कापुरुष वो पौरुषहीन – दिव्या त्रिवेदी
कापुरुष वो पौरुषहीन
मन ही मन कुछ सोच रहे थे
चुपचाप बैठ कर तात..।
देख प्रश्न किया सुता ने,
क्या हुई चिंता की बात..?
खिंची हुई माथे पे पिता जी,
कैसी टेढ़ी चिंता की लकीर?
हो गई सुता सयानी अब तो,
कहिए मन की पीर..।
सुन सुकोमल वचन सुता के
तात तंद्रा से जागे..।
हुई सुता सयानी यही चिंता,
कैसे सुता से कह दे..?
हिम्मत करके बहुत पिता ने
धीरज खुद को बंधाया..
बड़े स्नेह से फिर सुता को
अपने पास बिठाया..।
खोली मन की चिंता गठरी
व्यथा सुता से कहते।
सोच रहा हूं व्याकुल होकर,
उपजी मन में पीर..।
बिटिया तुझको देख कर
मन है बहुत अधीर..।
जाने कितने, कौन दरिंदे,
“कापुरूष” देते अस्मत चीर।
सुनी तात की चिंतित वाणी
सजल सुता मुसकाई..।
तात प्रश्न का उत्तर दे दूं
मत हो आप अधीर..।
ज्योति आपकी पहचाने है
ढोंगी और फकीर।
कापुरूष, अगण्य तात श्री
कुपुरूष अनेकानेक..।
अस्मत पर कहकहे लगाकर
देते खंजर गाड़..
नन्ही किलकारी तक घोंटी
हुए विफल अग्नी में झोंका..।
वो सभी कुपुरुष तात श्री,
करते अमिट आघात..।
वास्तव में वो पुरुष कहां थे,
पुरुषत्व या पशुत्व सा व्यवहार ..!
गिनवाऊं कितने कापुरूष..!!
वारदात लिखनें मे असमर्थ
कापुरूष वो लुंज पुंज वर्दी वाले हाथ..।
या आठेक लाख की नियति राशि
नियंता बड़भागी सरकार..।
या वह मूक गवाह
जिनके हाथ फांस न बन सके
कुपुरुषों की तात..,
खौल उठा ना लहू भी जिनका,
सभी कापुरुषों की जमात ..।
असमर्थ हुए व्यक्त सवेंदना कर जो
कापुरूष हुए वो भ्रात..।
होगा तात वो संस्कारहीन कुपरुष,
कापुरुष का रोपित बीज विषाक्त.।
लज्जित हो गई मातृशक्ति भी
जन कर ऐसी संतान..।
भरी भीड़ में छू कर निकले
जाने कितने कापुरूषों के हाथ।
मुझको मित्र पुकारा जिसने
होकर आप समान..।
परसुता को नहीं देख सका
जो निज सुता समान..।
वो सब कापुरुष, कुपुरुष पौरुषहीन
सभी कापुरूषों की जमात..।
प्रत्येक सुता प्रत्येक पिता
दिव्या त्रिवेदी हिंदी भाषा की जानी-मानी कवियित्री हैं
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दिलो दिमाग़ को छू लेने वाला कविता का एक एक शब्द।
Thanks and love to writer.
धन्यवाद शर्मा जी 💐🙏🏻