आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (42)

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मॉस्को से दिल्ली लौटे तो महानगर डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम के कारनामों के विरोध में हिंसा पर उतर आया था। दिल्ली के आसपास सिरसा हरियाणा तक आग पहुंची थी ।मुझे एटा में अपनी मौसेरी बहन गुड्डी ,(लेखिका निरूपमा वर्मा) को देखने जाना था ।मॉल की सीढ़ियों से फिसल जाने के कारण उसके कंधे में फ्रैक्चर हो गया था ।मैं दिल्ली से आगरा आई और वहाँ से टैक्सी से एटा। गुड्डी का दाहिना हाथ बेकार हो गया था और वह काफी तकलीफ से गुजर रही थी। उसका विशाल घर। घर के चारों तरफ फलों के दरख़्त ,फूलों की क्यारियाँ। समृद्धि कोने-कोने से झलक रही थी। लेकिन एक भुतहा सन्नाटा था वहाँ जिसमें गुड्डी और उसके पति अजनबियों  की तरह रहते थे। कहीं संतुष्टि नहीं ।सुबह लान में कुर्सियों पर हम चाय पी रहे थे ।

“जीजी कुछ सुनाओ।” गुड्डी के अनुरोध पर मैंने अपनी कविता सुनाई।

मैं तब भी नहीं 

समझ पाई थी तुम्हें 

जब सितारों भरी रात में 

डेक पर लेट कर 

अनंत आकाश की 

गहराइयों में डूबकर 

तुमने कहा था 

हां प्यार है मुझे तुमसे

समुद्र करीब ही गरजा था 

करीब ही उछली थी एक लहर 

बहुत करीब से 

एक तारा टूट कर हंसा था 

तब तुमने कहा था 

हां प्यार है मुझे तुमसे 

जब युद्ध के बुलावे पर 

जाते हुए तुम्हारे कदम 

रुके थे पलभर 

तुमने मेरे माथे को 

चूम कर कहा था 

इंतजार करना मेरा 

तुम्हारी जीप 

रात में धंसती चली गई 

एक लाल रोशनी लिये

मुझे लगा 

अनुराग के उस लाल रंग में 

सर्वांग मैं भी तो डूब चुकी हूं

हां मैं बताना चाहूंगी 

तुम्हारे लौटने पर 

कि तुम्हारी असीमित गहराई 

तुम्हारी ऊंचाईयों

को जानना

मेरी कूबत से परे है

मैंने तो तुम्हारी 

बंद खिड़की की दरार से 

तुम्हें एक नजर देखा भर है

और बस प्यार किया है 

वाह जीजी,अनुराग के लाल रंग को आपने खूब उकेरा है। जिसकी तुलना जीप की लालबत्ती से की है। प्रेम का यह अप्रतिम सौंदर्य जिसकी गहराई को नापा नहीं जा सकता जबकि उसका प्रवेश बंद खिड़की की संध से होता है। प्रेम की यह सूक्ष्मता कविता को नया अर्थ देती है। क्योंकि यह बचा ही रहता है। “उसने कहा था “के बोधा सिंह के प्रेम की तरह।

इतनी खूबसूरत समीक्षा ने मुझे निशब्द कर दिया। रिमझिम बारिश शुरू हो गई। हम बरामदे में आ गए । सन्नाटे तब भी तारी थे ।

दिल्ली लौटने पर पता चला प्रमिला के पति सत्येंद्र सीरियस हैं। जब हम रूस जा रहे थे तब भी उनकी तबीयत खराब थी और जांच में कैंसर निकला था । दिल के मरीज पहले से ही  थे। प्रमिला तुरंत प्लेन से औरंगाबाद रवाना हो गई। मुझे दो दिन बाद लौटना था। लेकिन मेरे लौटने के पहले ही सत्येंद्र की हार्टअटैक में मृत्यु की खबर आ गई।

फरीदाबाद लौटकर मैं प्रमिला का मन बहलाने के लिए वर्धा ले गई। प्रोफेसर दरवेश कठेरिया भी चाह रहे थे कि मैं वर्धा आ जाऊं। ताकि रूबरू बैठकर एविस का उनका जो किताबों के ऑडियो का प्रोजेक्ट है वह डिस्कस कर लें। वे मेरे सभी उपन्यास कहानियों का भी ऑडियो तैयार करा रहे थे।

वर्धा में कठेरिया जी के शोध छात्र हमें स्टेशन लेने आए और बाबा नागार्जुन अतिथि गृह में कमरा हमारे लिए अरेंज कर दिया। भोजन का समय हो गया था। नीचे ही डायनिंग रूम था ।खाना खाकर हमने आराम किया। तीन बजे कठेरिया जी और उनके शोध छात्र हमसे मिलने आए ।शाम तक अशोक मिश्र जी ,वीरपाल सिंह जी अपनी पत्नी सहित आए। वर्धा की काफी जानकारियां मिलीं ।हम डिनर तक साथ बैठे।

वर्धा का महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय लेखकों का गढ़ है। यह बात सुबह यूनिवर्सिटी जाते हुए अधिक स्पष्ट हुई ।विभूति नारायण राय जब यहाँ कुलपति थे तो उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान इसका स्वरूप निखार दिया। कदम कदम पर बाबा नागार्जुन, कामिल बुल्के, प्रेमचंद, टैगोर, निराला, पंत, शमशेर बहादुर सिंह जैसे लेखकों के नाम पर अतिथि गृह पुस्तकालय तथा विभाग हैं ।पुस्तक वार्ता के सह संपादक अमित कुमार विश्वास हमें स्वामी सहजानंद सरस्वती संग्रहालय ले गए ।जहाँ हिंदी के ठाठ देखते ही बनते हैं। मील का पत्थर कहलाने वाले लेखकों के वस्त्र, चप्पल ,चश्मा, पांडुलिपियाँ वहाँ करीने से मौजूद हैं ।मन खुश हो गया उस पुस्तकालय में।

त्रैमासिक पत्रिका बहुवचन के ऑफिस में बहुवचन के संपादक अशोक मिश्र से दोबारा मिलना हुआ ।छोटा सा ऑफिस एक मेज और उस पर कंप्यूटर ।जहाँ से हर 3 महीने में कभी दो सौ और अगर विशेषांक हुआ तो पौने तीन सौ पृष्ठों तक का बहुवचन निकलता है ।मनोज पांडे भी आए। वह हिन्दी समय वेब पोर्टल का काम देखते हैं। पुस्तक वार्ता का ऑफिस ऊपरी मंजिल पर था ।अमित जी ने तीन किताबें दीं कि 15 ,20 दिन में समीक्षा लिख भेजिए ।

“इतनी जल्दी कैसे?”

“अच्छा तो महीना भर ले लीजिए।” हमारी हँसी ऑफिस में गूंजने लगी।

शाम को हुस्न तबस्सुम निहा कमरे में मिलने आई और मुझे अपनी पुस्तक नीले पंखों वाली लड़कियां भेंट की। वे यहाँ हॉस्टल में रहती हैं और अपनी थीसिस लिख रही हैं ।डिनर के बाद कठेरिया जी आए ।

“सुबह 7:00 बजे हम लोग बापू की कुटी घूमने चलेंगे।”

सुबह हल्की हल्की बारिश हो रही थी फिर भी कठेरिया जी नियत समय पर आ गये। हम कठेरिया जी की गाड़ी से बापू की कुटी आए।  स्वतंत्रता संग्राम को वर्धा से चलाने के उद्देश्य से 30 अप्रैल 1936 को गांधीजी सेवाग्राम आए और ग्रामीणों के साथ रहते हुए 100 रूपयों में स्थानीय सामग्री का इस्तेमाल कर घर बनाने की अवधारणा रखी ।तभी बापू कुटी बनी। इस आश्रम में गांधीजी ने अपने जीवन के संध्या काल के 12 वर्ष बिताए ।

वर्धा शहर से 8 किलोमीटर दूरी पर 300 एकड़ की भूमि पर फैला यह आश्रम इतनी आत्मिक शांति देता है जिसको शब्दों में पिरोना मुमकिन नहीं। यहाँ बापू ने कई रणनीतियाँ बनाईं ।कईयों से मिले और बहुतों को जीवन की नई दिशा दी। इस आश्रम को समझने में गांधीजी का व्यक्तित्व भी समझ आता है ।बापू की कुटी के हर कमरे का अपना इतिहास और कहानी है ।बापू की धरोहर घड़ी ,चश्मा कपड़े ,छड़ी ,साँप भगाने वाली लंबी छड़ी ,टाइपराइटर, पेन,टेलीफोन ,बर्तन, बाल्टीयाँ ,नहाने का टब ,मालिश की मेज़ ,पलंग आदि बहुत सावधानी से रखे गए हैं। बा की कुटी अलग है।

पुण्यधाम सेवाग्राम में जैविक खाद से सब्जियां उगाई जाती हैं। गौशाला भी है और भोजनालय में पूर्ण रुप से सात्विक भोजन पकाया जाता है।

विनोबा भावे आश्रम पहुंचने पर बारिश की फुहारें शुरू हो गई थी ।गांधी हिल पर गांधीजी का खूब बड़ा चश्मा रखा था ।कठेरिया जी ने हमें सभी दर्शनीय स्थल घुमाए।रात को वे अपना बैनर लेकर आए ।साथ में  विद्यार्थीगण । दीवार पर बैनर टांग कर उन्होंने चरखा और पोनी का प्रतीक चिन्ह देकर तथा सूत की माला पहनाकर विशेष सम्मान दिया ।वह क्षण अभूतपूर्व था ।एक तो वर्धा का शैक्षणिक माहौल। फिर बाबा नागार्जुन अतिथि गृह में 3 दिन का डेरा । खातिर सत्कार…….. 

सुबह प्रस्थान था ।कठेरिया जी अपने विद्यार्थी को भेजेंगे स्टेशन तक पहुंचाने।

वर्धा से लौटकर ढेरों प्रकाशित रचनाओं की पत्रिकाएं मेज पर थीं। कुछ वेब पत्रिकाओं के लिंक भी। वेब पत्रिका अंतरा शब्द शक्ति के सितंबर अंक में आसमानी आंखों का मौसम कहानी संग्रह की समीक्षा मुकेश दुबे ने की थी। कथा रस की मधुर फुहार शीर्षक था ।इस पुस्तक के ऑडियो पर ही कठेरिया जी काम कर रहे थे। पिट्सबर्ग से रेडियो प्लेबैक पर भी पूजा अनिल की बोलती कहानियां के अंतर्गत आवाज में “शहतूत पक गए” प्रसारित हुई थी। सामयिक सरस्वती के जुलाई सितंबर 2017 के अंक में डॉ रविंद्र कात्यायन द्वारा “मुझे जन्म दो माँ “की समीक्षा “कोख से कब्र तक स्त्री विमर्श के विभिन्न रूप “प्रकाशित  हुई थी ।किरण वार्ता में कंबोडिया वियतनाम का यात्रा संस्मरण छपा था। संपादक शैलेंद्र राकेश ने बताया कि इस अंक का लोकार्पण 5 अक्टूबर 2017 को किरण मंडल के 70वें कौमुदी महोत्सव के अवसर पर हुआ था। सुषमा मुनींद्र ने भी “लौट आओ दीपशिखा” की समीक्षा लिखकर नया ज्ञानोदय में भेजी थी वह अक्टूबर अंक में प्रकाशित हो गई थी।

कलम ने हमेशा साथ दिया है। तब भी जब मुंबई छोड़कर औरंगाबाद आई थी। अब भी जब यहाँ से “लाद चला है बंजारा। “

अपने आराध्य कृष्ण पर भरोसा है। वह जो करेंगे, जैसा चाहेंगे मेरे हित में नहीं तो अहित में भी नहीं होगा ।जानती हूँ सपने बुनती हुई सलाईयाँ बार-बार फंदा गिरा देती हैं ।सपने  उधड़ने लगते हैं ।पर सपने सलाई पर हैं तो सही ।इसी आस में तो जिंदगी चलती है ।

तो मैं अक्टूबर की आखिरी तारीखों में यानी 26 अक्टूबर को भोपाल शिफ्ट हो गई। औरंगाबाद में भी रुकने का कोई आग्रह न था ।पूरे 14 महीने की निष्क्रियता ……. जो उल्लास और जीवंतता मुंबई में थी वह औरंगाबाद में कपूर की तरह उड़ गई थी। जिंदगी ने जब भी करवट बदली है मुझे तेजी से एहसास कराया है कि बूंद भर पाने की कामना मुझसे बहुत कुछ ले लेती है।

क्रमशः

लेखिका संतोष श्रीवास्तव

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