आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (15)
लंबे अरसे बाद खुशी की खबर ने दस्तक दी। मेधा बुक्स प्रकाशन दिल्ली से मेरा उपन्यास मालवगढ़ की मालविका (2003) प्रकाशित हो चुका था। 5 वर्षों का मेरा श्रम पुस्तक रूप में देख पाऊंगी। यह उपन्यास सती प्रथा के विरोध में लिखा था और इसमें मैंने कठिन होमवर्क किया था ।इसका ब्लर्ब महेश दर्पण ने लिखा ।यह ब्लर्ब उपन्यास की तह टटोल लाता है।
वे लिखते हैं
“कथा से कहन या किस्सागोई के विलुप्त होते जाने का जो भय इधर उपन्यास विधा को ग्रसता रहा है संतोष श्रीवास्तव का यह उपन्यास असरदार रूप में उस से मुठभेड़ करता है। स्वतंत्रता आंदोलन के कथा समय में प्रताप भवन के सामंती परिवेश से शुरू हुआ यह उपन्यास जीवन और समाज के कई आयामों को अपने फोकस में लेकर चलता है और मानवीय संवेदना के कई स्तरों को छूता, सहलाता ,ठकठकाता हुआ आगे बढ़ता है ।एक ओर जहाँ सामंती जीवन अपनी पूरी लय में उद्घाटित है वहीं दादी के चरित्र ने समूची कथा को ऐसे आकर्षक सूत्र में बांधे रखा है कि आगामी पीढ़ियां भी उससे मुक्त नहीं हो पातीं। जीवन इस उपन्यास में उत्सव की भांति उपस्थित है तो नई और पुरानी विचार दृष्टियां भी उपन्यास की संरचना को एक सुदृढ़ आधार देती हैं ।गल्प के मायाजाल में बंधा हुआ पाठक कभी स्वयं को पारिवारिक परिवेश में पाता है तो कभी स्वाधीनता आंदोलन के बीचो-बीच खड़ा उसका हिस्सा बन जाता है।गर्ज़ यह कि एक के बाद एक अनेक तिलिस्म के बीच से गुजरता हुआ यह उपन्यास पाठक को चंद्रकांता जैसे उपन्यासों की भांति अपने ग्रिप में अंत तक लिए रहता है। पारंपरिक कथा स्वभाव के निकट होने के बावजूद यहाँ लेखिका की दृष्टि अपने समय के स्त्री प्रश्नों पर भी लक्ष्य की जाएगी ।बेशक वे इन स्त्री प्रश्नों को आरोपित आधुनिकता के बजाय ऐतिहासिक संदर्भों में ही उठाती हैं लेकिन पूरे परिप्रेक्ष्य के साथ ।इस दृष्टि से दादी और मालविका के बाद जिम वेल का चरित्र भी इस उपन्यास की शक्ति बनकर सामने आता है ।सती- दाह जैसी स्त्री विरोधी कुरीतियों, आडंबरों के विरुद्ध उभरता इस उपन्यास का कथ्य स्वर निकट अतीत की एक ऐसी कुंजी विकसित करता है जिससे वर्तमान के कई अनसुलझे रहस्य स्वयमेव खुल-खुल जाते हैं। मालवगढ़ की मालविका में परिवेश के अनुरूप ढली कथा भाषा एक ऐसा जादू खड़ा करती है जो उपन्यास की लोकप्रियता की पहली शर्त है लेकिन हिंदी का आधुनिक उपन्यास जिससे लगभग रिक्त महसूस किया जा रहा है। इस दृष्टि से भी इस उपन्यास को एक सार्थक हस्तक्षेप माना जाना चाहिए।“
सुरेश सलिल से मेरी इंदौर में पहल सम्मान के दौरान इस उपन्यास के प्रकाशन की बात हुई थी। उन्होंने मेधा बुक्स से प्रकाशित करवाने की सलाह दी और यह भी कि उसके पहले कथादेश से धारावाहिक छपाते हैं। लेकिन यह संभव न था क्योंकि वह पहले से ही मुम्बई की स्थानीय पत्रिका में धारावाहिक छप रहा था । मेधा बुक्स अब साहित्य की किताबों के प्रकाशन की ओर मुड़ रहा था और उन्हें शुरुआत में 10 किताबें प्रतिष्ठित लेखकों की छापनी थीं। मुझे खुशी है कि उन 10 लेखकों में मैं भी शामिल थी ।किताब का कवर राजा रवि वर्मा द्वारा बनाई प्रसिद्ध पेंटिंग थी जो मेरे मनपसंद हरे रंग के फ्रेम में थी।
अलग से तो नहीं पर उसी वर्ष के पुरस्कार समारोह में उपन्यास का लोकार्पण राजेंद्र यादव के हाथों संपन्न हुआ ।रिबन खुला ।चर्चा नहीं हुई। इस उपन्यास ने दो बड़े पुरस्कार प्राप्त किए ।प्रियदर्शनी अकादमी पुरस्कार जो मुझे सन 2004 में महाराष्ट्र के वित्त मंत्री श्री जयंत पाटिल के हाथों मिला और इसी वर्ष की 1 मई मज़दूर दिवस पर वसंतराव नाईक प्रतिष्ठान साहित्य पुरस्कार जो मुंबई के राजभवन (गवर्नर हाउस )में तत्कालीन गवर्नर एसएम कृष्णा के कर कमलों से मिला। तब तक उपन्यास की सात पत्रिकाओं में समीक्षा छप चुकी थी ।
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा विश्व भर के प्रकाशन संस्थानों को शोध एवं तकनीकी प्रयोग( इलेक्ट्रॉनिक्स )हेतु देश की उच्चस्तरीय पुस्तकों के अंतर्गत “मालवगढ़ की मालविका ” उपन्यास का चयन भी हुआ।
यह मेरे लिए बहुत बड़ी खबर थी ।इसी उपन्यास ने मुझे जेजेटी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति और मुंबई के सबसे चर्चित संस्थान राजस्थानी सेवा संघ के अध्यक्ष विनोद टिबड़ेवाल तक पहुँचाया ।उपन्यास पढ़कर विनोद जी ने मुझे घनश्यामदास पोद्दार हाई स्कूल में अध्यापिका के पद पर नियुक्त किया। लेकिन यह बाद की बात है । 2003 में मालवगढ़ की मालविका के साथ-साथ यात्री प्रकाशन दिल्ली से मेरा और प्रमिला का संयुक्त उपन्यास “हवा में बंद मुट्ठियाँ” प्रकाशित होकर आ गया। उपन्यास की प्रति हाथ में लेते ही मेरी आँखें छलक पड़ी थीं। जिसके सृजन में हेमंत ने इतनी दिलचस्पी ली थी। काश यह उसके सामने छपकर आता।
जिंदगी हमसे कितना कुछ वसूल लेती है थोड़ा सा देने के एवज ।रात भारत भारद्वाज को फोन लगाया “जिंदगी निरर्थक लग रही है भारत जी, खुद को समझाती हूँ पर समझा नहीं पाती।” “ऐसा क्यों सोचती हैं आप ।हेमंत का चले जाना ईश्वरीय संकेत है ।वह आपसे और भी बड़ा कार्य कराना चाहता है। आपके लेखन के मकसद की शुरुआत समझिए कि जिसके लिए ईश्वर ने आपको अकेला किया ।”
और मैं लिख रही हूँ। हाँ मैं लिख रही हूँ। लिखती रहूँगी ।इस निरंतर लिखते रहने के लिए मैंने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है ।इतिहास बताता है कि मनुष्यों की जो भी नस्ल विनाश के बाद पुनः उभरी उसने खुद को फिनिक्स से जोड़ लिया। न जाने क्यों यह जुड़ाव मुझे बहुत अपना सा लगता है। लेखक बार-बार महाविनाश से गुजरता है ।बार-बार स्वाहा होता है। और बार-बार पुनर्जीवित हो जाता है। पुनर्नवा होना कलम के साथी का तेज है ।हौसला है। मैं खुद को पुनर्नवा होते पाती हूँ।देख रही हूँ मेरे आस-पास रेशमी जाल सा बुनता चला जा रहा है। पर कौन ?क्या मेरी नियति? क्या मेरी जिंदगी ?क्या मेरा शून्य ? मेरे जीवन का यह पड़ाव ,अकेलापन ,हादसे की त्रासदी और अभिशप्त मैं। जीवन भर गलत मूल्यों के खिलाफ कलम चलाने की मेरी पीड़ित आकांक्षा ।लेकिन कहते हैं न कि ईश्वर एक द्वार बंद करता है तो दूसरा खोल भी देता है।
क्रमशः