कवयित्री: चंदा प्रहलादका
आओ मिलकर दीप जलाये
सघन तिमिर के बादल आये,
घनघोर काली घटा छाये,
झिलमिल तारों की किरणों से,
इंद्रधनुष सा रंग बिखरायें।
आओ मिलकर दीप जलाये ।
मंथन, चिंतन की बाती लेकर,
तेल ज्ञान ,विवेक का भरकर
संयम धीरज की लौ लगायें,
कलुषित विचार शुभ्र हो जाये।
आओ मिलकर दीप जलाये ।
संकल्प दृढ़ हो उज्ज्वल जीवन,
मानवता की ज्योति जला ले,
निराश मन परिणत हो जाये,
आशा की मशाल ले आये।
आओ मिलकर दीप जलाये ।
अमर चाँद की सघन चाँदनी ,
आलोकित नभ धरा तरंगित,
निस्पन्दन तम त्राण मिटाये ,
यामिनी ज्योतित हो जाये ।
आओ मिलकर दीप जलाये ।
दीप रागिनी क्षितिज अलंकृत,
करूण प्रेम चिर सुधि विभूषित,
सहिष्णुता श्वास बन जाये ,
विजय घोष ध्वनि गूंज सुनाये।
आओ मिलकर दीप जलाये ।
अंक असंख्य विश्वास घनेरे ,
सशक्त जहां विकास बहुतेरे,
रवि उजास अनवरत जगाये,
आवाहन मिल करें करायें।
आओ मिलकर दीप जलाये ।
संस्कृति की महान विभूतियाँ,
महावीर ,बुद्ध नानक व, ईसा,
अज्ञान धूमिल स्वर्ण सी निधियाँ,
सहेज उर सम्मान जताये।
आओ मिलकर दीप जलाये ।
काश ! तुम साथ होते
काश तुम साथ होते अलग बात थी,
झूम जाता गगन ,नाचती फिर जमीं ।
उलझने भरके दामन में चल दिये,
जो तुम संग नहीं अश्क बहते गये।
पास जन्नत हो , सजते जज़्बात भी ।
काश तुम साथ होते अलग बात थी ।
काश तुम साथ होते अलग बात थी।
बह गये ख़्वाब के शामियाने कई,
चाँद को ढूँढते हैं सितारे कई ।
सूखकर आस के फूल मुरझा गये,
दीप नयनों के सारे बुझते गये ।
पास जन्नत हो सजते जज़्बात भी ।
काश तुम साथ होते अलग बात थी ।
वेदना पलक से यूँ छलकती रही,
टूटे दर्पण में सज सँवरती रही ।
काश मिलते ना तुम तो ग़म क्या ख़ुशी,
अब सजा बन गई है चुभती हँसीं ।
पास जन्नत हो, सजते जज़्बात भी ।
काश तुम साथ होते अलग बात थी ।
कैसे नादान बन गुम तुम हो गये,
ढूँढती तुममें खुद को तुम खो गये।
सेज काँटों की मन को रहे साधते,
कदम दर कदम प्यार के वास्ते ।
पास जन्नत हो , सजते जज़्बात भी ।
काश तुम साथ होते अलग बात थी ।
बैठ आहों की चादर सिलती गयी,
बर्फ़ सी ज़िंदगी यूँ पिघलती गयी।
बाद मुद्दत के पहचान खुद से हुई ,
अपनी परछाई जब दगा दे गई ।
पास जन्नत हो , सजते जज़्बात भी ।
काश तुम साथ होते अलग बात थी ।
दर्पण
अपना अक्स दिखे ऐसा ही दर्पण मैं बन जाऊँ ,
गुण दोष सारे आँकूँ सब अर्पण मैं कर पाऊँ।
स्नेह-प्रेम की भाषा पढ़ लूँ,पथ पर नयन बिछाऊँ,
आत्म-सुधा रस को पीके दिल की धड़कन बन जाऊँ ।
फूलों से काँटे चुन फेंकूँ ,खिलता चमन सजाऊँ ।
भावों का तब वो प्रतिकूल,विसर्जन मैं कर पाऊँ ।
अपना अक्स दिखे ऐसा ही दर्पण मैं बन जाऊँ ।
भरे दृग के पानी की एक कथा सुनूँ बह जाऊँ ,
अनंत सागर के जल से कण-कण की प्यास बुझाऊँ।
ओस बूँद रजकण पर बरसूँ ,ताप सघन पी जाऊँ ,
बसे अंतर हीरक मोती ,समर्पण मैं कर जाऊँ,
अपना अक्स दिखे ऐसा ही दर्पण मैं बन जाऊँ ।
कोमल मधुमय गीतों की सुर ताल बनूँ हर्षाऊँ,
मूक विकल सुप्त अधरों की ख़ुशी बनके मुस्काऊँ,
जीवन प्राण सजग उजास आलोकित जग कर जाऊँ,
करुण उभरती घोर तिमिर छाया तर्पण कर जाऊँ ।
अपना अक्स दिखे ऐसा ही दर्पण मैं बन जाऊँ ।
कलियुग
कलियुग की एक कथा ही हमने लिख डाली
कलियुग कहने की होड़ हमने ही पाली
अपने मद में चूर खोल अपना ही खाता ,
निज की रोटी सेंके , दूजा नहीं है भाता ।
फ़ितरत ऐसी है सदा , करते मनमानी ,
संस्कारों की बात करें तो बेमानी ।
कोरे काग़ज़ में कालिख ही मल डाली।
कलियुग कहने की होड़ हमने ही पाली।
कोई मज़हब धर्म के नियम नहीं बांधते,
अपनी डफली अपना राग रहे अलापते ।
मानवता भी तिनके-तिनके बिखर रही है,
झूठ के दामन को पकड़ यूँ चहक रही है ।
धन हासिल हो कैसे सोच बदल डाली ।
कलियुग कहने की होड़ हमने ही पाली ।
क्या रिश्ता है इंसा से एक इंसा का,
रिश्ता जहाँ है वहाँ भी कोई रिश्ता ना ।
अपने बेगाने हो जाते दूर हो ख़ुशियाँ ,
स्वार्थ ही सर्वोपरि है मतलब की दुनिया ।
मुट्ठी में जो भी भरलो जायेंगे ख़ाली ।
कलियुग कहने की होड़ हमने ही पाली ।
अच्छे और बुरे की क्या है परिभाषा ,
स्नेह प्यार की समझे ना कोई भाषा ।
कमजोरों के सदा न कोई साथ चले ,
लाठी का है ज़ोर बाती हाथ मले।
लूट रहें हैं चमन की करते रखवाली ।
कलियुग कहने की होड़ हमने ही पाली ।
संत समागम में उलझे क्या धर्म सिखाता,
बसुदेव कुटुम्ब का उल्टा पाठ पढ़ाता ।
निज की सेवा अपना पेट ही पहले भरना,
कोई भूखा सोये तो हमको क्या करना ।
दिन भी होता काला ज्यूँ रातें हो काली।
कलियुग कहने की होड़ हमने ही पाली ।
सतयुग में भी अनाचार की कितनी गाथा,
सदाचार का जामा भी यूँ पहना जाता ।
हर युग में अवतार राम और कृष्ण हुये ,
सीता माता को हर युग में परखा जाता।
भ्रमित स्वप्न से क्यों जुड़ जाते बन ख्याली।
कलियुग कहने की होड़ हमने ही पाली ।
बहुत तमाशा देखा अब तो जागो तुम भी,
सच्चाई की डोर से गुथ जाओगे तुम भी ।
इंसा को इंसान बनाने वाला इंसा,
ख़ुदा है सबके साथ जानने वाला इंसा ।
सबको गले लगाओ बात क्या कह डाली,
सबकी जेब भरी , कोई जाये ना ख़ाली ।
फूल -फूल खिल उठे, झूमती हर डाली ,
स्वर्ग उतार लो धरती पर तुम ओ वनमाली,
स्वर्ग उतार लो धरती पर तुम ओ वनमाली।
ज़लज़ला
जल रहा विश्व का आशियाँ देखिये,
आग पहुँची कहाँ से कहाँ देखिये।
कोई ज़ुल्मों सितम ना कोई है ख़ता,
यहाँ ऐसा क़हर सज़लज़ला देखिये,
टूटकर सारे पत्ते धरा पर गिरे,
यूँ सारा चमन जल रहा देखिये।
हर वशिंदे यूँ दहशत में डूबे हुए ,
गुम होती गयी रंजोगम में हँसी,
बस वीरान गुलशन सिसकती जमीं ,
है परेशां मन पलकों में बस नमीं।
ये झुलसता सिसकता जहां देखिये,
आग पहुँची कहाँ से कहाँ देखिये ।
यहाँ दर्दे दिलों की दवा कुछ नहीं,
खो गये शून्य में राह तकते रहे,
उम्र सपनों की इतनी छोटी नहीं,
जो न हासिल था ज़र्रे उबलते रहे।
ज़िंदगी बन गई दास्ताँ देखिये,
आग पहुँची कहाँ से कहाँ देखिये ।
ये यात्रा जीवन की
ये यात्रा जीवन की एक खोज में परिणत है,
ख़्वाब नहीं हक़ीक़त की पहचान ही जन्नत है।
यथार्थ में जीने की तमन्ना की कोशिश ,
प्रात की उजली किरण श्वासों में बसे ख्वाहिश ।
मनमोहक सफ़र भाव के सूक्ष्म मर्म को जाने ,
दृष्टि की बात ,बदल गई तो असीम सुख माने ।
आनंद, भौतिक साधनों का मोहताज नहीं फिर,
शाश्वत सत्य जो कल था रहेगा आज वही फिर।
भीतर की खोज अनमोल मोती नज़र आयेंगे ,
बस बंद मुट्ठी में सारा अक्षय धन ही पायेंगे ।
जीवन देता है अवसर सहज श्रेष्ठ बनने का,
जीत लें हर पलों को ,साथ -साथ चलने का।
फूल काँटों से ऊपर उठे मन ,कर सामांज्यस,
सम भाव निहित ह्रदय ,नव चेतनता का रस ।
हर क्षण में परिवर्तित जग रहता अभिमान कहाँ
मिट्टी मिट्टी में मिले रहे नहीं गुमान यहाँ ।
हर इंसा में एक नूर, जुदा नहीं प्राण यहाँ ,
आडंबर से घिरे हुए, ढूँढ रहे भगवान कहाँ ।
ग़ज़ल
मुझे प्यार आये जताना नहीं है
करूँ क्या शिकायत बहाना नहीं है
गुज़ारे अभी इश्क़ में चंद रातें ,
कि मंजर खुदी का सुहाना नहीं है ।
विरह वेदना रूह बनके सताती ,
कभी साथ चलता ज़माना नहीं है ।
नफस में हँसी याद की नर्म लहरें ,
धुआँ बेख़ुदी का छुपाना नहीं है ।
जली आग दिल की,कि जज़्बात उलझे,
मुहब्बत ,शमा को ,बुझाना नहीं है ।
बहे नूर शाही ख़ुदा का निरन्तर ,
ख़ुशी ढूँढते हैं फसाना नहीं है ।
अल्फ़ाज़ मेरे जुबां से यूँ लिपटे ,
कि दिल अब किसी का दुखाना नहीं है ।
सनम ख़्वाब में प्रीत के नाज नखरे,
अश्कों को चंदा दिखाना नहीं है ।