कहानी Ek Sach Sapne Ka एक सच सपने का : Story – Rajul

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एक सच सपने का (वातायन से)

                                                                                                                                                                                  –   राजुल 

स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही उसने अब तक की ओढ़ी उदासीनता को चटपट परे ढकेला और खिड़की से मुंह निकालकर कुली को बुलाने लगी। सामान उठाने को कहते हुए उसने फिर से पूरे स्टेशन को देख लिया , कोई नहीं है, तो क्या हुआ? ” स्टेशन पर कुली के साथ दौड़ते अपने क़दमों का उछाह देख उसे ट्रेन की अपनी वो दुविधा-झुंझलाहट की स्थिति बिल्कुल काल्पनिक लगने लगी।

स्टेशन के बाहर निकलकर भी उसकी आँखें कई बार अगल-बगल और दूर टैक्सी स्टैण्ड तक मुआयना कर आईं, शायद यहाँ पर हो कोई जानी पहचानी शक्ल!

किसी को न देखकर उसने फिर मन को समझाया उसकी भी तो ग़लती है। उसे कार्ड मिल गया और वह चल दी। अब भैया को क्या पता! उसकी स्वीकृति की चिट्ठी ही न मिली हो।

यहाँ तक तो बिना किसी परेशानी के पहुँच गई वो। रिक्शे वाले को घर का पता बिना अटके बताया उसने, मंदिर वाले मोड़ समेत।

रिक्शे पर सामान लादकर वह आश्वस्त होकर बैठी तो शहर से गुज़रते हुए जाने कितने प्रसंग जीवंत हो उठे और वो फिर भर उठी पुलक से। कितने काल्पनिक संवाद गढ़ डाले उसने मन ही मन।

बड़े भैया ज़रूर कहेंगे अक्षय, अब तुम शिखा को लेकर ही जाओ।फिर उसकी ओर मुड़कर कहेंगे तुम्हें बहू नहीं बेटी माना है, इस बार तुम्हारी विदाई  यहीं से होगी।और अक्षय…अक्षय क्या करेगा?

करेगा क्या, सारे बड़े लोग इकट्ठा होकर जब उसे अपनी गृहस्थी फिर से बसाने का आदेश देंगे, तो उसे मानना ही होगा। फिर वो भी तो कभी महसूस करता होगा उसकी तरह कि एक अपना घर ज़रूर होना चाहिए; जहाँ सारे दिन की थकान से मुक्त हुआ जा सके। क्या पता वो उसी स्थिति में खु़श हो।

ख़ैर अब तो वो जा ही रही है; जो होगा-जैसा होगा, सामने होगा। कम से कम अब से अनुमानों और आशाओं के सहारे तो नहीं तलाशने होंगे़ उसे। वैसे तो काफ़ी ढेर सारे कपड़े रख लाई है जिन्हें संभलवाते हुए अनुभा ने उसे टोका भी था क्या दीदी, माना कि तुम्हें ससुराल में द बेस्टदिखाना है लेकिन ये भी क्या, कि पूरी वार्डरोब ही उठा ले जाओ।

थोड़ी विचलित हुई वो, पर जानती है कि ये बात उसकी छोटी बहन क्यों कह रही है।

दादा और अम्मा भी तो सदैव इसी प्रयत्न में लगे रहते हैं कि वो अपने मन से झूठी आशाएं निकाल दे। ससुराल से कोई समाचार मिलने पर हमेशा उसे यही आशा बनी रहती है कि शायद ये उसकी वापसी का बुलावा है। तब भी अम्मा समेत सभी उसे समझाते हैं कि अपने अमूल्य त्याग-समर्पण और प्रेम का प्रत्याशी उसने ग़लत व्यक्ति को चुना है। मन ही मन सच को जानते हुए भी वो सुनती सबकी है।

इस बार भी अन्नी की शादी का कार्ड पाते ही उसने पूरे जोश से तैयारियां शुरू कर दीं, हालांकि माँ ने कितना कहा – दादा ने भी बहुत समझाया कि अब वहाँ की डाल सूख चुकी है, उसके अंकुआने की आशा बेकार है, पर उसकी प्लीज़के आगे सब चुप हो गये। क्या जानें वो लोग कि जन्म-जन्मांतर का सम्बन्ध यूं ही ख़त्म नहीं होता। फिर उसने तो अभी तक पूरे मन से अपने धर्म का पालन किया है। वह क्यों सिर्फ़ इसी बार छोटी सी भूल हो जाने दे। माना कि जीवन में आर्थिक रूप से वो पराधीन नहीं, लेकिन अपने हर सपने में अक्षय का भाग उसने सहर्ष उसे दे दिया है। अब नये-अकेले सपने गढ़ने की शक्ति नहीं पाती वो ख़ुद में।

तभी रिक्शे वाले की आवाज़ ने उसे चौंका दिया। घर आ गया था। फाटक खोल भीतर घुसते हुए एक पल वो झिझकी, पर अंदर आते ही बड़ी भाभी की आवाज़ में उसे वही स्वागत का स्वर सुनाई दिया; डोली से उतारकर उन्होंने ऐसे ही गले लगाकर कहा था तुम्हारे आने से कितनी ख़ुश हूं मैं बता नहीं सकती।

बरामदे में बड़े भैया और छोटे भैया बातें कर रहे थे। अक्षय नहीं दिखाई दिया। चरण छूने पर सौभाग्यवती रहोका आशीर्वाद मन ने पुलक कर समेट लिया। लगा वो पल तो बहुत पास है। भाभी उसे बाहों में घेरकर अन्नी के कमरे में ले गईं।

हाय चाची, तुम आ गईं।गले से लिपटती अन्नी को सीने से लगाते हुए मन ही मन वो सोच रही थी सच, सभी उसका कितना इंतिज़ार कर रहे थे, अगर वो न आती तो !

कितना कुछ अमूल्य समेट चुकी है वह आँचल में और अब भी उसे उस बहुमूल्य का इंतिज़ार है। वह चिर प्रतीक्षित पल, जब दुनियां की सारी नेमतों-सारे वरदानों से उसका आँचल भर देगा अक्षय का सिर्फ़ ये कहना आओ चलें शिखा।

उसने फिर इधर-उधर देखा, पर अक्षय नज़र नहीं आया। चाय पीते ही वो पूरी फ़ुर्ती से व्यस्त हो गई। भाभी ने कई काम बताये थे। अन्नी की साड़ी में में गोटा तो बस लग ही गया। तब तक साथ जाने वाले सामान की फे़हरिस्त भी सामने आ गई। पैकिंग करते हुए और सामान रखते हुए खाने का समय भी निकल गया।

इस बीच कई बार भाभी, मिसराइन समेत कितनी बुआ और चाचियां उसे खाने के लिए बुलाने आईं और निहाल होकर कहते हुए लौट गईं देखो तो, बहू ने कितना समेट दिया। जब से आई है काम में ही लगी है। अरे चल, अब कुछ मुंह भी जुठार ले।

तब तो नहीं, पर अब इस सारे परिसंवाद की कल्पना करते हुए उसके मन पर अचानक वो दृश्य उभर आता है जब ख़ून से लिथड़ी पैर की उंगली थाम वो दरवाज़े के पास ही बेहाल बैठी रह गई थी और बड़ी भाभी की छोटी बहन पास से कहते हुए गुज़र गई अन्नी की चाची, इतनी चोट से बिस्तर थामोगी, तो ज़िंदगी कैसे कटेगी?’

वो हड़बड़ाकर उठ बैठी थी। तब वो ख़ुद को ट्रायल एंड एररकी  उस बिल्ली की तरह पाती है, जिसे सही प्रयास करने पर भोजन और ग़लत प्रयास करने पर भूखा ही रहना होता था। वैसे भाभी की बहन ने ग़लत नहीं कहा था। ये तो छोटी सी चोट थी पाँव में, जब अक्षय और निरुपमा शादी वाली शाम साथ-साथ घर में घुसे थे, तब कितनी बड़ी चोट लगी थी! पर अब तक उसका चोट खाया मन इसी सवाल पर ऐंठ जाता है वह यहाँ आई ही क्यों? क्यों उसके मन को इतने दिनों तक झूठी तसल्ली में बांधे रखा?’

सच, कितनी ही बार वह अक्षय के अगल-बगल से निकल गई, यही सोचते हुए कि शायद अब वो आवाज़ दे शिखा।

कई बार कुछ करते-करते वह चौंक भी गई है कि शायद अक्षय उसे देख रहा है, पर कहाँ? अक्षय तो हर बार की तरह इस बार भी सबसे निर्लिप्त निरुपमा में ही खोया रहा। अंत तक उसकी मुग्ध दृष्टि निरुपमा के चेहरे पर ही सधी रही; ठीक वैसे ही जब पहली बार उसने निरुपमा को नवविवाहिता शिखा से मिलवाया था।

वो पहली मुलाकात उसे आज भी याद है। निरुपमा का हाथ थामे हुए अक्षय घर में घुसा था। उसे सामने देखकर थोड़ा ठिठका था, फिर कहा था ज़रा दो कप चाय बना दो जल्दी से, नीरू बहुत थक गई है।वह हड़बड़ाते हुए रसोई में चली गयी थी। चाय बनाते हुए वह यही सोच रही थी कि ये नीरू निश्चय ही अक्षय की बहुत निकट की संबन्धी है, तभी तो शम्भू काका का इंतिज़ार किए बग़ैर अक्षय ने उससे चाय बनाने का आग्रह किया। आग्रह तो नहीं था उस स्वर में, चलो अधिकार ही सही; आखि़र वह अक्षय की जीवन संगिनी है भले ही तीन दिन पुरानी।

तभी चाय लेने अक्षय स्वयं ही रसोई में चला आया था। उसने पूछा था कौन है ये? शादी में तो शायद नहीं थीं।

अक्षय ने कहा था वो नीरू! वो मेरे सबसे अच्छे दोस्त की बहन है।ये कह अक्षय बाहर चला गया था।

कुछ देर किचन में रुककर अंततः उसे बाहर आना ही पड़ा। निश्चय ही, घर आये मेहमान के साथ उसे भी थोड़ा आत्मीय होना चाहिए, चाय में उसका साथ देना चाहिए।

पर कहाँ, अक्षय और नीरु तो वैसे ही अपने में डूबे थे। उसे ट्रे पर रखे अपने कप के समान ही अपना अस्तित्व भी फालतू लगने लगा। उनके बीच अपने को बिल्कुल असंगत पाकर सोच रही थी कि क्या वो अंदर जाकर खाने तैयारी शुरू करे? तभी अक्षय ने नीरू से कहा आओ तुम्हें छत दिखाऊं। यहाँ शाम बड़ी ख़ूबसूरत दिखती है फ़्लैट्स की छतों पर।और वो लोग उसे जूठे बर्तनों के साथ नीचे छोड़कर ऊपर चल दिये।

ऐसे अनगिनित पल थे जब नीरू के सामने उसे अपना पूरा शिखापनकूड़ेदान सा लगता था, जहाँ जब-तब नीरू या अक्षय का एक आध जुमला आ गिरता था, ’चाय ठंडी हो गई …खाने में मिर्च तेज़ है… पिछली बार ही तो मैं अक्षय के लिए चार तौलिये लाई थी …।

सात दिन पुरानी विवाहिता दिन भर अक्षय के रंग-ढंग देखकर हैरान होती और रात को थकी देह में समर्पण भाव लिये पति की पीठ देखती कब सो जाती पता ही नहीं लगता।

उस रात उसे अभी तक नींद नहीं आई थी। क्या अक्षय नीरू का बहुत लिहाज करता है, जो उसकी तरफ़ देखता भी नहीं … और ये नीरू, है तो आख़िर दोस्त की बहन ही, लेकिन कितने अधिकार से अक्षय के हर सामान को संभालती है। पता नहीं कब जाएगी?

तभी उसे कुछ आहट सुनाई दी। सोने की कोशिश करती शिखा ने आँखें खोलकर देखा, अक्षय की पीठ नज़र आयी, वो चौंककर उठी , लाइट जलाई लेकिन अक्षय कमरे में होता तो दिखता । वो बाहर निकली और उसके क़दम वहीं जम गए । बैठक में दीवान पर निरुपमा के साथ कोई और भी था । अँधेरा इतना नहीं था फिर भी उसे पहचानने में वक़्त लगा कि वो कोई और दरअसल अक्षय था । उसने दरवाज़े का सहारा न लिया होता तो शायद वहीं गिर गई होती।

वो पल आज भी उसके मन में फ़्रीज़ है और उसके बाद घटने वाली तमाम घटनाए बेतरतीबी से फ़ास्ट फ़ॉर्वर्डहोती हैं। सुबह होने तक वो वहाँ से हिल नहीं सकी थी, लेकिन उसे वहां बैठा देख पहले अक्षय बोला था या नीरू, ये उसे याद नहीं; पहले अक्षय ने अपने साथ रहने की शर्त बताई थी या उसने अपने छले जाने की दुहाई दी थी ये भी याद नहीं, बस इतना याद है कि उसके और अक्षय के बीच जो भी संवाद हो रहे थे, उनके बीच नीरू कुछ कहती जा रही थी।  कुछ आरोप सा कि अक्षय नहीं कर सका तो क्या, खुद उसने तो पहले ही शिखा को चिट्ठी लिखकर सावधान कर दिया था. तो  वो चिट्ठी नीरू ने लिखी थी, जिसके आते ही दादा अम्मा सकते में आ गए थे।  लेकिन फिर ये सोचकर कि किसी दुश्मन ने चिट्ठी लिखकर अक्षय को बदनाम करने की कोशिश की है, उस चिट्ठी को नज़र अंदाज़ कर दिया गया था।

बिखरा हुआ सच सामने था, उसे समेटने की कोशिश में शिखा का तन और मन लहूलुहान हुआ था। अक्षय  जाने क्या क्या समझाकर मायके छोड़ आया था, लेकिन फिर विदा करवाने कभी नहीं आया.

अक्षय के दोनों बड़े भाई और भाभियाँ उसे बहु कहते रहे लेकिन पत्नी के अधिकार नहीं दिला सके। उस घटना को बीते एक साल हो गया है, लेकिन शिखा वहीं खड़ी है।

अन्नी  विदा हो गई है, आज उसे भी चले जाना है, लेकिन जाने से पहले उसे उम्म्मीद की वो डोर तोड़कर जाना होगा जिससे बंधी वो यहाँ तक चली आयी है, जिसकी वजह से वो आज तक अम्मा और दादा की सीख नकारती आयी है। अब तक सपना देखा करती थी, अब उस सपने का सच देख लिया है।

 

 


                                                                                                                               राजुल 

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