Kavi Anil Masoom : Saawan ke Geet
सावन की मन मानी है ये
सावन की मन मानी है ये
आग भरा इक पानी है ये
बारिश में मैं भीग रही हूँ
जैसे जलना सीख रही हूँ
बूँदों में अंगारे भर के
छत पे बादल क्यों आया है
जबकि चिता पे लेट गयी थी
आग से क्यों यूँ नहलाया है
ज़िंदा होने ने ही अक्सर
मौत से ज़्यादा तड़पाया है
साँसों में बस धुआँ भरा है
इस जीवन से क्या पाया है
इस जीवन को जीते जीते
जैसे जलना सीख रही हूँ
दुनिया आ के क्यों छलती है
खुद को छलना सीख रही हूँ
सावन को जाने न दूँगी
ऐसी भी नादान नहीं जो
सावन आ के जाने दूँगी
बना सोख्ता ये मन मेरा
बारिश क्यों बह जाने दूँगी
तुम पानी लेकर आओगे?
तुम क्या मुझ को नहलाओगे
आग हूँ मैं गर मुझपे बरसे
सच कहती हूँ पछताओगे
इक चिंगारी भी गर भड़की
दामन कहाँ बचाने दूँगी
ऐसी भी नादान नही जो
सावन आ के जाने दूँगी
मन से तन तक भीगे सब कुछ
और नही माँगूंगी अब कुछ
बर्फ़ गिरी तो जम जायेंगे
बोल सकेंगे कब ये लब कुछ
पानी को चादर कर लूँगी
इक सलवट ना आने दूँगी
ऐसी भी नादान नही जो
सावन आ के जाने दूँगी
हिंदी भाषा के जाने-माने प्रतिष्ठित कवि अनिल मासूम
बहुत सुन्दर।