असीर-ए-ज़िंदगी – शहज़ादी खातून
असीर-ए-ज़िंदगी
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी में ही क़ैद होकर रह गई
ख़्वाहिशें समझौतों के कंधे पर बोझ हो गईं
लड़कपन जवानी की फ़रमाइशों में ख़ामोश हो गया
वक़्त मिले तो उन फ़टी पुरानी कॉपियों के
पन्ने को पलट कर देखना
पन्ने के किसी कोने पर हमारी तुम्हारी
बे – ढंगी , डरावनी सी तस्वीरें बनी मिलेंगी
आँखो को ज़रा बंद करके उन बे -परवाह
दिनों को भी याद कर लेना
कुछ धुंधलाई सी तस्वीरें नज़र आएंगी
वो बे – परवाह , बे – ढंगी
बे मतलब की हँसी झिलमिलायेगी
वो हँसी दिखावे की नहीं , ख़ुशी की होगी
वो फ़रमाइशें रुपयों की नहीं, पैसों की होगी
वो वक़्त नज़र आयेगा
जब हम मिले , साथ चले
उम्र खोई , लड़कपन गया
उंगलियों में पेंसिल से पेन आई
अनूभूति पाई ,
वो परिचय की पहली बे -मेल पंक्तियों से
एक दूसरे का नाम पूछते बतलाते थे
फिर थोड़ा सा मुस्काते थे
समझ की समझ किये बगैर
एक दूसरे का हाल बे – वज़ह पूछा करते थे
मंज़िल की परवाह किये बगैर
एक साथ चला करते थे
आज समझ के दायरे में आकर
बड़े समझदार हो गये
मंज़िल का पता नहीं
एक दूसरे का साथ छोड़े भाग रहे
फ़रमाइशें पैसों से आकर रुपयों पर अटक गई ।
हँसी , ख़ुशी से हट कर दिखावे पर हँस रही
ज़िन्दगी की पहचान खो गई ।
और ज़िंदगी गुज़र रही ज़िंदगी को खाँच से
हीरे में तराशते -तराशते ।
ज़िंदगी उस पचास पैसे के समान हो गई
जिसे पाकर ख़ुशी बचपन में हुआ करती थी आज रुपयों का ढेर हो गया ।
पर ख़ुशी उस पचास पैसे में ही रह गई
ज़िन्दगी ज़िन्दगी में ही क़ैद होकर रह गई
कवियित्री शहज़ादी खातून
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जिंदगी के पर्त में जिंदगी गुम है कुछ इस तरह कि ढूंढने चलो तो खुद भी गायब हो जाओगे।