तन्मय के दोस्त जब उसे फोन लगाकर थक जाते हैं और वो कोई जवाब नहीं देता, तो वो लोग सीधे पृथ्वी थियेटर पहंुच जाते हैं। वहां रिफ्रेशमेंट वाले काउंटर के सामने जो तमाम बेंचें पड़ी हैं, तन्मय अक्सर वहीं बैठा मिलता।
वैसे तन्मय ना तो कलाकार है और ना ही उसे नाटक देखने का शौक है, पर ये जगह उसका पक्का अड्डा बन गया है। यहीं से वो कीर्ति को देखा करता था। यहाँ बैठकर उसने ना जाने कितनी बार कीर्ति का इंतज़ार किया है। बाजू वाले रेस्टोरेंट में उन दोनों ने अक्सर बैठकर डिनर किया है, और वहीं पास वाले बस स्टॉप से अक्सर उसने कीर्ति को बस पकड़वाई है।
कीर्ति तो थियेटर का कीड़ा थी। कोई ख़ास मौका हो, मूड चेंज करना हो, तन्मय का बर्थडे हो या कीर्ति को सेलरी मिली हो, कीर्ति नाटक देखने निकल पड़ती थी और बेमन से तन्मय को भी कीर्ति का साथ देना ही पड़ता था।
हालांकि वो पूरे समय शिकायतें करता रहता और कभी-कभी तो नाटक ख़त्म होने से पहले ही बाहर आकर बैठ जाता, लेकिन कीर्ति नाटक ख़त्म होने के बाद ही बाहर आती, और बाहर निकलकर भी वो एक-एक कलाकार से मिलती, उसकी तारीफ़ करती, और जब तक उसके फोन पर तन्मय की बीस-पच्चीस मिस काल ना आतीं, कीर्ति लौटकर तन्मय के पास नहीं आती।
ऐसी ही थी कीर्ति। अपने मन की मालिक। उसका मन होता तो सीधे जुहू बीच पहंुच जाती और घंटो रेत के घरौंदे बनाती। वाकई कीर्ति सच्चे अर्थ में एक कलाकार थी, जबकि तन्मय एक खरा बिजनेसमेन था। उसकी नज़र हमेशा अपने फायदे की चीज़ खोजती रहती, पर कीर्ति के अन्दर उसने ना तो फायदा देखा और ना ही दुनियादारी के बारे में सोचा। कुछ तो था उसके अन्दर तभी कीर्ति से तन्मय की दोस्ती हो गई। ये दोस्ती कुछ ऐसी थी कि कभी वो लोग रोज़ मिलते और कभी हफ्तों गुज़र जाते, पर सिर्फ फोन से ही बात होती।
कीर्ति तन्मय की बड़ी बहन से पढ़ने आती थी। वो दीदी की जूनियर थी। बस तभी से तन्मय उसे देखता था। धीरे-धीरे उनमें दोस्ती हुई और इतनी पक्की दोस्ती हुई कि तन्मय अपनी हर ज़रूरी बात के लिए कीर्ति की सलाह लेता और कीर्ति अपने मन की हर बात उससे कहकर हलकी हो जाती।
कीर्ति के ऊपर घर की ज़िम्मेदारी थी। उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी। उसने एक कालेज में नौकरी कर ली थी, पर अभी भी पढ़ाई जारी थी। कीर्ति पीएचडी पूरी करना चाहती थी। तन्मय ने भी पढ़ाई ख़त्म करके घर का बिज़नेस संभाल लिया था। अब उसके सामने पूरी दुनिया थी, लेकिन उसे कीर्ति में जो नज़र आता वो किसी और लड़की में ना दिखता।
अपने काम में मगन कीर्ति को दुनिया देखने का होश ही नहीं था। वो तो बस पढ़ती, नौकरी करती और अपने भाई की पढ़ाई के लिए पैसे जमा करती। उसका भाई केमिकल इंजीनियरिंग के आखिरी वर्ष में था। बस एक साल बाद ही उसे नौकरी मिल जाएगी और फिर कीर्ति जी भरकर ज़िन्दगी जियेगी। ये बात वो अक्सर तन्मय से कहती। सुनकर तन्मय उसका हाथ थपथपा देता।
तभी तन्मय की बहन की शादी तय हो गई। शादी के दौरान कीर्ति रोज़ घर आती। दीदी के छोटे-मोटे काम कर देती, और तन्मय को भी उसके नज़दीक आने का मौका मिल जाता।
शादी का दिन जैसे-जैसे करीब आता गया उनके बीच की दूरियां ख़त्म होती गई, और शादी वाले दिन इधर तन्मय की दीदी के फेरे हो रहे थे और उधर तन्मय कीर्ति को बाहों में लेकर अपनी शादी के सपने देख रहा था।
दीदी शादी के बाद चली गईं पर, उनके बीच जो रिश्ता बन गया था वो और मजबूत हो गया, देर थी तो बस शादी की। तन्मय के घर वाले तैयार थे, पर कीर्ति की जिद थी कि जब तक उसको डॉक्टरेट की डिग्री नहीं मिलेगी वो शादी नहीं करेगी। तन्मय कीर्ति की ख़ुशी के लिए सब कुछ करने को तैयार था। उसने इंतज़ार करने का फैसला किया, पर वो उसके साथ-साथ बना रहता।
कीर्ति का कालेज चर्चगेट में था, वो शाम की ट्रेन से लौटती तो तन्मय स्टेशन पर उसका इंतज़ार करते मिलता। कभी-कभी वो खुद उसके कालेज पहुँच जाता। समय बीतता गया। तन्मय और कीर्ति का रिश्ता मिसाल बन गया था। पांच सालो का साथ था, लेकिन उन्हें देखकर लगता जैसे वो एक दूसरे के लिए ही बने थे। घर वाले उन्हें एक साथ देखने को लालायित रहते।
आखिरकार वो दिन आ ही गया, जिसका तन्मय को इंतज़ार था। कीर्ति की पीएचडी सबमिट होने वाली थी। तन्मय के घरवालों ने जल्दी से शादी का मुहूर्त निकलवाया। तन्मय ने शादी से लेकर हनीमून तक की बुकिंग कर ली। उनकी शादी को सिर्फ दो महीने रह गये थे। कीर्ति के लिए जेवर खरीदने थे। तमाम तैयारियां करनी थी।
उस दिन तन्मय के साथ उसे शॉपिंग के लिए जाना था। कीर्ति को कुछ ज़रूरी पेपर्स जमा करने के लिए अचानक यूनिवर्सिटी जाना पड़ा। उसने तन्मय से वायदा किया वो शाम तक ज़रूर पहुँच जाएगी, पर उस दिन हमेशा अपना वायदा निभाने वाली कीर्ति ने अपना वायदा तोड़ दिया। तन्मय स्टेशन पर इंतज़ार करता रहा। कीर्ति आई ज़रूर, लेकिन एक बार भी उसने आँखे खोलकर तन्मय को नहीं देखा।
कीर्ति के बेजान शरीर को उठाकर तन्मय सीधे डॉक्टर के पास भगा तो कीर्ति का चूडियों वाला हाथ उसके सीने पर टिक गया। बेसब्र तन्मय को समझाने के लिए कीर्ति अक्सर इसी तरह उसके सीने पर हाथ रखती थी। तन्मय को आशा बंधी कि शायद थोड़ी देर में उसकी कीर्ति आँखे खोलकर उससे बात भी करेगी, लेकिन बम ब्लास्ट से कीर्ति को काफी गहरी चोटें आई थीं। उसके बदन से काफी खून निकल चुका था। डॉक्टर के पास पहुंचने के कुछ ही मिनट बाद कीर्ति की साँसे टूट गईं। लोकल ट्रेन में बम धमाकों से हज़ारों लोगो के साथ कीर्ति को भी जान से हाथ धोना पड़ा। इसी के साथ उनका मजबूत रिश्ता टूट गया।
तन्मय के सपने बिखर गये, पर कीर्ति चली गई है और वो कभी वापिस नहीं आएगी, ये बात तन्मय आज भी स्वीकार नहीं कर पाता। उसे आज भी कीर्ति का इंतिज़ार है। वो अक्सर उन जगहों पर जाता है, जहाँ वो और कीर्ति जाया करते थे। उसने अपनी शादी के कार्ड आज भी संभालकर रखे हुए हैं।