आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (26)
वर्ष 2015 में मेरे साहित्य पर केंद्रित दो विशेषांक निकले। विकेश निझावन के संपादन में अंबाला से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका पुष्पगंधा का मई से जुलाई 2015 का अंक मेरे साहित्य पर केंद्रित विशेषांक था। जिसमें जयप्रकाश मानस द्वारा लिया गया मेरा साक्षात्कार, मेरे मित्रों के मेरे विषय में विचार जिन्हें अभिव्यक्ति कॉलम दिया गया जिसके अंतर्गत प्रसिद्ध रंगकर्मी मंजुल भारद्वाज ,मोहनदास फकीर, आलोक भट्टाचार्य ,गुलशन आनंद, सामयिक प्रकाशन के महेश भारद्वाज,पत्रकार महेश दर्पण तथा कवि ,आलोचक भारत भारद्वाज के लेख प्रकाशित किए गए।
अपने संपादकीय में विकेश निझावन ने लिखा कि “साहित्य की विभिन्न विधाओं को संतोष श्रीवास्तव ने जिस गहरे से छुआ हमारे पाठकों की जिज्ञासा उनके साहित्य और जीवन के और करीब जाने के लिए बढ़ती चली गई ।यह अंक भी संतोष जी के जीवन के अन्य पहलुओं से रूबरू होने जा रहा है जो पाठकों के विशेष अनुरोध पर उनके साहित्य पर केंद्रित किया गया है। कहा जाता है कि दर्द का हद से गुजर जाना हो जाता है दवा ,लेकिन यहां हमें संतोष जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखा प्रसिद्ध कवि आलोक भट्टाचार्य का यह लेख कि संतोष ने दुख की परिभाषा बदली है बहुत अधिक सटीक लगा।
दुख की परिभाषा बदली है संतोष ने
उनका नाम भर संतोष है। बाकी बात यह है कि अपनी लिखी रचना से वे कभी संतुष्ट नहीं होतीं और इसीलिए वे अपनी रचनाओं की सबसे बड़ी आलोचक भी हैं। आप पाएंगे कि उनमें एक तड़प है ,एक अबूझ छटपटाहट है। वह हमेशा कुछ न कुछ नया सोच रही हैं।नई योजनाएं, नए कार्यक्रम बना रही हैं। उनमें बहुत उत्साह है। आप उनसे मिलें, वह आपको बताएंगी कि उन्होंने क्या-क्या किया है। क्या कर रही हैं और क्या करने वाली हैं। उनके यह सभी काम साहित्य से जुड़े होते हैं ।वह अपने घर पार्टी कर रही हैं तो स्थानीय या मुंबई के बाहर से आए साहित्यकारों के साथ। पिकनिक जा रही हैं तो साहित्यकारों के साथ।
कई लोगों को लगता है लग ही सकता है कि यह संतोष की अतिरिक्त गतिविधियां हैं। एक्स्ट्रा करिकुलर यानी साहित्येतर ,साहित्य से बाहर की दौड़ भाग लेकिन ऐसा है नहीं। दरअसल वे इन्हीं गतिविधियों में से अपनी रचनात्मकता की आग को धधकाए रखने का ईंधन जुटा लेती हैं। उनके इस कार्य का एक अहम हिस्सा है दूरदराज के लेखकों से संपर्क बनाए रखना ।जिनके साथ उनकी मुलाकात विभिन्न साहित्यिक सम्मेलनों या विश्वविद्यालय के सेमिनारों में होती रहती है। इन्हें वे अपनी बिरादरी भी कहती हैं। ऐसा करके अपने परिवेश को साहित्यमंडित बनाए रखती हैं और इस तरह खुद को ऑक्सीफाइड कर लेती हैं। संतोष उदार होती हैं ,स्नेहिल होती हैं, मददगार या फिर नए लेखकों को प्रमोट करने की दरियादिली……. उनका अंतिम ध्येय अंततः साहित्य होता है ।
अच्छे साहित्य को धर पकड़ने के लिए सांसारिक लापरवाही या व्यवहारिक क्रूरता आपको देखनी है तो बाबा नागार्जुन में देखें, राजकमल चौधरी में देखें ।फर्क यह है कि संतोष में लापरवाही सिरे से गायब है। वे सजग हैं ।व्यवहार में क्रूर नहीं अति कोमल हैं।
संतोष के खून में साहित्य है ।उनके डीएनए में साहित्य है ।उनके पिता दर्शन शास्त्र की किताबें लिखते थे। मां गीत। उनके भाई विजय वर्मा साहित्य की बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। छोटी बहन डॉ प्रमिला वर्मा भी हिंदी की स्थापित कथाकार हैं। संतोष का एकमात्र बेटा हेमंत मात्र 23 साल की उम्र में जिसकी अकाल मृत्यु एक दारूण, ह्रदय विदारक दुर्घटना में हो गई वह भी कविताएं लिखता था। बाद में हेमंत की कविताओं का संग्रह छपा “मेरे रहते।”
मेरा संतोष से परिचय उनके पहले कथा संग्रह बहके बसन्त तुम के लोकार्पण के अवसर पर नूतन सवेरा के ऑफिस में हुआ और तब से हम घनिष्ठ मित्र हैं। अब तो और भी अधिक जब उनके बड़े भाई विजय वर्मा और पुत्र हेमंत की स्मृति में स्थापित हेमंत फाउंडेशन से मैं भी जुड़ गया हूं।
संतोष ने बहुत जल्दी-जल्दी दो बड़े दुख झेले पहले जवान होनहार बेटे हेमंत की अकाल मृत्यु और फिर कुछ ही समय बाद कैंसर से पति की मृत्यु। कोई भी महिला टूट ही जाती। संतोष भी टूटती अगर उनके पास साहित्य की शक्ति न होती।
प्रसिद्ध बांग्ला साहित्यकार प्रमथ चौधरी ने कहा है साहित्य भले ही रोटी रोजगार नहीं दे पाता है, आत्महत्या से तो बचाता है। संतोष भी बच गईं ।वे आत्महत्या तो नहीं करतीं लेकिन शोक से भरी तन्हाई में घुल घुल कर जीते रहने को भी तो जीवन नहीं ही कहा जा सकता।
उससे उबर कर फिर से जीवंत हो पाने का अवसर उन्हें निश्चित रूप से साहित्य ने ही दिया। संतोष पहले भी खूब सक्रिय थीं लेकिन शोकस्तब्ध एकाकीपन की उस उदास अंधकार भरी खाई की मृत्यु शीतल जकड़ से स्वयं को मुक्त करने के लिए संतोष ने अपनी साहित्यिक सक्रियता को खूब बढ़ा लिया। स्थिर बुद्धि के अचंचल लोगों को संतोष की सक्रियता अतिरेकी जरूर लग सकती है। लेकिन मुझे लगता है संतोष ने ठीक ही किया। दुखों की परिभाषा बदल कर संतोष ने दुख को कोसों दूर झटक दिया। लिखना तो कलम मात्र के बस की बात नहीं कि जब चाहा कलम चलाने लगे। यह तो कलम घिसना हुआ कि दुख आन पड़ा और लिखने बैठ पड़े, ऐसा होता नहीं। दुख पचने को समय लेता है। उसका रूपांतरण समय साध्य है। झटपट कुछ नहीं होता ।जब तक लिखना “आता “या उर्दू लहजे में कहूं तो “उतरता” या अपने पंडित विद्यानिवास मिश्र जी के अंदाज में “अवतरित” होता तब तक क्या संतोष बैठी रहतीं? इंतजार करतीं? संतोष ने तय किया लिखना तो होगा ही ।जब होगा तब होगा ।अभी यह बहुत ज्यादा जरूरी है कि उनका टूटा मन कहीं तो थोड़ा जुड़े। सो वे साहित्यिक गतिविधियों में डूबती चली गईं। शुरू हो गया लेखकों के जन्मदिवस, शताब्दी दिवस ,स्मृति दिवस, कहानी पाठ, कवि गोष्ठी ,पुस्तक लोकार्पण, विजय वर्मा कथा सम्मान ,हेमंत स्मृति कविता सम्मान, साहित्य सम्मेलनों में प्रतिभागिता ।रायपुर ,जगदलपुर, भोपाल, पटना, रांची, इंदौर, लखनऊ, गोवा ,सूरत ,वडोदरा ,हल्द्वानी, देहरादून ,अमृतसर ,डलहौजी, दिल्ली, कोलकाता और शुरू हो गया कहानी उपन्यास के साथ गजल ,कविता लेखन, स्तंभ लेखन भी ।आज मुंबई में संतोष श्रीवास्तव साहित्य की एक जीती जागती प्रतिष्ठित प्रतिमा हैं और भारत की चर्चित महत्वपूर्ण हस्ताक्षर।
लेकिन इस सबके बावजूद दुख तो दुख ही होता है । अकेलापन , अकाट्य, अभेद्य। वरना हंसती मुस्कुराती संतोष की कलम से यह शब्द न रिसते।
“रात 12:00 या 1:00 बजे तक लिखती हूं पर कोई कहने वाला नहीं कि अब सो जाओ ।”
उन्हीं का एक शेर
अब रात बीतती है चलो घर की राह लें
पर वहां भी मेरे सिवा मिलेगा कौन?
शायद संतोष इस बात को आत्मा की गहराई से अनुभव करती हैं कि सिर्फ और सिर्फ लिखने और गहरे सच्चे लिखने के अलावा बाकी सभी कुछ मात्र आवरण ही है ।थोथा तामझाम। अनुभव कर पाती हैं तभी तो सब कुछ के बावजूद, सब कुछ के बाद संतोष कलम की शरण गहती हैं ।लेखन का ही हाथ थामती हैं ।संतोष जानती हैं कि दुख विराट है। दुख में से ही सांस रोककर ,खींचतान कर थोड़ा सा सुख निकाला जा सकता है। दुख की विशाल मूर्ति के यहां -वहां कोने-कोने से कुरेद कुरेद कर थोड़ी सी ऐसी मिट्टी निकाली जा सकती है कि एक छोटी सी मूर्ति गढ़ी जा सके।
संतोष दुखों की एक विराट मूर्ति हैं। खुद अपने को कुरेद कुरेद कर वह सुख के छोटे-छोटे गुड्डे गुड़ियाएं गढती जाती हैं। दो एक अपने लिए बाकी दुनिया जहान के लिए। यही संतोष की रचना प्रक्रिया है।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि संतोष श्रीवास्तव चित्रकार भी हैं। चित्रकला की उनकी जानकारी की एक झलक उनके आगामी उपन्यास “लौट आओ दीपशिखा “में पाठक देख सकेंगे। उपन्यास शायद किताबवाले पब्लीकेशन से आ रहा है। संतोष नृत्य कला प्रवीण भी हैं। अच्छी वक्ता भी हैं।
रही संतोष के साहित्य की बात तो वहां जीवन अपनी तमाम विशेषताओं और आकस्मिकताओं के साथ मौजूद है। वहां रूमान अगर अपनी पूरी शिद्दत के साथ उपस्थित है तो सामाजिक सरोकार के खलबलाते ,उबलते, बेचैन करते तमाम सवालात भी। टेम्स की सरगम में रूमान अपने उच्चतम ताप और समस्त और तार्किकता के साथ यदि मौजूद है तो माधवगढ़ की मालविका में सती प्रथा के खिलाफ, मुझे जन्म दो मां में कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ और नहीं अब और नहीं में सांप्रदायिकता के खिलाफ संतोष ने आवाज उठाई है ।संतोष के पास जीवन की अद्भुत जटिलताओं को समझने की सहृदयता है ।समाज की आर्थिक ,राजनीतिक खासकर भारत जैसे विशिष्ट समाज की जातीय और सांप्रदायिक समस्याओं को समझने की दृष्टि है। साथ ही रूमान की अबूझ बचपनाभरी ,नासमझी को भी लाड़ भरी शह देने का ममतापूर्ण माद्दा है। और इन सबको मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति देने के लिए प्रवाहमयी ,प्रांजल, खूबसूरत भाषा भी है उनके पास।
संतोष अत्यंत परिश्रमी, समय की पाबंद ,स्वाभिमानी ,साहसी हैं ।गलत चीजों पर कभी समझौता नहीं करतीं।अड़ जाने में तनिक भी नहीं डरती। स्पष्टवक्ता हैं लेकिन मृदुभाषी भी। स्नेह से लबालब उनका ह्रदय है। सारे संसार की पीड़ा धारे, खुद की पीड़ा भूले अप्रतिम संतोष लिखती रहें। हिंदी साहित्य समृद्ध होता रहे।
आलोक भट्टाचार्य का यह लेख मेरे साहित्य पर केंद्रित अन्य पत्रिकाओं ने भी छापा।
प्रतीक श्री अनुराग के संपादन में वाराणसी से निकलने वाली मासिक पत्रिका वी विटनेस का अप्रैल 2015 का अंक भी मेरे साहित्य पर केंद्रित विशेषांक था।
प्रतीक अनुराग ने अपने संपादकीय में लिखा “महान कवि आलोचक व नोबेल प्राइज विजेता टी एस इलियट ने अपने संस्मरण में रोला रोमा, रिल्के और दूसरे समकालीन यूरोपीय लेखकों की उपस्थिति पर हर्ष व्यक्त करते हुए आशंका जताई थी कि क्या भविष्य में कभी ऐसे लेखक दोबारा जन्म लेंगे। प्रतिभावान ,सादगी भरे ,शोहरत से कोसों दूर ,असुविधाओं में फंसे मगर फिर भी अपने काम में निमग्न……… समय समाज की आत्मा को अपनी रचनात्मकता का हिस्सा बनाती ऐसी संवेदनशीलता जो मनुष्य को न सिर्फ उसके अस्तित्व का एहसास कराए बल्कि उसका संबल भी बने ।”
उस टिप्पणी के संदर्भ में अपनी भाषा के सम्माननीय लेखकों की उपस्थिति और रचनात्मकता के बरक्स लेखिका संतोष श्रीवास्तव की याद बरबस आ जाती है ।पिछले चार दशकों से भी अधिक समय से लेखन एवं कला जगत को समर्पित एक ऐसी कलमकार को ,उसके वृहद सृजन संसार को कुछ पन्नों में समेटना एक दुरूह कार्य है फिर भी वी विटनेस ने संतोष जी के साहित्य आकाश के मर्म को स्पर्श करने का प्रयास किया है।
क्रमशः