कहीं सुनहरी धूप चमके
कहीं घनघोर काली घटा
कहीं धरा तरसे
एक बूंद पानी को
भरने को अपने
चिटक चुके दरख्तों को।
तो कहीं हरी भरी
घास लहलहा उठी
बरसात की झड़ी से ।
एक अकेला खड़ा पेड़
धरा के दो पाटों के मध्य ,
जो बर्षो से खड़ा हर
सुख -दुःख , धूप -छांव
का साक्षी है ।
वह भी असमर्थ सा
लगता है
और अपने संग हो रहे
हर कौतुक को चुप
रह सहता आ रहा।
जिस भाग पर कृपा
बनी बरखा रानी
वह हरा भरा हो
लहलहा रहा और
एक भाग जो
तप -तप कर हरियाली
पाने का इंतजार करते
हुए ही खड़ा है ।
मन में संतोष हो
जाता उसे, जब धरा पर
पड़ी दरारों को देखता ,
फिर आशा की नज़र उठा
उस दिशा की ओर देख कर,
साथ ही आधी फैली
हरियाली की खुशी में
ख़ुद भी शामिल हो जाता है
लकीरें हाथों की
सुना है हाथ की लकीरों में तकदीर लिखी होती है
पर उस लिखावट को भी पढ़ने का व्यापार निराला है
हाथ हमारे ,लकीरें भी हमारी
तकदीर को जानने की होड़ में
न जाने कितनी बार भटकते रहते हैं
और कभी कभी तो सब कुछ गंवाते भी देखा है ,
भारी नुक़सान होने पर
मंदिर में दुआ मांगने गए
और पुजारी जी से पूछ बैठे ग्रह नक्षत्रों की चाल और अपनी तकदीर का हिसाब।
हाथ भी हमारे और लकीरें भी हमारी
उनकी सत्यता को साबित करना
किसी और का काम कैसे?
कर्मठता लकीरें और तकदीर
दोनों को बनाने की क्षमता रखती है
मां के आशीर्वाद को उठे हाथ
तकदीर को बदलने का काम
कर देते हैं ।