दिल के रिश्तों को, अजनबी होते देखा है – दिव्या त्रिवेदी
दिल के रिश्तों को, अजनबी होते देखा है
सब बदलते देखा है, छलते देखा है,
दिल के रिश्तों को, अजनबी होते देखा है।
बीत जाने को आतुर, रात को अब,
ठहर कर, जमते, सर्द होते देखा है ।
दिन ने छोटा कर लिया, सफ़र अपना,
शाम जल्दी, सहर देर से आते देखा है।
होने लगा विस्तार, ख़्वाबों का अब ज़्यादा ,
हक़ीक़त को सिमट कर, छोटा होते देखा है।
ख़ून के रिश्ते, दिल को दाग़ से लगने लगे,
गैरों को अब ज़्यादा, अपना बनते देखा है।
चीर दे गिरेबान, एक ग़लत निगाह काफ़ी है
हर औरत को हर मर्द से, यूं बचते देखा है।
अपना भी मिजाज़, बदलने लगा अब तो,
सरल से ख़ुद को बहुत, जटिल होते देखा है।
जन्म दिया जिस प्रेम को, प्रेम से मैंने,
उसी का ख़ुद को, कातिल होते देखा है।
इस दुनियां को, दोष ही क्या देगी तू दिव्या,
तूने तो ख़ुद ही, ख़ुद को, छलते देखा है।
हिंदी भाषा की जानी-मानी कवियित्री दिव्या त्रिवेदी
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उम्दा लेखन | रिश्तों का तानाबाना भी हमे आत्मीय और स्वाम्लंबन बनाती है | हर रिश्तों को निभाते-निभाते उसमें भी हम आत्मीय और परायेपन को भी खोज लेते है | रिश्तों का अर्थ ही है,- “जो दोनों तरफ से निभाया जाए “|
Excellent writing di 👌👍🙏
Nice line
Bahot khub Divya Ji….
Wah di bahut khub jitni tariff kre utna kam h 👌👌
Wah di bahut khub jitni tariff kre utna kam h 👌
Wao lovely. Seriously you fail everyone. Superb writing…
बहुत अच्छा लगा ।
Kaafi sahi🔥❤️💫