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वो पेड़

आरे में मेट्रो कार शेड नहीं बनेगा , ये ख़बर मिलते ही जश्न सा माहौल हो गया । आरे के जंगल में पेड़ों को काटकर कार शेड बनाने की योजना जब बनी तो लगभग सारे शहर का चेहरा पीला पड़ गया था , उन्ही पेड़ों के बच जाने की ख़बर मिलते ही ख़ुशी से दमकते चेहरे लिए लोग कुछ इस तरह गले मिले कि तमाम मलाल ग़ायब हो गया । ये सब आँखे देख रही थीं लेकिन कुछ ऐसा भी था जो मन की आँखों ने देखा।

सुबह की सैर के लिए आरे की तरफ़ जाने वालों को उस रोज़ वहाँ बरसों से खड़े पेड़ों की डालियाँ मिलजुलकर झूमती नज़र आयीं। आरे के पेड़ों पर फुदकती , चहकती चिड़ियों की आवाज़ मीठे गीत की तरह सुनाई दी , उन्हें आरे की ताज़ा हवा में उस दिन बड़ी प्यारी सी ख़ुश्बू महसूस हुई ।

ऐसा होता है ये कोई वहम नहीं है । पेड़ पौधे भी हंसते हैं रोते हैं । उनके आँसुओं में अपने वजूद के मिटने की टीस से ज़्यादा उन इंसानों से बिछड़ने का दर्द होता है जिन्हें उन्होंने बच्चे से जवान और फिर बूढ़े होते देखा है । वाक़ई पेड़ ऐसे ही होते हैं तभी तो इंसान उनसे अपनी ख़ुशियाँ आँसू सब कुछ बेहिचक बाँट लेता है ।

कुछ बरस पहले एक शहर के उस पेड़ को देखा जो नदी किनारे सड़क के मोड़ पर बरसों से लगा है । शहर से दूर जाने वाले गुज़रे कल को दोहराते वक़्त उस पेड़ को याद करना नहीं भूलते ।वो पेड़ जिस सड़क पर है उसके किनारों पर निचली बस्तियाँ हैं । तेज धूप में सड़क का रंग फीका हो जाता है , कोहरे में डूब कर सड़क साँवली हो जाति है और बारिश के आते ही उसका रंग निखर जाता है ।

वो सड़क अपने आप मुड़कर सीधे यूनिवर्सिटी कैम्पस में चली जाती है । उस कैम्पस में साइंस और आर्ट्स फ़ैकल्टीज ,मैनेजमेंट और लॉ डिपार्टमेंट केअलावा फ़ाइन आर्ट्स का डिपार्टमेंट भी है । कहते हैं सड़क किनारे के इस पेड़ को वहीं के किसी स्टूडेंट ने लगाया था । उस पेड़ की देखभाल सब मिलकर करते , नन्हा था तो उसके चारों ओर बांस की स्टिक से बाड़ बनाई गई । उस सड़क से यूनिवर्सिटी जाने वाला हर कोई कुछ देर इस पेड़ के क़रीब ज़रूर रुकता । कितना सुंदर था वो समय , वो गुज़रा ज़माना , ये बात हर वो शख़्स कहता है जो लम्बे अरसे के बाद शहर लौटने पर उस पेड़ से मिलता है ।

वैसे उस पेड़ से लगाव की बात करें तो सभी के अलग अलग दायरे थे। एक रोज़ उस सड़क से एक कार गुज़री जिसे एक लड़की चला रही थी । पेड़ के पास आते हुए कार की रफ़्तार कुछ कम हुई । यूँ लगा शायद कार वहाँ रुक जाएगी , लेकिन अगले ही पल कार की रफ़्तार बढ़ गई और देखते ही देखते तेज भागती कार आँखों से ओझल हो गई । पेड़ पर चहकती दो चार चिड़ियाँ कुछ पल के लिए चुप हो गईं और अपनी छलकती आँखें पोंछती वो लड़की बैक मिरर से नज़रें हटाकर सामने देखने लगी थी ।

चंद रोज़ गुज़रे फिर एक सुबह अलसाया सा पेड़ जागा ही था कि तभी फिर वही कार उस सड़क पर दौड़ती नज़र आयी। पेड़ के पास आते हुए रफ़्तार कम हुई और कार ठीक सामने रुक गई । कार से वो उतरी जो पेड़ के लिए पहचानी शक्ल थी , उदास चेहरे पर वक्त के कुछ निशान उभर आए थे और बालों में कहीं – कहीं चाँदी के तार चमकने लगे थे । उसने पास आकर पेड़ के तने को बाहों में भर लिया और आँखें बंद कर लीं। पेड़ की एक शाख़ हवा के साथ उसे सहलाती रही । कुछ देर यूँ ही खड़ी रही और फिर आँखें खोलकर पेड़ को ऊपर से नीचे तक निहारा , फिर कार तक जाकर पर्स से कुछ निकाला , मुट्ठी बंद किए वो पेड़ के क़रीब आयी । फिर मुट्ठी खोलकर एक डिब्बी निकाली । और उसमें रखे दाने हाथ में लेकर चिड़ियों को बुलाने लगी , चिड़ियाँ निडर होकर दाना चुगती रहीं तब तक वो वहीं खड़ी रही और फिर कार में बैठकर वापिस लौट गई ।

ऐसे ही तमाम लोग अक्सर उस पेड़ के पास आकर थम जाते थे और बड़ी देर तक वहाँ बेचैनी से टहलते थे , ऐसा ही था एक मुसाफ़िर , वो भी अपनी बाइक खड़ीकर पेड़ के इर्द गिर्द घंटो टहलता था , टहलते वक्त वो ज़्यादातर ज़मीन पर नज़र जमाए रहता जैसे कुछ ढूँढ रहा हो ।

शायद वो गुजरे हुए वक्त के निशानों की तलाश रहती थी जो यहीं कहीं दफ़न हुए थे । कई बार वो थककर पेड़ के तने से पीठ सटाकर बैठ जाता । उस लड़की के चले जाने के बाद उस रोज़ वो मुसाफ़िर भी आया था । थक थका हुआ लग रहा था , कुछ देर टहलने के बाद ही वो पेड़ से सटकर बैठ गया । वैसे ये कोई नयी बात नहीं थी , शहर में लौटने के बाद अक्सर वो मुसाफ़िर वहीं बैठा मिलता ।

लेकिन उस रोज़ उस कार वाली लड़की का दोबारा लौटना ज़रूर नया था । कार फिर पेड़ के पास रुकी , लड़की उतरी तो मुसाफ़िर खड़ा हो गया । दोनों के चेहरों पर हैरानी और ख़ुशी के रंग आते जाते दिखे । मुस्कुराते हुए दोनों उस पेड़ की छाँव में बैठ गए । ख़ूब देर तक बातें होती रहीं , लड़की उठी पेड़ के गले मिली तो मुसाफ़िर भी खड़ा हो गया और उसे कार तक छोड़ कर आया ।

लड़की ने जाने से पहले मुसाफ़िर के दोनों हाथ थामे और कुछ कहा , मुसाफ़िर हंसने लगा , लड़की ने हाथ हिलाकर अलविदा कहा और कार चली गई , मुसाफ़िर भी कुछ देर पेड़ के नीचे बैठकर लौट गया । शाम होने वाली थी लेकिन पेड़ पर ज़बरदस्त रौनक़ छायी थी , कुछ नर्म कोंपलें उस रोज़ पेड़ के दामन में नज़र आयी थीं ।

 

लेखिका राजुल


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5 thoughts on “IKTARA इकतारा : वो पेड़ – राजुल

  1. बहुत ही उम्दा रचना है। दिल को छू लिया इसने।

  2. वाह, कितनी सुन्दर कहानी है.. बांध कर रखा इसने, चलचित्र की तरह आंखों के सामने से सब चलता रहा पढ़ते हुए.. राजुल दीदी हमें भी सिखाइए कहानी लिखना 🌹💝

    1. शुक्रिया दिव्या ❤️आप तो स्वयं इतनी सुंदर कविताएँ लिखती हैं कि मैं आपकी फ़ैन हूँ , चंद्रप्रभा तो कई कई बार सुनी और दिल नहीं भरा है

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