आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (37)

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इतनी लंबी साहित्यिक यात्राओं के बाद मुझे काफी समय खुश रहना चाहिए था पर मेले की समाप्ति का सूनापन मेरे साथ हो लिया ।मेरे साथ अक्सर यही होता है। यह सूनापन मुझे ले जाता है कभी हिस्ट्री चैनल ,कभी नेशनल जियोग्राफी, कभी डिस्कवरी चैनल की ओर। जानवर, पक्षियों से प्यार है न इसलिए मन बहल जाता है। डिस्कवरी चैनल में मछलियों का पूरा संसार समंदर में दिखा रहे हैं। नौकाओं से बड़े-बड़े जाल समुद्र की लहरों पर फेंके जा रहे हैं। इस जाल में न केवल मछलियां फंसेगी बल्कि वे समेट लेंगे ढेर सारी खुशियां । फिर जाकर उन्हें बांट आएंगे उन लोगों के बीच जिनकी जिंदगी से छिटक कर निकल गए हैं सुख ।लहरों में हमेशा कुछ न कुछ मिलता ही है। बस ठीक से खोजने की जरूरत है। जरूरत है जाल फैलाने की। इसके लिए किसी मछुआरे का धैर्य चाहिए। मछुआरे के भीतर उम्मीद की एक लौ हमेशा जलती रहती है। यही उसे जिलाए रखती है। मेरे अंदर भी उम्मीद की लौ निरंतर जल रही है।

जो मुझे मेरे अवसाद से निकालती है।

स्टोरी मिरर में मेरा उपन्यास मालवगढ़ की  मालविका ई बुक के  रूप में उपलब्ध है सूचना मिली।

भोपाल से कांता राय ने फोन किया कि फेसबुक पेज लघुकथा के परिंदे समूह द्वारा पूनम डोगरा की पुस्तक एक पेग जिंदगी का ऑनलाइन विमोचन होगा। जिसमें आपको स्वागत भाषण देना है। अद्भुत यह पहला ऑनलाइन विमोचन था ।डॉ निरुपमा वर्मा ने सरस्वती वंदना का ऑडियो भेजा। रूपेंद्र ने दीप प्रज्वलन करती हुई अपनी तस्वीर अपलोड की। मैंने अपना स्वागत भाषण कॉपी पेस्ट किया फिर पुस्तक पर लोगों की प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हुई। यह अपने आप में अनूठा प्रयोग था ।जो सफल रहा ।विमोचन के अवसर पर भी देश-विदेश से वरिष्ठ लघुकथाकारों ने अपनी आभासी उपस्थिति दी। फेसबुक के प्रस्तोता मार्क जुकर को सलाम जिन्होंने कर दी दुनिया मुट्ठी में।

जब से औरंगाबाद आई हूं इस प्रयास में हूं कि कुछ लोगों को साहित्यिक बतरस के लिए जोडूं। लोकमत समाचार के संपादक अमिताभ श्रीवास्तव से मंशा प्रकट की ।वहां से कोई रिस्पांस नहीं मिला। महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी की सदस्य तथा रंगकर्मी अनुया दल्वी का कहना है कि यहां मराठी का बोलबाला है। मराठी साहित्य के कार्यक्रम तो बहुत होते हैं पर हिंदी के नहीं ।मन मसोस कर रह गए ।अलबत्ता इतना जरूर हुआ कि एक दिन आकाशवाणी से कहानी पाठ के लिए बुलावा आ गया।

23 नवंबर मेरे जन्मदिन पर अनुया दल्वी घर आईं केक लेकर और मराठवाडा का प्रसिद्ध शॉल हिमरू मुझे उढाते हुए कहा “यह आपके औरंगाबाद आने के उपलक्ष में है।” हिमरू रेशमी धागों से बुना जाता है।  भारी भी खूब था ।अरसे बाद इस तरह की शाम बीत रही थी जब हम साहित्य की बातों में डूबे थे ।फिर गीत भी खूब गाये सबने ।

विश्व मैत्री मंच के व्हाट्सएप समूह में भी मेरा जन्मदिन मनाया जा रहा था। सब अपने अपने संस्मरण साझा कर रहे थे ।व्हाट्सएप ग्रुप में जन्मदिन मनाने की योजना सुरभि पांडे की थी। उस दिन मुझे पता चला मुझे सब कितना चाहते हैं। कितना मान सम्मान देते हैं। अनुया दल्वी ने उस शाम की सभी तस्वीरें ग्रुप में शेयर कीं ।मैंने सभी के संस्मरण, तस्वीरें अपने ब्लॉग हेमंत कलेवर में अपलोड करके लिंक फेसबुक पर शेयर कर दिया। कितना जरूरी हो गया है मौजूदा समय में सोशल मीडिया से जुड़ना। 

कई सोशल साइट्स पर मेरी किताबें लेख उपलब्ध हैं। मातृभारती ऐप में मेरे जन्मदिन के अवसर पर ही जयेश खत्री ने मॉरीशस का यात्रा संस्मरण “चांद की आँख से झरा द्वीप मॉरीशस” प्रकाशित किया ।मुंबई से चंद्रकांत जोशी ने भी हिंदी मीडिया पर विश्व मैत्री मंच व्हाट्सएप ग्रुप की प्रतिदिन की पोस्ट के लिए कॉलम दिया “व्हाट्सएप पर साहित्य कला सृजन कर्मियों का गुलदस्ता है विश्व मैत्री मंच”

मेरी मेहनत रंग ला रही थी। विश्व मैत्री मंच लगातार सफलता के सोपान चढ़ रहा था ।महाराष्ट्र ,उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश ,दिल्ली में संस्था की शाखाएं खुल गई थीं और व्हाट्सएप ग्रुप बन गए थे जहां केवल साहित्यिक चर्चाएं होती हैं।

मेरे उपन्यास “लौट आओ दीपशिखा” के प्रूफ का भी पार्सल आ गया ।किताब वाले प्रकाशन से सुकून भाटिया का अनुरोध “संतोष जी ,15 दिन में प्रूफ पढ़कर भेजिए। जनवरी 2017 विश्व पुस्तक मेले में इसे लांच करना है।” बहुत सारे तकाज़ों की भरमार थी ।वर्धा से वर्धा विश्वविद्यालय के मीडिया प्रमुख दरवेश कठेरिया मेरे संपूर्ण साहित्य का ऑडियो तैयार कर नेत्रहीनों तक पहुंचाना चाहते थे। यह बेहद सार्थक पहल थी ।उन्होंने बुक्स इन वाइज डॉट कॉम पर अपनी साइट बना ली थी और कई लेखकों की कृतियों को आवाज दी थी ।उनका आग्रह था कि मैं वर्धा आकर कुछ दिन रहूं ।उन्होंने मेरी सारी किताबें मेरे प्रकाशकों से मंगवा ली थीं। हेमंत की कविताओं पर भी काम कर रहे थे।

प्रूफ पढ़ते हुए दिमाग कहाँ कहाँ भटक रहा है। एक पीड़ा निरंतर बनी हुई है। मेरा अपना घर नहीं होने की ।बहुत मन लगाने की कोशिश कर रही हूँ पर हर बार कुछ न कुछ ऐसा सामने आ जाता है कि यहाँ से मन उखड़ने लगता है ।भारी उधेड़बुन में हूँ । एक द्वंद्व लगातार मथ रहा है मुझे ।एक तरफ यथार्थ दूसरी ओर यूटोपिया। एक ओर कटु सत्य, दूसरी ओर अपने झिलमिल सपनों को पकड़ने की कोशिश। फिर मैं यह भी सोचने लगती हूं ।इन सब वजहों ने मुझे और भी अधिक मजबूत ही तो बना दिया है ।मुंबई में रहते हुए लग रहा था मेरे साथ किसी का होना जरूरी है। बीमार पड़ी तो कौन देखभाल करेगा। अब मैंने अपनी दुर्बलता के ऊपर काबू पा लिया है। मेरी स्मृतियों में वो लोग भी मौजूद हैं जिन्होंने मेरे लिए कुछ किया है और वह भी जिनके लिए मैंने कुछ करके लानत मलामत झेली है ।कृतज्ञता, आत्मपरीक्षण, स्वप्न ,जिरह और सोच की अभिव्यक्ति……. हमेशा यह सवाल मन की मिट्टी में  खुपे रहते हैं। जवाब खोज कर भी आज तक नहीं मिले।

पूना से डॉ शाकिर ने फोन पर बताया पूना कॉलेज ऑफ आर्ट्स साइंस व कॉमर्स महाराष्ट्र के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित एक दिवसीय संगोष्ठी में मुझे वक्ता और विषय प्रवर्तक के रूप में शिरकत करनी है ।विषय है “राष्ट्रीय एकता एवं सांप्रदायिक सद्भाव” कार्यक्रम 2 और 3 जनवरी 2017 को होगा ।सुकून भाटिया ने भी विश्व पुस्तक मेले में लौट आओ दीपशिखा के विमोचन की तारीख 13 जनवरी तय कर दी थी। और फरवरी में विश्व मैत्री मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन अहमदाबाद में होना तय हुआ था। लिहाजा काम ही काम ।जनवरी में ही भोपाल भी जाना था ।

बस से पूना 10:30 बजे पहुंचे ।बस अड्डे पर ही स्वागत में पुष्पगुच्छ लिए सादिक आए थे लेने ।नाश्ते के तुरंत बाद कार्यक्रम शुरु हो गया ।डॉ शाकिर ने शोध छात्रों के बीच मेरा संवाद भी रखा। हरे-भरे रंग बिरंगे फूलों वाले कॉलेज परिसर में ही मेरे रुकने की व्यवस्था थी। डिनर के लिए हम पुणे की रात्रि कालीन सुंदरता निहारते हुए चाइनीस रेस्तरां में गए।

पुणे यात्रा सुखद और रोचक रही ।नया साल लग गया ।जनवरी आ गई। इस बार मेरा सबसे व्यस्त महीना है जनवरी का ।लौट आओ दीपशिखा के विमोचन के निमंत्रण पत्र किताब वाले प्रकाशन की ओर से सबको भेजे गए। चित्रा मुदगल के हाथों विमोचन होगा। गिरीश पंकज ,महेश कटारे के सान्निध्य में संचालन वरिष्ठ पत्रकार राकेश पाठक करेंगे। इसी समारोह में मैं भारत भारद्वाज की किताब “मेरे पत्र” का लोकार्पण करूंगी ।

सर्दी गजब की पड़ रही थी ।मैं अकेली ही दिल्ली की ओर रवाना हुई ।

राकेश पाठक मुझे गाड़ी से लेने आए। विमोचन के एक दिन पहले यानी 12 जनवरी को मैं मेले में सबसे मिली। कई पुस्तकों का मेरे हाथों विमोचन हुआ। सुशीला शिवराण के दोहा संग्रह का विमोचन मेरे और रामेश्वर कांबोज, नंद भारद्वाज, विजय द्विवेदी तथा सुपरिचित कार्टूनिस्ट इरफान के हाथों हुआ।

साहित्यिक एप मातृभारती के संस्थापक महेंद्र शर्मा ने अपने स्टॉल पर मुझे सम्मानित किया ।मेरी रचनाओं के सर्वाधिक डाउनलोड होने के उपलक्ष में।मातृभारती लिखा हुआ बहुत खूबसूरत चाय का मग स्मृति चिन्ह के रूप में दिया ।

शाम को साहित्य मंच पर “महिला कलम से” काव्य गोष्ठी में मुझे गजल के लिए अलका अग्रवाल सिगतिया ने बुलाया। सारी कवयित्रियां मुंबई की ही थीं। मैंने सभी को कल होने वाले विमोचन समारोह में आमंत्रण के कार्ड दिए ।बहुत शानदार और भव्य आयोजन हुआ लौट आओ दीपशिखा के विमोचन का ।डॉ राकेश पाठक ने बेहद जीवंत और रोचक संचालन किया। चित्रा मुद्गल ,नीलम कुलश्रेष्ठ, गिरीश पंकज ,भारत भारद्वाज ,महेश कटारे तथा लखनऊ ,पुणे, नासिक, फरीदाबाद ,दिल्ली ,गाजियाबाद, देहरादून ,अंबाला से मेरे साहित्यकार मित्र सिर्फ इस कार्यक्रम के लिए आए। चित्रा जी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि “संतोष का जीवन दूसरों के लिए प्रेरणा है ।उसने नए लेखकों को प्रमोट करने का बीड़ा भी विश्व मैत्री मंच के द्वारा उठाया है। संतोष जिस दिन खुद पर किताब लिखेगी वह दिन उसकी पूर्णता का दिन होगा ।भावातिरेक  में मैं उनसे लिपट गई। सरस दरबारी ने कहा “संतोष दी एक घंटे बाद मेरी किताब का विमोचन है ।आपको याद है न कि आपको मेरी तारीफ करनी है।”

हम सब हंस पड़े। फिर भारत भारद्वाज के पत्रों की किताब का विमोचन किया। उन्हें सर्दी खाँसी ने जकड़ रखा था अतः वह तुरंत ही घर चले गए।

सरस दरबारी की किताब मेरे हिस्से की धूप का विमोचन काव्या सतत साहित्य यात्रा में हुआ ।विमोचन के बाद निवेदिता श्रीवास्तव के संचालन में मैंने जो गजल सुनाई उसे श्रोताओं का भरपूर प्रतिसाद मिला। मेले में घूमते लोग भी रुक कर एक एक शेर पर दाद देने लगे। जमघट लग गया श्रोताओं का ।सरस ने कहा “दी देख लो अपनी लोकप्रियता ।हमारी किताब को कोई पूछ ही नहीं रहा।”

कल औरंगाबाद लौट जाना है ।इसलिए अंधेरा होते तक मेले में सबसे मिलती-जुलती रही।

जब मैं पूना गई थी तो वहां मेरी मुलाकात शेख शहाबुद्दीन से हुई थी। जो औरंगाबाद के लोक सेवा कला व विज्ञान महाविद्यालय में प्रिंसिपल थे। उन्होंने मुझे एम ए के छात्रों के लिए आयोजित हिंदी साहित्य एवं ग़ज़ल के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित किया ।दिल्ली से डॉ गंगा प्रसाद विमल अध्यक्षता करने आ रहे थे। कार्यक्रम एक क्लास रूम में रखा गया। लगता था जैसे खानापूर्ति करने के लिए कार्यक्रम रखा गया है ।कॉलेज को इन सब चीजों की सरकारी ग्रांट मिलती है। जिसमें मुझे मुंबई का और विमल जी को दिल्ली का बताकर बजट पेश करेंगे ।कार्यक्रम के बाद लंच के लिए भी सिर्फ गंगा प्रसाद विमल को ले गए ।मुझे सूनी सड़क पर ऑटो के इंतजार में छोड़ गए। गाड़ी में लिफ्ट तक नहीं दी। मैं शेख शहाबुद्दीन के ऐसे व्यवहार से जितनी आहत थी उतनी ही विमल जी के व्यवहार से भी। कैसे उनके साथ वे अकेले लंच के लिए चले गए और मुझे क्यों अकेला सड़क पर छोड़ा। गंगा प्रसाद विमल जी से मेरा पुराना परिचय था। उन्हें हम हेमंत फाउंडेशन के पुरस्कार समारोह में मुख्य अतिथि के रुप में बुला चुके थे । दिल्ली में भी उनसे कई बार विश्व पुस्तक मेले में मुलाकात हुई।

फिर भी……..

बाद में मुझे कई बार शेख शहाबुद्दीन ने बुलाना चाहा पर मैंने मीठी इंकारी दे दी।


अब मन ऐसा हो गया है कि न परिस्थितियों को तवज्जो देती हूँ। न लोगों के व्यवहार से अपसेट होती हूँ। ये दोनों बिना मेरे रिएक्शन के बिल्कुल पावरलेस हैं, शक्तिहीन हैं ।

क्रमशः

लेखिका संतोष श्रीवास्तव

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