कवयित्री: अपर्णा दीक्षित
तिलचट्टा
वो किताबों की अलमारी से निकलकर तेजी से रसोई घर की तरफ भाग गया
तिलचट्टा है सरकार, जब सब सोए तो जाग गया।
किताबे पेट कहां भरती, ये वो भी जानता है।
कागज़ की किताब और अनाज की बोरी के बीच के फर्क़ को पहचानता है।
तिलचट्टे गर्मी में रहा करते हैं रात्रिचर हैं उजाले से डरते हैं।
एक्का दुक्का दिखे तो कोई फर्क नहीं इनकी संख्या लोगों को परेशान करती है।
ये मार दिए जाते है जब समूह में होते हैं। कीड़े है साहब किसको रास आते हैं।
ऐसे तमाम तिलचट्टे रोज़ मारे जाते हैं।
किसी मैदान में, चौराहे पर, दुकान में, या फिर कॉलर पकड़कर घर से खींच लाए जाते है,
जुर्म सिर्फ इतना कि साला तिलचट्टा है, झूठे खाने पर नज़र रखता है।
बद्दसूरत कीड़ा है साहब किसी का दिल भी तो नहीं बहलाता
जब तक छुप रहते हैं बचे रहते हैं जब मांगते हैं अपने हिस्से की इंच भर ज़मीन और आसमान
भून डाले जाते है ज़हरीली दवाओं की बौछारों से, बहा दिए जाते हैं गंदी नालियों में…
ये दर-दर की ठोकरे नहीं खाते, इनकी मौत निश्चित है
ये ख़ुद नहीं मरते हमेशा मारे जाते हैं।
कीड़ें है साहब बेवज़ह आते हैं चले जाते हैं।
ये न नहीं कहते, बहस नहीं करते, अपना हक़ नहीं मांगते
बस रेंगते हैं उनके ज़हनों पर जिनके घर की नाली के मुंह पर ये खाना ढूंढने जाते हैं।
ये अपने बचाव में सिर्फ भाग सकते हैं। वो भी रसोई की नाली से आटे की बोरी की तरफ
क्या करे कीड़े तो है सरकार पर भूख भी तो लगती है।
तिलचट्टे अब बेशर्म हो चुके हैं। बढ़ रहे हैं। मारना मुश्किल हो रहा है।
अब इन्हें इनकी मजहब,जाति और लिंग पूछ कर मारा जाएगा।
इनकी पहचान इनकों मारने का तरीका तय करेगी ।
इन्हें एक गहरी समझ के तहत बाकी साथियों से अलग कर रसोई घर से बाहर घर के अहाते में मारा जाएगा।
इन लाशों को नालियों में बहाने की रवायत अब पुरानी हो चुकी है। इन्हें मार के घर के बाहर वाले पेड़ पर लटकाया जाएगा।
सबक लेंगे इन लाशों से दूसरे तिलचट्टे अब उन्हें खुदख़शी के लिए उकसाया जाएगा।
इन सबके बीच एक कीड़ा जो नाली और बोरी के बीच कहीं रह गया
आसमान की तरफ पैर फैलाए उल्टा तड़प रहा है।
वो सासे गिन रहा है, कांप रहा है, फड़फड़ा रहा है।
यकीन मानों जब वो पलटेगा, उसके पंख सुर्ख लाल हो चुके होंगे।
उसकी आंखों में सम्मान की भूख होगी। उसकी टांगे सीधी-तनी हुई होगी।
साथियों की मौत के दर्द से वो कराह रहा होगा। उसकी जीवन प्रत्याशा के सामने तुम्हारा डर बौना रह जाएगा।
मुझे अफसोस है साहब उस दिन एक तिलचट्टा तुम पर पहला वार करेगा।
जेब
बारह की उम्र तक वो भी जेब वाली कमीज़े पहनती थी
वो कहती थी कि उसे कमीज़े पसंद ही इसलिए हैं, क्योंकि उनमें जेब होती है।
जेब में छुपाती थी वो कुछ स्टीकर्स, टैटू, प्लास्टिक की सीटियां और अठन्नी-चवन्नी
छोटे भाई की तरह उसकी स्कूल शर्ट की जेब भी कई बार कलम से नीली हो जाया करती थी।
स्पोर्ट्स क्लास में जेब से चूइंगगम निकाल कर खाते थे दोंनो।
सर्दियों में अचानक ये जेबे एक से पांच हो जाया करती थी।
फिर आठवीं में आते ही जैसे बहुत कुछ बदल गया।
अब वो सलवार कमीज़ पहनती थी दुपट्टे के साथ पर जेब अब नहीं थी उसके पास।
इस बहाने उन चीजों से भी दूरियां बन गई जो जेब में रहा करती थीं।
दूर हो गई चीजें छुपा लेने की फितरत
जेब में हाथ डालने और निकालने की अदा खत्म हो गई
खत्म हो गया जेब का एहसास
और बहुत से ज़ज्बात
जेब उसके लिए सहेली की तरह थी, जो छुपा लेती थी उसकी शैतानियां, अनकहे किस्से, गीले रुमाल और बेचैन सवाल…
आज वही जेब बचपन के तमाम हादसों, किस्सों और जज़्बातों की तरह पुरानी संदूक में कैद कर दी गई
भाई के पास जेब अब भी थी विरासत की तरह
सोलह की उम्र में वो अपने खीसे में लव लेटर्स और गुलाब के फूल रखा करता था, या पापा के स्कूटर की चाभी, वो भी चुरा कर
चुरा लेने की ये ललक उसमे में भी थी,
पर छुपा लेने के लिए, जेब कहां थी।
वो अब अठारह की थी और भाई की ये तमाम जेब वाली प्रापर्टी देखकर ललचाती थी।
कसम से, 32 की उम्र में भी जेब बहुत याद आती है उसे।
जब वो अपने साथ छुपा कर रखना चाहती है कुछ नर्म जज़्बात, अनकही बात, एक पुरानी तस्वीर, थोड़ा सा गुस्सा, बहुत सारा प्यार, सैनीटरी नैपकिन, छोटी सी ऑलपिन।
फिर सोचती है ठहर कर
देखते-देखते उसकी वो जेब जिसमें डाले थे कभी पुराने कंचे, पत्थर के गुट्टे, माचिस की तीली, गीली हथेली, छुट्टे पैसे, चूरन की पुड़ियां, छोटी सी गुड़ियां कहां खो गई।
शायद अम्मा ठीक ही कहती हैं, जेब कब की भाई और तू आई हो गई।
अभी जिंदा हूं मैं
उठ खड़े होंगे ये सारे मज़दूर एक दिन, लाल पसीने से लथपथ, अटल और अविच्छिन
छीन लेंगे तुमसे अपना और अपने पुर्खो का हिस्सा।
घेर लेंगे ये तुम्हारी ऊंची इमारतें जिनकी नींव में तुमनें इनकी चीखे दबाई थी।
बच नहीं पाओंगे तुम, तुम्हें इनके साथ मिलकर ये इमारतें गिरानी होंगी।
और बसानी होगीं एक नई बस्ती
जहां होंगे कुछ हरे पेड़, मोहल्ले का स्कूल और सरकारी दवाखाना।
मैं जिंदा हूं क्योंकि मुझे उम्मीद है कि इमारतों की मलबे पर एक रोज इंसानी बस्ती बनेगी।
तुम्हारें मुंह पे कालिख पोत देंगे वो जिन्हें तुम नीच कहते हो, दबोच लेंगे वो तुम्हारे सवर्ण इरादे, और सफेद सोच,
तुम्हारा कॉलर पकड़कर पूछेंगे वो तुमसे बेहद जातिवादी सवाल,
तुम कैसे सामना करोगे, उस प्रचंड क्रोध का
उस वक्त तुम्हारी आंखों में रत्ती भर शर्म देखने की उम्मीद में मैं जिंदा हूं।
स्कूलों के बाहर से गुजरते बच्चे जो भूखी आंखों से स्कूल की दीवारे तकते हैं।
एक दिन ये दीवारें तोड़कर तुम्हारों स्कूलों में घुस आएंगे।
देखना, ये अपनी रंगबिरंगी कपड़ों से तुम्हारी यूनीफार्म को कैसे मुहं चिढ़ाएंगे
वो बदला हुआ स्कूल और थोड़े अल्हड़ उसूल देखने के इंतजार में ही तो मैं जिंदा हूं।
हर रोज अपने जीने, खाने, पढ़ने, गाने, किस्से सुनाने और खुद बचाने की जद्दोंजहद में जुटी वो लड़कियां किसी रोज तुम पर हमला बोल देंगी।
तुम्हे शायद अंदाजा नहीं, वो एक दिन बदल देंगी तुम्हारी सभ्यता और उसका इतिहास
बदल देंगी तुम्हारा मर्दवादी एहसास,
उस बदलती सदी का इतिहास लिखने की फिराक़ में मैं जिंदा हूं।
वो दिन अब दूर नहीं,
जब तुम्हारी तोपे और बंदूकें अपने किए पर पछताएंगी।
जो कारतूस तुमने जमीनों में बोएं है वो सड़ जाएंगे
जिन नन्हीं हथेलियों को जंजीरों में बांधकर लाए थे तुम यहां
उनके हाथों में कुछ फूल भी थे, जो गिर गए थे तुम्हारी जमीनों पर
देखना वो यहीं कहीं एक दिन उग आएंगे।
तुम्हारे जंग के मैदान एक रोज ख़ूबसूरत बागों में तब्दील हो जाएंगे।
तुम्हारी नफरत की जमीनों पर जबरन खिल आए उन मासूम फूलों को अपने हाथों से छूने के लिए ही तो मैं अब तक जिंदा हूं।
यकीन मानों, जब तक ये सब हो नहीं जाता मैं जिंदा हूं।
बदनाम
मेरा एक काम करोगे
मुझे बदनाम करोगे
जैसे उजले दिनों ने, रुह तक गहरी अंधेरी रातों को बदनाम किया है।
रंगीन चिड़ियों की आवाज़ ने जैसे हर सुबह झींगुरों के स्वर को दफनाया है।
फूलों ने जिस तरह चुपचाप कांटों को गरियाया है
व्लादिमीर ने लोलिता को जैसे सिर्फ बदन बताया है।
क्या तुम भी मेरे लिए ऐसा कुछ करोगे
मेरा एक काम करोगे
मुझे बदनाम करोगे
जैसे बारिश की बौछार कोसती है गर्मी की उमस को
उछल-उछल कर देती है उल्हाना उसके वजूद को
घंटो बरस के भी नहीं पसीजती उसके लिए
जिसने न जाने कितने ही जिस्मों, दीवारों और गलियों से रिस रिस के मिलन के वादे किए
या कालिख पोतना तुम मेरे किरदार पर बिल्कुल वैसे ही जैसे दीवार के आरे में रखे दिए ने उसके जिस्म पे मल दी।
मेरा ये काम करोगे न
मुझे बदनाम करोगे न
मैं चाहती हूं तुम अपने उदास दिनों की कविता का विषय मुझे बनाओ
बेवफा, बदचलन, बेहिस लिखों और मुस्कुराकर निकल जाओं
मुझे पता है तुम उसमें मेरा नाम नहीं लिखोगे
लेकिन मैं चाहती हूं कि तुम लिखों
नाम और पहचान दोनों
ताकि खौफ खाए मुझसे वो सब जिनके आंखों में मेरे लिए इश्क है, इज्जत है।
क्या तुम उन्हें मेरे चंगुल से आज़ाद करोगे
उनके लिए मेरा ये काम कर दो
मुझे बदनाम कर दो।
जैसे ताकती है दोपहरी, शाम की तरफ
बादल किसान की तरफ
धरती आसमान की तरफ
मुर्दा शमशान की तरफ
मैं तकती हूं तुम्हारी तरफ, तुम कब मेरा ये अरमान पूरा करोगे
तुम कब ख़ुद को भरोसा मुझे पाखंड लिखोगे
मेरा किरदार को कब दागदार करोगे
तुम्हें तो पता ही है मेरी औक़ात एक औरत से ज्यादा कुछ नहीं
तुम कब मुझे एक चालाक, शातिर, रणनीतिकार इंसान के तौर पर मशहूर करोगे
अब बता भी तो, ये काम कब होगा।
मेरा नाम बदनाम कब होगा।