करेगा| अगले रोज वैभव का फोन आया था, “अब तो खुश, आज तो सेक्रेटरी से फोन नहीं कराया, खुद ही बात कर रहा हूँ…कैसी तबियत है?”

“मुझे खुश करने के लिए पूछ रहे हो, वरना तुम्हारे भीतर तो कोई बेचैनी नहीं?” शैली का मन और उदास हो गया|

“देखा, हो गई ना नाराज! मैं इसीलिए डरता हूँ तुमसे बात करने में|”

शैली समझ नहीं पा रही थी कि वैभव को क्या हो गया है, वह उसके लिए इतना अजनबी कैसे हो गया| पहले तो वह बिना पूछे ही उसके मन की बात जान लिया करता था, उसे पता होता था कि शैली को कैसे मनाया जा सकता है| मगर अब क्यों वह उसे समझ नहीं पाता, मना नहीं पाता| वह जब भी उसका साथ चाहती है, वह उसके लिए सुविधाएं जुटा देता है|

उसे याद है, वैभव का काम हमेशा ही बहुत सुव्यवस्थित हुआ करता था| इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान उनकी मित्रता भी तो इसी कारण से बढ़ी थी| सातवें सत्र में उन्हें एक सॉफ्टवेयर डेवेलप करना था| शैली की किताबी जानकारी तो अच्छी थी, मगर प्रैक्टिकल हैंड ज़रा कमज़ोर था| वह कम्प्यूटर पर तरह-तरह के प्रोग्रामों के बारे में सर्च कर रही थी|

“प्रोग्राम ऐसा हो जो रोज़मर्रा के काम आ सके,” वैभव हँसता हुआ कह रहा था|

“ऐसा प्रोग्राम…” शैली सोचने लगी, “मेरे काम का तो वो प्रोग्राम होगा जो मेरा वजन कंट्रोल कर सके|” शैली ने हँसकर उलाहना दिया, “बना सकते हो ऐसा प्रोग्राम?”

“बना तो क्या नहीं सकता मोहतरमा, मगर थोड़ा समय दो|” वैभव ऐसे ही बात किया करता था जैसे नाटक के संवाद बोल रहा हो|

हरदम मसखरी, हँसना-हँसाना, वह सीरियस तो कभी होता ही नहीं था| इससे पहले शैली ने उसे कभी ठीक से नोटिस नहीं किया था, मगर अब वह महसूस कर रही थी कि बेशक वह उन टॉपर्स में नहीं था जिनसे वह भीतर-ही-भीतर स्पर्धा करती थी, मगर नम्बर उसके भी अच्छे ही आते थे| वह क्लास के टॉपर्स की ओर इशारा कर के कहता, “इन सालों ने माहौल बिगाड़ रखा है…अरे किताबों में इतना भी ना घुस जाओ कि सिर का वजन बढ़ जाए|”

हाँ, तो वजन कंट्रोल करने का एक ऐसा प्रोग्राम उसने तैयार कर दिखाया था जो दिन-भर के भोजन के रूप में ली जाने वाली कैलोरीज, फैट्स, प्रोटीन वगैरह का संतुलित अनुपात निर्धारित करता था| अगर आज किसी ने एक आइसक्रीम खा ली है तो इस प्रोग्राम के ज़रिये शेष दिन के भोजन में अनुपात का संतुलन बनाये रखने वाले विकल्पों की जानकारी मिल जाती थी| शैली दंग रह गयी थी वैभव की क्षमता पर|

“अरे तुम तो बहुत बड़े साइंटिस्ट हो यार|”

“आपको पसंद आया मेरा काम? आप इसे अपने प्रोजेक्ट के रूप में जमा करा सकती हैं|” वैभव ने अपने नाटकीय अंदाज़ में शैली से कहा था| उसने शैली को इस प्रोजेक्ट के बारे में बहुत विस्तार से समझाया ताकि वह वाइवा में पूछे जाने वाले सवालों का संतोषजनक जवाब दे सके|

वैभव हर किसी की मदद के लिए तैयार रहता था| कोई अधिक नंबर ले कर उससे आगे निकल जाएगा, इस तरह की बातों पर वह कभी विचार नहीं करता था|

“हर किसी की अपनी क्षमता है,” वह कहता था, “और फिर अच्छे नंबर ले आना ही तो पढ़ाई का मकसद नहीं|”

शैली उसके स्वभाव और विचार से बहुत प्रभावित थी| उसके साथ प्रोजेक्ट तैयार करते हुए उसने जाना था कि सहज भाव से काम किया जाए तो हम अपना बेस्ट दे पाते हैं और काम करने में भी आनंद आता है| वैभव की हाज़िरजवाबी, उसका हँसमुख स्वभाव शैली को उसके निकट लाता गया| वैभव के साथ वक़्त का पता ही नहीं चलता था| शैली मन-ही-मन सोचने लगी थी कि अगर इसका साथ मिले तो सारी ज़िंदगी ऐसे ही हँसते-हँसाते बीत जाएगी|

ऐसा ही हुआ भी था| वैभव ने शैली की ज़िंदगी में खुशियाँ ही खुशियाँ बिखेर दी थीं| यों उनकी ज़िंदगी इतनी आसान भी नहीं थी, शैली तीन बार प्रेगनेंट हो कर भी माँ नहीं बन पाई थी| यह एक ऐसा अभाव था जिसकी कोई भरपाई नहीं थी| मगर वैभव ने शैली को कभी इस तरह की कमी महसूस नहीं होने दी | उसे उदास देखकर वह खुद ही उसके गोद में सिर रखकर लेट जाता, “मैं ही तो हूँ तुम्हारा बेबी!” वह सचमुच शैली की हर ज़रूरत और कमी को पूरा कर देता था| मगर अब क्या हो गया? क्या हो गया डैडी जी के जाने के बाद? क्या कॉलेज के वही पुराने हसीन दिन फिर लौट कर नहीं आ सकते?

रात लगभग आधी बीत चुकी थी, मगर वैभव अभी भी अपने स्टडी रूम में बैठा था| शैली ने महसूस किया कि वैभव ने जिस तरह डैडी जी की कम्पनी को एकाएक संभाल लिया, निस्संदेह उससे वैभव पर काम का दबाव बढ़ गया होगा|

“क्यों न मैं भी वैभव के काम में हाथ बटाऊँ?” शैली सोचने लगी, ज़रूरत पड़ने पर वैभव ने उसके लिए प्रोजेक्ट तैयार किया था, तो क्या आज वह वैभव के प्रोजेक्ट में शामिल नहीं हो सकती! शैली के भीतर एक नए उत्साह का संचार हुआ| उसे लगा, उसके भीतर वही कॉलेज वाली शैली जाग्रत हो उठी है…हँसती…खिलखिलाती…चुहल करती|

वह धीरे से वैभव के स्टडी रूम में जा पहुंची| वैभव की नज़रें कम्प्यूटर पर गड़ी थीं| शैली चुपके से आ कर वैभव के पीछे खड़ी हो गयी|

अरे! यह क्या? कम्पयूटर पर एक खूबसूरत लड़की की तस्वीर थी, वैभव जिससे चैट करने में मगन था| स्क्रीन पर उभर रहे गहन प्रेम के सम्वाद देख कर शैली तो चकरा ही गयी| उसने कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है, वह लड़खड़ाकर गिर ही पड़ती अगर उसने वैभव की कुर्सी न थाम ली होती। वैभव ने चौंक कर देखा, ”अरे शैली, तुम सोई नहीं ?”

”सो ही तो रही थी अब तक,” शैली कहना चाहती थी, मगर कह नहीं पाई। ”कौन है यह?” बड़ी मुश्किल से बस इतना पूछ पाई।

”ये?” वैभव हंसने लगा, ”पहचानने की कोशिश करो।” शैली हैरान थी कि रोमांटिक सवालों-जवाबों के साथ लगे चित्र को पहचानने के लिए कहते हुए उसे जरा भी हिचक नहीं थी।

”अरे, इतना परेशान होने की बात नहीं है शैली, ध्यान से देखो, ये तुम हो।” वैभव ने चित्र का ‘क्लोज-अप’ बनाया। पूरे स्क्रीन पर अब सिर्फ एक चेहरा था फूल-सी ताजगी लिए, किसी यंग एंग्लो-इंडियन का चेहरा…कुछ उसकी तरह का, मगर यह ‘वह’ थी, ऐसा मानना मुश्किल था| शैली बुरी तरह कन्फ्यूज हो गई|

वैभव ने ‘बैक’ का कमांड दिया और चक्र पीछे को घूमने लगा।

”इसे तो पहचानती हो? ये तुम्हारी कॉलेज की तस्वीर है?”

”हां|” शैली ने गरदन हिला दी|

”मैंने फोटो शॉप में जाकर उसमें थोड़े से चेंजेज किए हैं,” वैभव बताने लगा,   ”कट-पेस्ट के जरिए तुम्हारे बालों को कर्ल किया और थोड़ा रेड टिंच दिया, आई बॉल्स का रंग ब्लू कर दिया, कंप्लेक्शन थोड़ा और फेयर…और स्किन टोन को क्लीयर कर दिया…देखो|”

अब स्क्रीन पर वही खूबसूरत तस्वीर थी जिससे वैभव चैट कर रहा था|

”मगर तुम जिससे बातें कर रहे थे, वो तो मैं नहीं थी?” शैली अभी भी कुछ समझ नहीं पा रही थी|

”वह भी तुम्हीं थी। मैंने एक साइट बनाई है, देखना चाहोगी?” वह बताने लगा कि किस तरह वह डैड के गुजरने से पहले ही उनकी कमी को महसूस करने लगा था। वह उनका जाना बर्दाश्त नहीं कर सकता था और इसलिए खूब मेहनत से उसने यह साइट तैयार की थी — हरदम साथ डॉट कॉम।

”इस पर जाकर तुम अपने किसी भी प्रिय से लिंक कर सकती हो, वह जीवित भी है या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ये देखो…,” वैभव बताता भी रहा कि किस तरह एक विस्तृत प्रश्नावली के जरिए उसने बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग से डैडी की प्रोफाइल तैयार की| उनकी तर्क शक्ति, भावात्मक गहनता और मानसिक विश्लेषण आदि के आधार पर एक ऐसी साइट तैयार हो गयी जो बिलकुल डैडी की तरह व्यवहार करेगी| अब इस पर उनका फोटो भी लगा दो और उनसे चैट करो तो बिलकुल उसी प्रकार की प्रतिक्रियाएं मिलेंगीं जिस तरह वे दिया करते थे| 

”इस तरह वह व्यक्ति हरदम आपके साथ रहेगा… हरदम साथ डॉट कॉम | कैसी लगी तुम्हें मेरी वेबसाइट?” वैभव फक्र से पूछ रहा था| शैली अभी भी अविश्वास से देख रही थी| वह कंप्यूटर पर दिखाई दे रही खूबसूरत तस्वीर और अपने चेहरे के बीच समानता ढूंढ रही थी|

”तुम्हारी प्रोफाइल तैयार करने में बड़ी मेहनत करनी पड़ी,” वैभव बता रहा था कि वह बहुत बदल चुकी है| कॉलेज के ज़माने की जिस शैली को वह प्यार करता था, वह तो बहुत हाज़िरजवाब और मिलनसार हुआ करती थी|

”तुम्हारी प्रोफाइल में कॉलेज के जमाने की शैली है, हर बात पर हँसती, इतराती…याद है, तुम कितनी बिंदास हुआ करती थी?”

वैभव के कम्प्यूटर पर कॉलेज के समय की शैली इतराती हुई खड़ी है, उसका चमकता हुआ चेहरा, घुंघराले बाल, नीली आंखें खुद उसे ही मात दे रहे हैं। वैभव आज भी शैली को उसी तरह प्यार करता है, हँसता है, बोलता-बतियाता है, लेकिन कॉलेज वाली शैली को|

शैली हैरान थी कि जिस तरह वह कॉलेज के दिनों को लौटा लाने के लिए प्रार्थना कर रही है, उसी तरह वैभव भी कॉलेज वाली शैली को तलाश रहा है| जिस तरह वह कॉलेज के दिनों को दोहराती रहती है, उसी तरह वैभव भी अपनी कम्प्यूटरीकृत दुनिया में उन्हीं दिनों को जी रहा है…मगर दोनों हकीकत से दूर हैं| आज की शैली के चेहरे पर खिंच आई लाफिंग लाइन्स और व्यक्तित्व का ठहराव उसे ओल्ड और आउटडेटेड बना रहा है। वैभव की निगाहों में इस शख्स के लिए कोई जगह नहीं है। उसने शैली के खूबसूरत अतीत को हमेशा के लिए जीवंत कर लिया है। वह वैभव के कंप्यूटरीकृत आकाश में लहरा रही है, इतरा रही है, सभी चिंताओें से दूर चहक रही है।

शैली महसूस कर रही है कि वैभव की दुनिया में अब कोई बीमार या बूढ़ा नहीं होगा, सदा युवा रहेगा, उदास या दुखी नहीं होगा, हरदम हँसता रहेगा और हरदम साथ रहेगा…।

   हकीकत की दुनिया में दोनों का आज एक-दूसरे के लिए डैडी जी की तरह ही दिवंगत हो चुका है…| शैली देख रही है — उतारे हुए कपड़ों की तरह वहां कुर्सी पर उसका शरीर पड़ा है, दिन-ब-दिन ढलता…बूढ़ा होता…|

  • अलका सिन्हा

371, गुरु अपार्टमेंट्स

प्लॉट नं. 2, सेक्टर 6, द्वारका

नई दिल्ली-110075

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