आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (24)
उन दिनों मैं कमल गुप्त का मैकाले का भूत पढ़ रही थी ।इसे जो पढ़ना शुरू किया तो खत्म करके ही उठी। दो रातों के जागरण ने मेरी तबीयत खराब कर दी। पेट खराब हो गया। इतने लूज मोशन हुए ।चक्कर आने लगे ।बिस्तर पकड़ लिया। सुमिता को फोन लगाया वह अपनी बहू पायल और बेटे मोहित के साथ दवा और खिचड़ी लेकर आई। लेकिन मेरी हालत देखकर वह मुझे अपने घर ले गई ।तब विनोद सर कैलिफोर्निया में थे ।उन्हें फोन लगाया ।उन्होंने तुरंत वालेचा को फोन पर कहा कि” संतोष का प्रॉपर ट्रीटमेंट कराओ। रुपयों की मदद पहुंचाओ।“ सुबह सुमिता मुझे डॉ के पास ले गई। दवा पथ्य शुरू हुआ। विनोद सर सुबह शाम हालचाल पूछते। 5 दिन सुमीता के घर इलाज और आराम किया।
सुमीता की भी इच्छा थी थाईलैंड जाने की ।मैंने जयप्रकाश मानस से बात की। लेकिन वे सुमीता को जानते न थे। मेरे अनुरोध पर हामी भरी ।सुमीता के पास पासपोर्ट न था । मेरी तबीयत थोड़ी थोड़ी सुधर रही थी ।पासपोर्ट की भाग दौड़ में मैं भी दो बार सुमीता के साथ पासपोर्ट ऑफिस गई।
पासपोर्ट तत्काल में बन गया और हम दोनों थाईलैंड की तैयारियों में जुट गए।
16 से 21 दिसंबर हम थाईलैंड में थे। जहाँ चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित किया जा रहा था ।बैंकॉक में मुझे सृजन श्री साहित्य सम्मान प्रदान किया गया। काफी लेखक आए थे थाईलैंड। आधारशिला के संपादक दिवाकर भट्ट से वहीं पहचान हुई।
थाईलैंड से लौटते ही घटनाएं तेजी से घटीं।बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिंदी शाखा प्रमुख डॉ बिपिन ने आमंत्रित किया। 23, 24 जनवरी को राष्ट्रीय संगोष्ठी थी। जिसका विषय था” 21वीं सदी की हिंदी समकालीन विमर्श” हिंदी विभाग काशी हिंदू विश्वविद्यालय तथा साहित्यिक पत्रिका अनिश का संयुक्त आयोजन था। मेरे लिए वहाँ जाना इसलिए और भी महत्वपूर्ण था क्योंकि बाबूजी वहीं के पढ़े थे और पंडित मदन मोहन मालवीय जी के जमाने में छात्रावास में भी रहे थे।
बिपिन जी ने मेरे रहने की व्यवस्था यूनिवर्सिटी फैकेल्टी हाउस में की थी। एक गाड़ी भी मेरे लिए अरेंज कर दी ताकि मैं अच्छे से विशाल परिसर में स्थित विश्वविद्यालय और बनारस घूम सकूं। कार्यक्रम राधाकृष्णन सभागार कला संकाय में संपन्न हुआ जहां मुझे दलित साहित्य सम्मान प्रदान किया गया। मैं इतनी इमोशनल हो रही थी, डॉ राधाकृष्णन ने ही तो बाबूजी को दर्शनशास्त्र पढ़ाया था ।मैंने अपने वक्तव्य में इसका जिक्र किया और उस जमाने की बाबूजी की बताई बातें साझा की।
कार्यक्रम के बाद छात्रों ने मुझे घेर लिया और मेरा ऑटोग्राफ लेने लगे। आग्रह करने लगे कि और भी बातें बताइए न यूनिवर्सिटी से जुड़ी। मैं उन छात्रों के साथ ही संस्कृत विभाग, छात्रावास आदि देखती रही। मुझे लगा जहाँ बाबूजी के चरण चिन्ह हैं वह जगह तो मेरे लिए तीर्थ समान है ।क्या आलम रहा होगा तब। शिक्षा के साथ क्रांति की सरगर्मियां भी।
शाम को डॉक्टर विपिन के यहाँ चाय पार्टी थी। उनकी पत्नी ने ताज़ी मटर और फिंगर चिप्स की चाट परोसी। चाय भी बेहद स्वादिष्ट थी। डॉ बिपिन बताते रहे अनिश पत्रिका के प्रकाशन की बातें ” आपने आज जो वक्तव्य दिया है वह अगले अंक में प्रकाशित होगा।” अनिश में लेख ही ज्यादा प्रकाशित होते हैं। लेकिन समकालीन मुद्दों पर विमर्श की अच्छी पत्रिका है।
मेरी ट्रेन कल शाम की थी। सुबह से सम्मेलन में आए साहित्यकार साथियों के साथ बनारस भ्रमण किया ।पहले भी देख चुकी थी बनारस ।सबसे ज्यादा आनंद आया गंगा के विभिन्न घाटों की सैर करने में ।दशाश्वमेध घाट से नौका ली थी। बाबूजी इसी घाट पर ब्राह्ममुहूर्त में आकर सूर्य उपासना करते थे। तब गंगा शुद्ध निर्मल थी। अब मैली ।गंगा को यह मैलापन मनुष्य ने ही तो दिया है। एक ओर धार्मिक आस्था की प्रतीक गंगा। दूसरी ओर कचरे का महासागर।
क्रमशः