आख़िरी फ़ैसला-आरती पांड्या
आख़िरी फ़ैसला
मैं एक हाई कोर्ट जज हूँ l रोज़ ही अदालत में हर तरह के मुकद्दमें सुनता हूँ और उनके फैसले सुनाता हूँ l अपनी १५ सालों की इस नौकरी के दौरान मैंने अनगिनत फैसले सुनाये हैं और अपने इस बहुत ही ज़िम्मेदारी के कर्तव्य को ईमानदारी के साथ निभाने के लिए मैंने अपने दिल को भी दिमाग़ में तब्दील कर लिया है ताकि कभी भावना में बह कर कोई भी गलत फैसला ना ले सकूं l इसीलिए हर मुकद्दमें को महज़ एक केस समझ कर ही सुलझाता हूँ और किसी भी व्यक्ति या घटना के साथ व्यक्तिगत रूप से नहीं जुड़ता हूँ l
लेकिन आज मेरी कचहरी में एक ऐसा मामला आया जिसने मेरे सभी उसूलों को एक झटके में उठा कर फेंक दिया और केवल एक केस मान कर उस पर अपना निर्णय दे पाना मेरे लिए संभव नहीं हो पा रहा था इसलिए अगले पंद्रह दिनों के लिए उसका फैसला मैंने टाल दिया और आकर आपने चेम्बर में बैठ कर कानून की किताबें टटोलने लगा , क्योंकि खुद को मैं इस मामले का फैसला देने में असमर्थ महसूस कर रहा था l लगता है जैसे मेरा दिल आज दिमाग की नकली नकाब को उतार कर फिर से संवेदनशील हो गया है और मेरी भावनाएं मेरे फ़र्ज़ पर हावी होने लगी हैं l अजीब दुविधा में फंसा शाम को घर लौटा तो उस मामले की याचिका भी मानो मेरे साथ ही घर चली आई थी और मुझे सहज नहीं रहने दे रही थी l मेरी असहजता को मेरी पत्नी शायद पहचान गई थी क्योंकि चाय का प्याला मेरे सामने रखते हुए उसने अपना सवाल भी परोस दिया , “ आज लौटने में इतनी देर कैसे हो गई ?” मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो उसने पूछा , “क्या बात है , किसी को फांसी की सज़ा सुना कर आ रहे हो जो इतने गुमसुम हो ?” मैंने इंकार में सिर हिलाया तो उसने फिर से खामोशी की वजह पूछी l
आमतौर पर मैं कचहरी के मामले अपनी पत्नी के साथ साझा नहीं करता हूँ पर इस याचिका के बारे में पत्नी को बताए बिना नहीं रह सका ,” सुरेखा, आज एक बड़ा ही अजीब और दिल को छू लेने वाला मामला मेरे सामने आया था …… सुनोगी ?” मेरी इस बात से चौंकी सुरेखा ने झट से कुर्सी खींची और मेरे सामने एक श्रोता की तरह बैठ गई l
मैंने कहना शुरू किया , “ आज राजशेखर नामक ६५ वर्षीय एक व्यक्ति ने अपनी ६२ वर्षीय बीमार पत्नी मनोरमा की तरफ से एक याचिका दायर करी है l उसका कहना है कि पिछले आठ सालों से उसकी पत्नी केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी मृतप्राय है l उसे न्यूरो मस्कुलर डायस्ट्रोफी नामक एक ऐसी बीमारी है जिसके कारण उसकी मांसपेशियों ने काम करना बंद कर दिया है l धीरे धीरे उसके सभी अंग बेकार होते जा रहे हैं और वह एक ज़िंदा लाश की तरह बिस्तर पर पड़ी हुई है l दो साल पहले तक थोड़ा बहुत बोल कर वो अपनी तकलीफ अपने पति से बाँट भी लेती थी लेकिन अब तो उसकी आवाज़ भी चली गई है l उसके तन और मन की पीड़ा का अहसास अब सिर्फ उसकी आँखों के किनारों से बहती आंसूं की लकीरों से ही हो पाता है l
राजशेखर का कहना है कि उसके लिए अपनी पत्नी को सम्हालना और उसका इलाज करवा पाना जितना मुश्किल है उससे दुखदाई है अपनी पत्नी की लाचारी को हर पल देखते रहना क्योंकि मनोरमा एक बहुत ही कर्मठ और स्वस्थ महिला रही है और अब उसे यूं बिस्तर पर लाचार पड़ा देख कर बहुत दुख होता है l राजशेखर ने बताया कि उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वो मनोरमा के लिए रात दिन की एक परिचारिका रख सके और अब उसकी भी उम्र हो चली है इसलिए पत्नी की देखरेख ठीक से नहीं कर पाता है l इसीलिए वह क़ानून की मदद मांग रहा है और चाहता है कि मनोरमा को उसकी इस मृतप्राय स्थिति से , इस पीड़ा से मुक्त किया जाए l यानि कि वह अपनी पत्नी की मर्सी किलिंग के लिए सिफारिश कर रहा था l अब तुम ही बताओ सुरेखा , मैं कैसे इस बात की स्वीकृति देते हुए कोई फैसला करता ?”
इतना कह कर मैं ऐसे चुप हो गया मानो मेरे शरीर की सारी शक्ति इन शब्दों ने निचोड़ ली हो l सुरेखा ने पूछा ,” तो तुमने क्या निर्णय दिया ?”
मैंने अपना सिर हिलाते हुए जवाब दिया , “ फैसला नहीं कर सका सुरेखा l इस याचिका का फैसला दिमाग से कर सकना मेरे लिए संभव नहीं हो रहा था और मेरा दिल मुझ पर हावी होने लगा था l तुम पूछ रही थीं ना कि घर आने में देर क्यों हुई , दरअसल इस केस को समझने और सुलझाने के लिए क़ानून की लगभग हर किताब को आज पलट चुका हूँ l इतना ही नहीं , इस समस्या से मिलते जुलते सैकड़ों मुकद्दमों की देश विदेश की रिपोर्ट्स भी देख डालीं मगर कुछ भी तय नहीं कर पाया और पंद्रह दिनों के लिए मामले को आगे खिसका कर घर चला आया l”
सुरेखा ने बड़े ही सहज तरीके से पीड़ित स्त्री मनोरमा के प्रति अपनी सहानुभूति जताते हुए जो कहा उसने मेरी उलझन को और भी बढ़ा दिया l वो बोली , “ मुझे तो लगता है कि मामला कुछ और ही है l हो सकता है उस आदमी का किसी दूसरी औरत के साथ कोई चक्कर हो और अपनी पत्नी से पीछा छुडाने के लिए उसने कहीं से झूठी मेडिकल रिपोर्ट्स बनवा कर कचहरी में पेश कर दी हों , या उसने जानबूझ कर कुछ ऐसा किया होगा जिससे उसकी पत्नी बिस्तर से लग गई है l”
मैंने तुरंत सुरेखा की बात काटते हुए कहा , “ नहीं , मैं तुम्हारी बात से इत्तेफाक नहीं रखता हूँ l क्योंकि पहली बात तो यह कि किसी दूसरी औरत के प्रेम में फँसने की उस आदमी की उम्र नहीं है और दूसरी बात यह कि उसके चेहरे पर सच्चाई झलक रही थी l जब वो अपनी बात कह रहा था तो उसकी आँखों और बातों से एक पीड़ा झलक रही थी l वो झूठ नहीं बोल रहा था l” मैंने पूरे विश्वास के साथ कहा तो मेरी बात पर एक ज़हरीली मुस्कुराहट बिखेरते हुए सुरेखा बोली , “इश्क की कोई उम्र नहीं होती है जज साहब और चढ़ते बुढ़ापे में कई लोग कुछ ज़्यादा ही रंगीन मिजाज के हो जाते हैं , इसलिए आपकी यह दलील बेबुनियाद है l” वैसे अपनी पत्नी की यह दलील मुझे राजशेखर पर लागू होती नज़र नहीं आरही थी पर आजकल फर्जी कागजात बनवा कर कचहरी में पेश करने के कई मामले सामने आते रहते हैं इसलिए मैंने सुरेखा के इस शक को जांचने के लिए किसी को राजशेखर के घर भेज कर सच्चाई मालुम करने का निश्चय किया l
अगले दिन अपने एक विश्वासपात्र और चतुर कर्मचारी को केस के बारे में समझाते हुए उसे राजशेखर और उसकी पत्नी से जुड़ी ज़रूरी जानकारी इकट्ठी करने को कहा तो दो दिन बाद उसने आकर बताया कि राजशेखर ने झूठ नहीं कहा है और उसकी पत्नी बहुत बीमार है l यह बात उसे राजशेखर के पड़ौसी से पता चली है l मेरी इच्छा हुई कि उसे कहूँ कि किसी तरह वो राजशेखर के घर में जाकर अपनी आंखों से वहाँ के हालत देख कर आये , लेकिन फिर यह सोच कर रुक गया कि इस केस में मेरा इतना अधिक रुझान देख कर लोग कोई गलत मतलब ना निकाल लें और इसी ऊहापोह में कई दिन निकल गए l मैं एक दूसरे मामले की सुनवाई में उलझ गया और बात आई गई हो गई l
इस बात को करीब दस बारह दिन बीत चुके थे l एक सुबह जब मैं कचहरी जाने के लिये घर से निकल रहा था तो गेट के बाहर राजशेखर को खडा देखकर मैंने ड्राइवर से गाडी रोकने को कहा और राजशेखर को इशारे से पास बुला कर उसकी पत्नी का हाल पूछना चाहा तो वह सूखी सी हंसी हंस कर बोला “ बस साहब , कुछ घंटों की बात है , सब ठीक हो जाएगा l” मुझे उसकी बात समझ में नहीं आई इसलिए पूछा , “क्या इलाज से कुछ फायदा हुआ है ?” मेरे सवाल से वह कुछ हडबडाया फिर बोला “हाँ साहब ! फायदा हो ….रहा .है मतलब कि..हो जाएगा l कल सुबह तक हो जाएगा l” मुझे उसकी बात बहुत अजीब लग रही थी फिर भी मैंने उससे आने की वजह पूछी तो वह बोला “जज साहेब , आपसे यह कहने आये थे कि दो दिन बाद हमारे मुकदमे की तारीख है ना तो आप हमारी अर्जी खारिज कर दीजिएगा l क्योंकि केस तो अब सुलझ ही जाएगा …कल तक. l ….यानि कि हमारी मनोरमा अच्छी हो जाएगी इसलिए अब इस याचिका की कोई जरूरत है ही नहीं l चलते हैं साहेब नमस्ते l”
और वह एक पल भी और गंवाए बिना वहां से चला गया l मुझे राजशेखर का व्यवहार कुछ अजीब सा ज़रूर लगा मगर मैं यह सोच कर थोड़ा निश्चिन्त होगया कि उसकी पत्नी पहले से कुछ ठीक हो रही है l
दो दिन बाद सुबह से ही दिमाग में राजशेखर की बात गूंज रही थी कि ‘हमारी याचिका खारिज कर दीजिएगा l’ और मैं इसी बात के लिए खुद को तैयार करके कचहरी जाने से पहले सुबह का अखबार पलट रहा था , तभी मेरी नज़र एक खबर पर पड़ी और उसे पढ़ने के बाद तो मैं सकते में आगया l अखबार में लिखा था कि एक बुज़ुर्ग ने अपनी बीमार पत्नी की ह्त्या करने के बाद खुद को पुलिस के हवाले कर दिया l ना जाने क्यों इस समाचार को पढ़ते ही मेरा ध्यान एकदम राजशेखर की तरफ गया और मैंने तुरंत उस इलाके के पुलिस थाने में फोन करके मालुम किया तो मेरा शक सही निकला l राजशेखर ने नींद की ढेर सारी गोलियां अपनी पत्नी के खाने में मिला कर दे दी थीं और उसे सारी तकलीफों से आज़ाद कर दिया था l
समझ में नहीं आरहा था कि दोष राजशेखर को दूं या न्याय ना कर सकने की अपनी लाचारी को या फिर अपनी क़ानून व्यवस्था को l अगर मैंने उसकी याचिका पर ध्यान दिया होता तो आज उसको ह्त्यारा नहीं बनना पड़ता l मगर मेरे हाथ तो क़ानून ने बाँध रखे थे फिर भला मैं कैसे किसी ज़िंदा लाश को मार डालने का आदेश दे सकता था l मगर लाख समझाने पर भी मेरी आत्मा कहीं ना कहीं इस ह्त्या में ख़ुद को भी हिस्सेदार मान रही थी इसलिए मैंने तय किया कि राजशेखर से मिल कर आऊँगा और उसकी सज़ा कम करवाने की भी पूरी कोशिश करूंगा l थाने में गया तो पता चला कि मुजरिम को केन्द्रीय जेल भेज दिया गया है l
जेल पंहुच कर मैं सीधा वहाँ के जेलर के पास गया तो वो मेरा बचपन का मित्र निकला l उसे जब सारी बात बताई तो उसने तुरंत राजशेखर को अपने दफ्तर में ही बुलवा लिया l जब एक सिपाही राजशेखर को लेकर आया तो उसके चेहरे पर मुझे पहले जैसी पीड़ा नज़र नहीं आई बल्कि उसका चेहरा जैसे एक बेफिक्री और संतोष से दमक रहा था l मुझे देखते ही वो मेरे पास आया और नमस्ते कर के खड़ा हो गया l मैं कुछ पूछता उसके पहले ही वह हंस कर बोला , “साहेब आपसे कहा था ना कि सब ठीक हो जाएगा l देखिये ! सब ठीक हो गया l अब मेरी मनोरमा को कोई तकलीफ नहीं है, आराम से सो रही है l मैंने उसे कह दिया है कि मुझे फांसी का हुकम होने तक बस वह अकेले रह ले फिर मैं भी उसके पास पंहुच जाऊंगा l जज साहेब ! हम आपसे उस दिन कुछ और बात भी कहना चाहते थे पर कह नहीं पाये थे l हम यह कहने आये थे कि अगर हमारा मुकदमा आपकी कोर्ट में आये तो अपना फैसला सुनाने में देर मत करिएगा l आप तो जानते ही हैं कि हमारी मनोरमा को हमारे बगैर वहां ऊपर हर काम की कितनी दिक्कत हो रही होगी l वहां कौन उसका ख्याल रखता होगा ! अब हमने तो शादी के समय सुख दुःख में साथ निभाने की कसम खाई थी तो कसम तो निभानी पड़ेगी ना साहब l” बात करते करते राजशेखर का गला रुंध गया और मेरी तो जुबान जैसे ऐंठ सी गई थी l कहता भी क्या आखिर ???
उससे मिल कर घर वापिस आया तो बैठ कर अपना इस्तीफा तैयार करने लगा क्योंकि अब जज की हैसियत से और काम करने की इच्छा ही नहीं रही थी l मैं खुद को इस पद के लिए गैर जिम्मेदार और अयोग्य मानते हुए अपना पद छोड़ना चाहता था l पत्र तैयार करके उसे पढ़ने लगा , लेकिन कागज पर दस्तखत करते हुए ना जाने क्यों हाथ रुक गए और अंतरात्मा ने धिक्कारना शुरू कर दिया ,’ कायर ! जो आदमी तेरी वजह से हत्यारा बना है अब उसे सज़ा देकर अपनी ज़िम्मेदारी भी नहीं निभाएगा ?’
इस्तीफा फाड़ने चला लेकिन हाथ रुक गये l सोचा कि राजशेखर को फांसी की सज़ा देकर अपना आखिरी फैसला सुना दूँ उसके बाद ही इस्तीफा दूंगा l अर्ज़ी को एक खाली लिफाफे में रख कर मेज़ की दराज़ में रख दिया है और अब हर रोज़ अपनी कचहरी में मनोरमा मर्डर केस की फाइल के आने का इंतज़ार करता रहता हूँ ताकि कानून के प्रति अपनी आखिरी ज़िम्मेदारी निभाकर सेवा निवृत्त हो सकूँ l
आरम्भ से लेकर अंत तक बांध कर रखने वाली कहानी। शुरुआत ही पढ़ने मे बहुत अच्छी। पत्नी के तर्क एकदम वाजिब और आजकल का सबसे विचारनिय मुद्दा। बहुत अच्छी लगी।