02 copy

छाया

‘छाया’  की अहमियत कभी ख़त्म नहीं होती .. छाया की सुरक्षा का महत्व असल में जन्म से ही पता लग जाता है । ककून से निकलते ही उस गर्माहट से एक पल दूर होते ही कैसे करुण स्वर में रोते हैं शिशु ! ममता के आँचल की इस छाया में सारे संकट दूर हो जाते हैं । समझ आने पर  पिता के संरक्षण की एक और छाया से परिचय  होता है … वक़्त के साथ जीवन में छाया और सुरक्षा  के कई वर्जन विकसित हो जाते हैं; जिन्हें टीचर,  शुभचिंतकों या बड़े अधिकारियों की छाया या वरदहस्त कह सकते हैं ।

छाया सुरक्षा है धूप से, बरसात से और ज़िंदगी की हर उस स्थिति से जो इम्तिहान बन जाती है। ज़िंदगी की कड़ी धूप हो या मुश्किलों की बरसात .. छाया का आश्वासन हर मुश्किल से बचा लेता है ।

इस आसरे से वंचित हुए लोगों की तकलीफ़ का थोड़ा अनुमान तो हम सभी लगा सकते हैं ।

बरसों से पाली पोसी ये सोच उससे मिलने के बाद अचानक बदली। देवर – ननदों से भरे घर में .. जिम्मेदारियाँ निभाती और सबको साथ लेकर चलने वाली वो अचानक अकेली पड़ गई, ज़िंदगी की तेज़ धूप उसके सर पर थी और उसके दुधमुँहे बच्चों के सर से पिता का साया हट चुका था। ऐसे में माँ अपनी तकलीफ़े भूल जाती है.. उसने भी मुँह बंदकर कई समझौते किए .. घर में दिन रात काम करते, ताने और कोसने सुनते वो अपने बच्चों का मुँह देख चुप रहती।

फिर घर में कुछ दिनों तक सुगबुग हुई और देवर ने खेत के काग़ज़ उसके सामने रखकर उससे अँगूठा लगाने को कहा। ‘एक के साथ एक  फ़्री’ जैसे उस प्रस्ताव में दूसरा प्रलोभन था कि उसका देवर उसे रख लेगा। फ़ायदा ये गिनाया गया कि उसके बच्चे पल जाएँगे! वो हतप्रभ सी कभी सामने रखे काग़ज़ देखती और कभी देवर का मुँह; वही देवर, जो पति की डाँट से बचने के लिए उसकी आड़ में छिपता था, आज उसके आँचल पर हाथ डालने को तैयार था .. ।

उसने मना कर दिया, फिर क्या था उसे घर की बाहरी कोठरी का रास्ता दिखा दिया गया। पैसे कोड़ी के बग़ैर वो बच्चों को कैसे पाले, क्या खिलाए, इस यक्ष प्रश्न का उत्तर तलाश करते कई दिन रात गुज़रे। आख़िर उसने कमर कसी और गाँव के बाहर बने कारख़ाने में काम करना शुरू किया .. आधा अधूरा पेट भरने का इंतज़ाम हुआ तो कोठरी छिन गई .. उसने घर पर हक़ माँगा तो देवर समेत पूरा परिवार जान लेने को तैयार हो गया .. ।

किसी तरह बचते – बचाते शहर आयी.. घरों में काम शुरू किया, बेटी ब्याही। बेटे की शादी का इंतज़ाम कर ही रही थी कि वो भी असमय चल बसा।

‘उसे गए दो साल हो गए’  ये कहकर वो आँचल से मुँह पोंछती खड़ी हो गई थी ..उसके चेहरे को देखा वही साधक का तल्लीन भाव था, जो झाड़ू लगाते, बर्तन धोते वक़्त नज़र आता था।

जाते हुए बोली ‘सब सोचते थे ये अनपढ़ क्या कर पाएगी लेकिन मैं अपने बच्चों को बारह क्लास पढ़ायी, बोझा ढोया, मजूरी की, बच्चों को पाल दिया’ आगे उनकी क़िस्मत। ना कोई नाथ, ना साथ, ना सर पर छत, लेकिन चलती रही।‘

उसकी बातों में छाया के छिनने की शिकायत नहीं थी। मंज़िल तक पहुँचने का सुकून या ना पहुँचने का मलाल भी नहीं था, लेकिन चेहरे पर अथाह संतोष था। ये संतोष था छायविहीन होकर किसी की छाया बनने का ।

उस दिन छाया से जुड़ी कितनी बातें और लोग याद आये। वो जिनकी छाया भी उनका साथ छोड़ चुकी थी और वो जो किसी की छाया में अपना क़द,  अपना वजूद सब गवाँ बैठे थे। उनका ख़्याल आया जो छाया की तरह साथ रहते थे और उनका भी जो छाया से भी बचते थे …और फिर सोच बचपन में सुनी उस कहानी तक पहुँची जिसमें एक छाया चुराने वाला हुआ करता था, जिसे सबक़ सिखाने के लिए एक राजकुमारी ने कमर कसी, जिसके परिवार समेत ख़ुद उसी की छाया उस छायाचोर ने चुरा ली थी। लेकिन राजकुमारी ने उसकी क़ैद से सभी की छाया को मुक्त कर दिया।

बचपन में राजकुमारी की चतुराई की तारीफ़ करते हुए कल्पना में कई बार उसकी धुँधली सी शक्ल- सूरत बनाई – बिगाड़ी थी, पर आज उसका चेहरा बिलकुल स्पष्ट था। ग़ौर से देखा तो वो अधेड़ कामवाली बिलकुल उस राजकुमारी सी लगी ।

लेखिका – राजुल 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *