भूलकर भी भुला न पाओगे : प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी
■भूलकर भी भुला न पाओगे
गायक, गीतकार और संगीतकार आदरणीय विनोद चटर्जी …एक ऐसी शख्सियत जिन्हें हम भूल कर भी भुला ना पायेंगे। वे एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपना सारा जीवन संगीत को समर्पित कर दिया था । होम सिकनेस के चलते उन्होंने मुम्बई की फ़िल्मी दुनियां को अपने चढ़ते कैरियर के दौर में गुड बाय कर दिया था।लेकिन आकाशवाणी में रहकर उन्होंने एक से एक नायाब कम्पोजिशन और कलाकार दिये हैं।
संगीतकार विनोद चटर्जी
नई पीढ़ी शायद उनके बारे में कम ही जानती है। शायद उन्हें सुनी भी न हो।लेकिन वे उस दौर के कलाकार थे जब अपनी पहचान बना पाना बेहद मुश्किल हुआ करता था। वे फ़िल्मी दुनियां के आकर्षण से कुछ सालों के लिए मुम्बई भी गये , कुछ फ़िल्मों में संगीत भी दिये लेकिन वहां की दुनिया उन्हें रास नहीं आई और लौट आए आकाशवाणी लखनऊ।
देश भर की आकाशवाणी की लाइब्रेरी में उनकी रिकार्डिंग अटी पड़ी है।
विनोद दादा के साथ मैंने भी आकाशवाणी लखनऊ में काम करने का सौभाग्य पाया है। उनकी तीन घंटों की आर्काइवल रिकार्डिंग भी मैंने ही आकाशवाणी के लिए रिकार्ड करवाई थी। बड़े भाई उर्मिल कुमार थपलियाल ने ढेर सारे अनजाने प्रसंगों को उसमें उजागर किया था। श्रोता सुनेंगे तो चौंक जाएंगे। मसलन, मीना कुमारी किसी ज़माने में विनोद दादा के काफ़ी क़रीब थीं…और..उन दिनों स्ट्रगल कर रहे गबरु जवान धर्मेन्द्र को मीना कुमारी से मिलवाने वाले विनोद दा ही थे। के.एल. सहगल की शिष्यता के लिए विनोद दा ने कितने पापड़ बेले थे..आदि। वह रिकार्डिंग अब भी आर्काइवल लाइब्रेरी में मौजूद है।
■जवानी की यादें…
सभी जानते हैं कि लगभग 90 फ़िल्मों में अपनी दमदार अदाकारी से धमाल मचाने वाली मीना कुमारी को “ट्रेजेडी क्वीन” के नाम से नवाज़ा गया है। उनकी दमदार अदाकारी ने बॉलीवुड में उन्हें नया नाम भी दिया है – फीमेल गुरु दत्त।
मीना कुमारी को नाम, इज्जत, शोहरत, काबिलियत, रुपया, पैसा सभी कुछ मिला पर सच्चा प्यार नहीं मिला । अंत तक नहीं मिला । जानना चाहेंगे क्यों ?
नि:सन्देह मीना कुमारी ने अपनी ख़ूबसूरती से करोड़ों लोगों को अपना दीवाना बनाया। बला की ख़ूबसूरत मीना कुमारी के साथ हर कलाकार काम करना चाहता था। इतना ही नहीं उनके ऐसे कई दीवाने भी थे जो उनके इश्क़ में पागल थे।
अभिनेत्री मीना कुमारी
उनके बारे में आज बताते हैं एक ऐसी राज़ की बात जिसेे जानकर आप हैरान हो जायेंगे (किंचित मेरी इस बात पर विश्वास भी न करेंगे ) कि मीना कुमारी ने अपनी शादी करके घर बसाने का पहला प्रस्ताव उन दिनों बम्बई (अब मुम्बई) की फ़िल्मों में संगीत देने के लिए स्ट्रगलर युवा संगीतकार विनोद कुमार चैटर्जी (जो आगे चलकर विनोद दा के नाम से मशहूर हुए और बम्बई की दुनियां को अलविदा कहकर आकाशवाणी लखनऊ में संगीत संयोजक पद पर लम्बे अरसे तक नियुक्त रहे ) को दिया था।
मैं फिर कहता हूं कि हो सकता है मेरी इस बात पर आपको यक़ीन न हो, लेकिन इसे सच मानिये । मित्रों,वर्ष 2013 में जब मैनें आकाशवाणी लखनऊ में अपनी पोस्टिंग के दौरान तमाम लिखा पढ़ी करके विनोद दा की आर्काइवल रिकार्डिंग की अनुमति पाई और उसके सकुशल कार्य सम्पादन हेतु कई सेशन में कई दिनों तक इन्हीं विनोद दा की आर्काइवल रिकार्डिंग की तो उसमें बड़ी ख़ूबसूरती से श्री उर्मिल कुमार थपलियाल (इंटरव्यूअर) ने ये राज़ की बात उनसे उगलवाई थी।
इस बात की आज भी उनसे तस्दीक की जा सकती है। हाथ कंगन को आरसी क्या,पढ़े लिखे को फारसी क्या ?…..आप कभी भी आकाशवाणी के आर्काइवल संग्रह से या श्री उर्मिल कुमार थपलियाल से मेरी इस बात की पुष्टि कर सकते हैं।
उन्होंने अपने इस ख़ास इंटरव्यू में बताया था कि यह सन 1950 के दशक का प्रसंग है। उनके लिए वे दिन ही कुछ और हुआ करते थे। उन दिनों बम्बई की दुनियां छोटी थी और फ़िल्मों में गुणीजनों का अभाव था। ख़ूबसूरत युवा विनोद दा दिन भर तो बड़े संगीतकारों के साथ रहते और शाम को विनोद दा अपनी बुलेट मोटरसाइकिल से अक्सर मीना कुमारी के यहां बैठकी करते मिलते थे।
उन्ही दिनों धर्मेंद्र फिल्मी दुनियां में नये नये आये थे। जाने क्यों विनोद दा को मीना कुमारी दिल से मानने लगी थीं। निकटता इतनी बढ़ती गई कि एक बार जब उन्होंने शादी का प्रस्ताव उनके सामने रखा तो वे निजी कारणों से पीछे हट गये। यह बात फ़िल्म “फूल और पत्थर” की शूटिंग शुरू होने के पहले की है और विनोद दा ने ही उन्हीं लमहों में गबरु युवा धर्मेंद्र को मीना कुमारी से इन्ट्रोड्यूस कराया था।
मीना कुमारी ने ही अपने अपोज़िट उस फ़िल्म के लिए धर्मेन्द्र को बतौर हीरोप्रपोज़ किया था । समय ने उन्हें और धर्मेद्र दोनों को सफलता के आकाश पर पहुंचाया और विनोद दा अपनी होम सिकनेस के चलते मुम्बई की दुनियां में मशगूल होने के बजाय लखनऊ चले आए और लखनऊ में ही एक ख़ामोश मौत के सुपुर्द हुए।
संगीतकार विनोद चटर्जी के साथ लेखक प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी
गायक, गीतकार, संगीतकार विनोद कुमार चटर्जी ने अपना सारा जीवन संगीत को उन्होंने समर्पित कर दिया था । नई पीढ़ी शायद उनके बारे में कम ही जानती है। शायद उन्हें सुना भी न हो, लेकिन वे उस दौर के कलाकार थे जब अपनी पहचान बना पाना बेहद मुश्किल हुआ करता था। वे फ़िल्मी दुनियां के आकर्षण से कुछ सालों के लिए मुम्बई भी गये , कुछ फ़िल्मों में संगीत भी दिया लेकिन वहां की दुनिया उन्हें रास नहीं आई और लौट आए आकाशवाणी लखनऊ।
‘शाम के दीपक जले…’ जैसे गीत का निर्देशन करने वाले वरिष्ठ संगीतकार विनोद चटर्जी का जुलाई 2014 में 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया था ।
उनके बारे में भजन सम्राट अनूप जलोटा का कहना है, “विनोद दादा के संगीत में माधुर्य और भावना का संगम दिखता था ”
ग़ैर फ़िल्मी संगीत निर्देशन में तलत महमूद के गाए ‘शाम के दीपक जले…’ और ‘किस्मत का मारा पंछी अकेला..’ गीत काफी लोकप्रिय हुए थे। उनका बचपन लाहौर में बीता। जम्मू में संगीतकार कुन्दल लाल सहगल से मुलाकात के बाद उनका रुझान संगीत की ओर बढ़ा। 1953 में आकाशवाणी लखनऊ में म्यूज़िक कम्पोज़र के रूप में उन्होंने कैरियर की शुरुआत की।
बॉलिवुड में 1957 से 1960 तक रहे और लगभग एक दर्ज़न फ़िल्मों में संगीतकार सी. रामचन्द्र के सहायक के रूप में कार्य किया। मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद, गीता दत्त, लता मंगेशकर, आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा आदि ने विनोद चटर्जी के निर्देशन में गाने गाए हैं । उनके कई बांग्ला गीत भी लोकप्रिय हुए।
1960 में वह लखनऊ लौट आए और म्रयूज़िक कम्पोज़र के रूप में आकाशवाणी लखनऊ से 1985 में रिटायर हुए।
ग़ज़ल क्वीन बेगम अख़्तर के वह पसंदीदा कम्पोज़र थे। आकाशवाणी लखनऊ में प्रोड्यूस किए गए अनेक नाटकों और रूपकों में भी उन्होंने संगीत दिया था।
शीर्ष गायक के.एल.सहगल की शिष्यता के लिए विनोद दा ने जाने कितने पापड़ बेले थे। सी.रामचंद्र के साथ रहकर विनोद दा ने आग, नवरंग, शारदा आदि फ़िल्मों में संगीत संयोजन किया। मो.रफ़ी ने उनके निर्देशन में अनेक नग़में और भजन गाये । उन्होंने अनेक गीत भी लिखे। कुछ के बोल हैं – एक बार मुझे प्रीतम कहकर,सपना बन जाता है कोई और किस्मत का मारा पंछी अकेला(तलत महमूद),कौन सा गीत सुनाऊँ सजनी और छमा छमके (सी.एच.आत्मा) आदि ।
प्रख्यात भजन गायक अग्निहोत्री बन्धु लिखते हैं “Parampoojya Gurudev Shree Vinod Chatterjee, a renowned music director, to whom this singer duo is ever grateful.”
अंत में विनोद दा के लिए शायर ख़ुमारर बाराबंकवी के ग़ज़ल की ये पंक्तियां :-
‘‘क्या हुआ हुस्न है हमसफ़र या नहीं
इश्क़ मंज़िल ही मंज़िल है रास्ता नहीं,’’
‘‘नज़र से ढल के उभरते हैं दिल के अफ़साने,
ये और बात है दुनिया नज़र न पहचाने’’
■प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी, कार्यक्रम अधिकारी (से.नि.)
आकाशवाणी, लखनऊ
Sir aapne jitni bhi baate bataai….sangitkaar sri vinod chatarji sir ke baare me …use padh kar bahut hi achcha laga …aur kaafi baate pata chali …..sri vinod chatarji sir ke baare me …..aur meenaa kumari ji ke baare me…..