माँ डर मुझे बहुत लगता है – प्रमिला भारती

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माँ डर मुझे बहुत लगता है

 

अब डर मुझे बहुत लगता है ।

माँ डर मुझे बहुत लगता है ।

 

चुनचुन कर दाने ला तूने,

चोंच खोलना मुझे बताया ।

पंख उगे जब मेरे माँ तो ,

तूने ही उड़ना सिखलाया ।

कैसे जाकर दाना लाते ,

कैसे पेट भरा करते हैं ,

संध्या के ढलने से पहले

घर में पाँव धरा करते हैं,

सब कुछ सिखा दिया माँ तूने,

पर अब तक ये बता ना पाई ,

जाल बिछा कोई कब कैसे,

किसको कहाँ कहाँ ठगता है !

इसीलिए बस डर लगता है ।

माँ डर मुझे बहुत लगता है ।

 

भोर प्रहर उठकर नीड़ों से ,

सारे आँगन को चहकाना ,

सन्नाटों की तोड़ उदासी ,

नीरव को कलरव कर जाना ,

दूर गगन में उड़ते जाना ,

पंखों से आकाश नापना ,

पर उड़ान भरने से पहले ,

मौसम के आसार भाँपना।

कभी ना डरना, कहीं किसी से ,

जो भी होगा अच्छा होगा ,

सो जाए चाहे जग सारा

पर भगवान सदा जगता है ।

भला तुझे क्यों डर लगता है ?

 

जब पतंग की डोर कभी

मेरे पंखों में उलझा करती ,

चाह दूर उड़ने की मेरे

मन ही मन में कुलझा करती ,

रोक ना पाती आँखें आँसू ,

जब हम दर्दों को सहलाते

लंगड़ के कंकड़ लगते हैं

हमें राह में आते- जाते

कैसे कैसे लोग हमें,

जाने कितनी पीड़ा पहुँचाते,

पर मानवता के उपवन में

हिलता नहीं एक पत्ता है

इसीलिए माँ डर लगता है ।

माँ डर मुझे बहुत लगता है ।

माँ डर मुझे बहुत लगता है ।

 

अंतर्राष्ट्रीय मंच की ख्यातिप्राप्त

कवियित्री प्रमिला भारती

 

कवियित्री प्रमिला भारती की इस रचना को सुनने के लिए youtube के इस link पर जाइए – संपादक

 

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