प्राणमय एक मूर्त हूं – दिव्या त्रिवेदी

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प्राणमय एक मूर्त हूं

ना इश्क़ की नब्ज़ हूं l
ना मुहब्बतों का लब्ज़ हूं ll

ना अब्र हूं मैं स्वर्ग का।
ना मन्नतों का सब्र हूं।।

ना सलोना सपन हूं मैं।
ना आगोश की तपन हूं।।

ना विरह की वेदना हूं ।
ना मिलन का चैन हूं।।

ना हृदय की प्रार्थना हूं।
ना छंद हूं किसी गीत काll

ना हरियाली कोई सब्ज़ हूं।
ना शांति मैं निशब्द हूं।।

ना सूर्य की हूं लालिमा।
ना चन्द्र की छटा हूं मैं।।

ना सितारों का संसार हूं।
ना धरती का विस्तार हूं।।

ना बीतती घड़ी हूं मैं।
ना प्रतीक्षित मुहूर्त हूं।।

ना कुसुम किसी बाग़ की मैं।
ना सुर किसी ताल की मैं।।

ना हूं वनों की कोकिला।
ना कोई नदी मैं चंचला।।

ना दृष्टि की मैं चाह कोई।
ना मंज़िलों की राह कोई।।

ना मधुरिम मधुशाला हूं।
ना अमृत का प्याला हूं।।

ना जीवंत, ना मृत हूं।
ना रिक्त हूं, ना तिक्त हूं।।

हूं श्वास और निश्वास मात्र।
बस प्राणमय एक मूर्त हूं।।

 

दिव्या त्रिवेदी हिंदी भाषा की जानी-मानी  कवियित्री हैं  


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6 thoughts on “प्राणमय एक मूर्त हूं – दिव्या त्रिवेदी

    1. चन्द्र जी प्रिय मित्र, सादर आभार आपका, बहुत बहुत धन्यवाद…

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