ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई – कवि भारत भूषण अग्रवाल

0
भारत भूषन अग्रवाल

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौसौ बार रोई

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई 

बांह में है और कोई चाह में है और कोई

साँप के आलिंगनों में

मौन चन्दन तन पड़े हैं

सेज के सपनो भरे कुछ

फूल मुर्दों पर चढ़े हैं

ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई

देह में है और कोई, नेह में है और कोई

स्वप्न के शव पर खड़े हो

मांग भरती हैं प्रथाएं

कंगनों से तोड़ हीरा

खा रहीं कितनी व्यथाएं

ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई

सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई

जो समर्पण ही नहीं हैं

वे समर्पण भी हुए हैं

देह सब जूठी पड़ी है

प्राण फिर भी अनछुए हैं

ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई

हास में है और कोई, प्यास में है और कोई

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *