आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (25)
नौकरी छोड़ दी थी और मेरे पास समय ही समय था ।हालांकि यूनिवर्सिटी से जुड़ाव बना रहा। हफ्ते में दो बार तो चली ही जाती। ऑफिस के काम निपटाती। कभी-कभी विनोद सर खुद का लेखन भी करवाते। लेकिन उन्हें अपना कैलिफोर्निया प्रवास का संस्मरण लिखाना था तो उस पर मुझ से काम करवाते।
राजस्थानी सेवा संघ की स्थापना के 50 वर्ष पूरे हो चुके थे। जिस पर मुझे नाटक लिखना था और नाटक का निर्देशन भी करना था। सभी घटनाओं पर होमवर्क करके मैंने नाटक लिखा। रंगकर्मी एबनेर के बैच ने नाटक खेला। लगभग डेढ़ घंटे का नाटक तैयार हो गया जो भाई दास हॉल में 400 लोगों की उपस्थिति में खेला गया।
स्वर्ण जयंती थी। सुबह 11:00 से शाम 6:00 बजे तक कार्यक्रम हुए। विनोद सर ने शिक्षा मंत्री ,पुलिस महानिदेशक ,गवर्नर और विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को आमंत्रित किया था ।मेरे द्वारा निर्देशित गीत की सीडी तैयार हुई। जिसे सभी को उपहार स्वरूप भेंट किया गया।
न जाने क्यों मुझे लगने लगा जैसे मैं वैसा जीवन नहीं जी पा रही हूं जैसा मैं चाहती हूं। मेरे कमरे की खिड़की से दिखते जवाकुसुम के लाल फूलों से लदा पेड़ और उस पर फुदकती चिड़ियाँ जो अपनी चहचहाहट से माहौल को संगीतमय बना देती हैं मुझे बहुत हॉन्ट करतीं, न जाने क्यों!!
मुंबई में साहित्यिक सरगर्मियां बढ़ रही थीं।आशीर्वाद संस्था के डॉ उमाकांत बाजपेई ने फोन पर बताया कि वे मुंबई के हिंदी कवियों की पुस्तक संपादित करने जा रहे हैं। जिसमें मैं भी अपनी कविता फोटो ,परिचय सहित भेजूं। इसी समय दिल्ली से प्रेमचंद सहजवाला ने भी 10 कविताएँ मंगवाई। वे भारत के सिलेक्टेड कवियों की किताब “लिखनी ही होगी एक कविता” जो बोधी प्रकाशन से प्रकाशित होगी, संपादित कर रहे थे। मैं छिटपुट कविताएँ लिखती थी। तब अधिक छपी भी नहीं थी पर एक बार विश्व पुस्तक मेले में उन्हें कुछ कविताएं सुनाई थीं। बहुत प्रोत्साहित किया था उन्होंने “लिखो मन के भाव कागज पर उतारती रहो। फिर उन पर होमवर्क करो। कविता सृजित होगी। अब वे इस दुनिया में नहीं है। उनके द्वारा संपादित संग्रह “लिखनी ही होगी एक कविता” मेरी किताबों की अलमारी में है ।मैं उन्हें बताना चाहती हूँ कि हाँ मैं लिख रही हूँ कविता और मेरा एक संग्रह भी छप चुका है “तुमसे मिलकर” लेकिन उसे पढ़ने के लिए आप नहीं है।
कितने आत्मीय हमेशा के लिए बिछड़ जाते हैं लेकिन लेखक फिर भी अपनी लेखन यात्रा जारी रखता है। मेरे लेखन ने जब जन्म लिया ,वह पूरी प्रक्रिया, मेरी जिज्ञासाएं, मेरे भीतर कुलबुलाते प्रश्न और बीहड़ संवेग, पथरीली घटनाएं जिस पर से गुजर कर एक लंबा कष्टप्रद सफर मैंने तय किया। क्या मैं अपने भीतर के सफर को कभी परिभाषित कर पाऊंगी। दुनियादारी साथ साथ चलती रहती है। अगर शब्दों का सफर सड़क से गुजरता है तो दुनियादारी उसका फुटपाथ होती है।
क्रमशः