जले जब पांव अपने तब कहीं जाकर समझ आया – डॉ अनिल त्रिपाठी
ग़ज़ल जले जब पांव अपने तब कहीं जाकर समझ आया जले जब पांव अपने तब कहीं जाकर समझ आया घने ...
ग़ज़ल जले जब पांव अपने तब कहीं जाकर समझ आया जले जब पांव अपने तब कहीं जाकर समझ आया घने ...
जड़ें गावों में थीं लेकिन शहर में आबोदाना था जड़ें गावों में थीं लेकिन शहर में आबोदाना था उन्ही कच्चे...
तुम्हारी पसंद के रंग के काग़ज़ में यादें लपेट कर भेजी हैं ... फ़ुरसत से देखना कभी, शायद बचपन...
रेशीम गाठ!! हे बंध तुझे - माझे.... असे नाही सुटायचे नाते अपुल्या मधले.... कधी नाही तुटायचे ही आहे रेशीम...
तुम्हारे बिन है ज़िन्दगी ऐसे तुम्हारे बिन है ज़िन्दगी ऐसे कोई सीलन भरा हो घर जैसे जहाँ न...
बातें ... राजुल बातें... दुनिया की बागडोर संभाले तय करती हैं अपनी उम्र का सफ़र कितने रंग, कितने रूपों...
तुझमें साँस लेती हूँ मैं तुझसे बिछुड़कर भी तुझमें साँस लेती हूँ मैं होंठों पर तेरा नाम बार बार लेती...
ममता की देहरी पर जाने क्यों पहरे ममता की देहरी पर जाने क्यों पहरे, सहमे सिसके हम बस...
मैं बरस-बरस बरसूं रोज़-रोज़ मैं बरस-बरस बरसूं रोज़-रोज़ नित नवीन रंग-ढंग से तुम पर हर रोज़ आसमां से ......
सत्य या भ्रम अर्ध सुप्त सी लिए अवस्था, कब तक जागृति भान करोगे? चन्द घरों को बना व्यवस्थित, कब तक...