आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (21)
कैसी विडंबना है कि एक तरफ किताबें पाठकों के लिए तरस रही है तो दूसरी ओर साहित्य के मठाधीश अपने साहित्य की वजह से कम बल्कि अपनी आत्ममुग्धता और खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने की अंधी मानसिकता के शिकार हैं ।उनका अहंकार, गुटबाजी, प्रायोजित चर्चाएं ही उन्हें ज्यादा लाइमलाइट में ला रही हैं ।ऐसे ही कवि हैं आलोक धन्वा जिन्हें पूरा सपोर्ट ज्ञानरंजन जी का मिल रहा है। बहरहाल यह बात मुझे बाद में पता चली क्योंकि तब तक मैं ज्ञानरंजन जी को अपना शुभचिंतक आत्मीय समझती थी। हुआ यूं कि सुधा अरोड़ा का फोन आया “संतोष, तुम कुछ दिनों के लिए असीमा भट्ट को अपने पास रख लो। घर का इंतजाम होते ही वह चली जाएगी।” मुझे भला क्या ऐतराज़ था। और फिर कौन नहीं जानता था आलोक धन्वा के असीमा पर किए अत्याचारों को ।लिहाजा मैं सहर्ष तैयार हो गई ।मैंने मेहमानों वाला कमरा असीमा के लिए तैयार कर दिया। वह कल शाम तक आने वाली थी ।
तभी ज्ञानरंजन जी का फोन आया “यह तुम क्या कर रही हो संतोष, असीमा अच्छी औरत नहीं है। मालूम भी है तुम्हें वह आलोक की कितनी लानत मलामत करके गई है।”
मैं घबरा गई ” ज्ञान दा ,मैं हां कर चुकी हूं ।असीमा आने ही वाली है।“
“तो मना कर दो । फँसोगी तुम बुरी तरह।” कहते हुए उन्होंने फोन काट दिया ।
मेरी जान संकट में ।क्या करूं? एक तरफ ज्ञान दा का हुक्म ।दूसरी तरफ एक औरत की मदद ।सुधा अरोड़ा को फोन लगाया। उनका जवाब सीधा था “तुम्हें मदद करनी चाहिए ।आगे तुम खुद समझदार हो ।”
तब मैं आलोक धन्वा के कारनामों से परिचित नहीं थी।ज्ञान दा के प्रति मेरा आदर भाव था ।मैंने असीमा को मीठी इंकारी दे दी। यह वजह बताकर कि” मैं जहां नौकरी करती हूं ।यह बंगला उनका दिया हुआ है और वे परमीशन नहीं दे रहे हैं।”
वह रुआंसी हो गई ।
“सामान टेंपो में लादा जा चुका है संतोष ।अब मैं कहां जाऊं।”
अपराध बोध से मैं विचलित हो गई। मानती हूं गुनाह किया मैंने। अब तो और भी ज्यादा जब मुझे आलोक धन्वा की सारी सच्चाई पता चली। ज्ञान दा के प्रति भी मेरे भ्रम टूटे ।
28 दिसंबर 2019 को उन्हें मेरी कर्म भूमि मुंबई से अमर उजाला द्वारा शिखर सम्मान दिया गया। उनकी कहानियाँ पिता और घंटा जो मैंने स्कूल के दिनों में धर्मयुग में पढ़ी थीं कालजयी कहानियाँ कही जा रही है। निश्चय ही वे अच्छे लेखक ,अच्छे संपादक हैं। कईयों के लिए अच्छे इंसान भी ।पर क्या उन्होंने आलोक धन्वा को सपोर्ट देकर अपने आसपास उन्हीं के जैसा गुट निर्मित कर असीमा भट्ट को हर मददगार के दिल से निष्कासित नहीं किया ?
7 दिसंबर 2019 को ही मुंबई में मेरी किताब करवट बदलती सदी आमची मुंबई के चर्चा विमर्श कार्यक्रम में जब मैंने असीमा को आमंत्रित किया तो वह रो पड़ी “मुझे क्यों बुला रही हो संतोष, लोग तो मुझे खराब औरत कहते हैं ।”
कौन है औरत की इस पीड़ा का जिम्मेवार? एक अच्छा कवि ?एक कालजयी लेखक?
कुछ ही महीनों बाद मुझे घर खाली करना पड़ा ।जिसका था वह बेच रहा था ।विनोद सर ने मुझे सद्गुरु नगर में उनके बेटे विशाल के द्वारा खरीदे वन बेडरूम हॉल किचन वाले घर में शिफ्ट कर दिया। घर था तो अंधेरी में मगर सोसायटी सद्गुरु नगर थी। घर के पीछे मुसलमानों का इलाका ।बकरीद पर खूब बकरे कटते। खून की गंध दिन भर मेरा पीछा करती। अब लक्ष्मी नारायण मंदिर की आरती के घंटे ,फूलों की, प्रसाद की खुशबू छूट गई थी। पास ही मस्जिद से पांचों वक्त की नमाज का ऐलान करती मुल्ला की आवाज सुनाई देती ।यानी किसी न किसी रूप में ईश्वर मेरे नजदीक है।
क्रमशः