जड़ें गावों में थीं लेकिन शहर में आबोदाना था – डॉ अनिल त्रिपाठी

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जड़ें गावों में थीं लेकिन शहर में आबोदाना था

जड़ें गावों में थीं लेकिन शहर में आबोदाना था
उन्ही कच्चे मकानों में कहीं मेरा ठिकाना था

कई दिन राह देखी पर बिसाती फिर नहीं आया
किसी को धान के बदले हरी चूड़ी मंगाना था

मिला करती थी दो पैसे की कुल्फी पर न थे  पैसे
अजब थे लोग गांवों के अजब गुजरा जमाना था

पलटता हूँ तो खुल जाता है पन्ना उसकी यादों का
जला पाया नहीं जिसको जिसे कब का जलाना था

  उसे विश्वास था पहले भी लेकिन अब मुझे भी है
हमारा अनकहा रिश्ता कई सदियों पुराना था

डॉ अनिल त्रिपाठी

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