कहानी:नीली बिंदी-संतोष श्रीवास्तव

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neeli bindi

लेखिका : संतोष श्रीवास्तव

मेहमानों के लिए बड़ा खासा प्रबन्ध किया था गीतकार रवि कुमार ने।बंगले के सामने लचीली दूब के लॉन पर शामियाना तना था।पाँत की पाँत कुर्सियाँ लगीं थीं।शामियाने के मुहाने पर दो काउंटर थे।बाँयें काउंटर पर शराब का प्रबंध था, दांयें पर लेडीज़ ड्रिंक।लोग बधाई देते और डेढ़ इंच मुस्कान थोप कुर्सी पर बैठ जाते।
शामियाने के एक अँधेरे से कोने में उर्मि सारी चहल पहल से कटी सी खड़ी थी।सचमुच कटी या अजहद लिप्त….क्या कहे!!!
” दोस्त मेरा है….पति मेरा है….”.आवाज़ों के जंगल में उर्मि बौनी हो उठी है।मेरा?मेरा क्या है? क्या हो रवि तुम मेरे? आज तुम जो इतना सम्मान पा रहे हो, तुम्हें जो वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार मिला है उसमें क्या मेरा ज़रा भी हाथ नहीं? आँखें तो उस औरत पर टिकीं थीं जो ढेरों साज सिंगार किये, अपने गोल चेहरे पर चवन्नी बराबर सिन्दूर का टीका लगाये रवि की बगलगीर हो मेहमानों का स्वागत कर रही थी।वे बधाईयाँ, वे शब्द…..”बधाई हो भाभी जी……भई हमने तो कल रात ही रेडियो पर खुश खबरी सुन ली थी।” “मुबारक़ हो भाभी साहिबा ……अपने रवि ने तो हत्थ मार लिया, मैं केंदा दोस्त किसदा ये ….कोई मामूली बात है ये………
 तुम्हारे दायरे में क्या मेरी ज़रा भी जगह नहीं? पिछले दस वर्षों से मैंने तुम्हें सिर्फ़ दिया ही दिया है।लेकिन आज बदले में पाया क्या? ये अँधेरा कोना? ये गुमनाम आवर्त!!!!आज सारा श्रेय तो तुम लूटे ले रही हो बीना…..तुम जो रवि की पत्नी हो।
और उर्मि ने भारी आँखों से हाथ में थमी लिम्का की बोतल कोने में लुढ़का दी और धीमे क़दमों से चुपचाप बंगले के टेरेस पर आ गयी।अब नीचे का कुछ दीखता नहीं था।जो कुछ था शामियाने की छत के अंदर था।यहाँ तो बस बीच से सटा लहराता समंदर दीखता था जिसकी चलती लहरें बीच की रेत को क्षण क्षण में ढेरों चाँदी सौंप देती थीं।

 जब उर्मि बम्बई आयी थी तो यही समुद्र तट था और यहीं उसकी पहली मुलाक़ात रवि से हुई थी।कितने साल गुजर गए। कितने उतार चढ़ाव…..सुख दुख झेल गयी उर्मि, पर…वह दिन आज भी आँखों में ज्यों का त्यों अक्स है।
नारियल पियोगी उर्मि? जीजाजी बात सम्हालते से नज़र आये।” भाई ज़रा तीन नारियल तो देना हल्की मलाई वाले।”और बात की समाप्ति के साथ ही वे एकाएक खुश होकर ज़ोर ज़ोर से हाथ हिलाने लगे, ” रवि$$$$$$……अबे इधर।” उर्मि ने देखा समंदर के एकदम किनारे से, पतलून के भीगे पांयचे लिए लिपटी लिपटी चाल में एक सांवला सा लेकिन उम्दा व्यक्तित्व का युवक इसी ओर चला आ रहा था।
कहाँ यार।कहाँ हो आजकल??? कुछ ख़बर ही नहीं रहती तुम्हारी।”
वह मुस्कराकर आहिस्ते से बैठ गया।” नमस्ते भाभी जी” फिर उर्मि को देख चौंका।जीजाजी हँस पड़े।” साली साहिबा हैं हमारी।हिंदी लिटरेचर में एम ए ……नौकरी करना चाहतीं हैं।और उर्मि।ये हैं रवि कुमार।बहुत अच्छे गीत लिखते हैं।वैसे लेखिका तो हमारी साली साहिबा भी हैं।”
 उर्मि रेत पर बैठी है, ठंडी भुरभुरी रेत , मुठ्ठी में बाँध बाँध् छोड़ देती है, छोड़ते ही रेत बिखर जाती है। बाजू में जिया और बड़के जीजा जी हैं।किसी बात पर जिया ठहाका लगाकर हंस पड़ती हैं तो सामने खड़ा नारियल वाला चौंककर पीछे देखता है।
अच्छा, रवि की आँखों में चमक उठी और दूर दूर पूरा रेतीला तट चमक उठा। उर्मि कुछ लजा सी गयी।
“शायरा हैं भई” 
आँखें फिर चमकीं, उर्दू में लिखतीं हैं।
“उर्दू मिश्रित हिंदी में” उर्मि ने पहली बार मुंह खोला तो तालू की खुश्की में जीभ चिपक सी गयी।उसने नारियल का स्ट्रॉ बचाव की तरह होंठों में दबा लिया।
“कभी आओ घर तब सुनना इनकी ग़ज़लें” 
“और सुनूंगी भी, इतने बड़े गीतकार हैं आप” 
“अजी कहाँ” रवि ने एक लापरवाह सी मुस्कान उर्मि को सौंपी।” अभी तो स्ट्रगल कर रहे हैं।जबलपुर से चले थे फ़िल्मी गीतकार बनने का सपना लेकर।देंखें कितने कामयाब होते हैं”कहने के लहज़े से उर्मि आश्वस्त हुई थी।बड़ा अपनापन लगा था उसे।वह भी तो उज्ज्वल भविष्य का सपना लेकर आई थी यहां।आयी थी या पलायन किया था।पापा की जर्जर गृहस्थी से, मां की बीमार घुटन से, अपने छोटे बड़े आधा दर्ज़न भाई बहनों के चरमराते सपनों से।जिया की शादी में पापा बेतहाशा कर्ज़ों से लद् गये थे।हर महीने वे कर्ज़ किश्त दर किश्त चुकाते जाते।घर के सभी खर्चों में कटौती कर दी गयी।गुड्डन के जन्मते ही मां यूट्रस के कैंसर की शिकार हो गईं।मां के खाट पकड़ते ही पापा तो लड़खडाये ही, उर्मि भी निराश हो गयी।एम ए का आख़िरी साल था, जिया ने लिखा, ” एग्जाम देते ही यहां आ जाना, कहीं न कहीं लगा ही देंगे तुम्हें, पापा को भी सहारा होगा, तुम्हारा भी मन लग जायेगा।

” तो चला जाये अब?” 
पतलून की रेत झटकार जीजा जी उठ खड़े हुए, 
“तुम चर्नी रोड जाओगे न?” और बग़ैर इंतज़ार किये फौरन ही बोले, “हम लोग टैक्सी लिए लेते हैं, फिर सन्डे पक्का रहा।तुम तो चार पांच बजे ही आ जाना।आर्मी कैंटीन से रघु रम की बॉटल दे गया है।ज्यों की त्यों रखी है।”
रम के नाम से रवि का चेहरा खिल आया।उस खिलन में एक कशिश भरा आमंत्रण भी महसूस हुआ उर्मि को, ….कमीज़ के खुले बटन से झाँकते मुठ्ठी भर वे ताम्बई बाल…….फिर उर्मि से दोबारा उस ओर नहीं देखा गया।टैक्सी में बैठते ही आँखेँ सड़क के परली तरफ लगे साइन बोर्ड पर टिका दीं। 

लेकिन हर बार उर्मि उन नज़रों का आमंत्रण न झुठला पायी।बस समुद्र का किनारा होता …..कभी जिया होतीं, तो बैठने में दूरियां यक ब यक तय हो जातीं।और जब एकांत होता तो रवि के कंधे पर उर्मि का सर होता।रवि ने दौड़ धूप करके उर्मि को स्कूल में लेक्चररशिप दिलवा दी थी।और खुद भी जोर शोर से गीत लिखने में जुट गया था।

 चर्नी रोड पर तब वह चॉल में रहता था।कई बार उर्मि उसके साथ चॉल के कमरे में आयी थी।कमरे में धुंआई दीवाल पर टँगे पीले बल्ब की मरियल रौशनी में कितनी बार रवि ने उसे अपने गीत सुनाये थे।वह भी अक्सर अपनी छोटी सी नोटबुक से छिटपुट ग़ज़लें , शेर सुनाया करती।अक्सर इन तल्लीन क्षणों में रवि उसके कंधे पर चेहरा टिका फुसफुसा उठता, ” तुम मेरी प्रेरणा हो उर्मि……देखो तुम्हारे आते ही मेरे सूखे गीत कितने रसीले हो उठे हैं।”

 “सच”उर्मि ओर छोर से भर उठती।लगता रवि को पाते ही उसकी ज़िन्दगी मुखर हो उठी है।ठहरे पानी में मानों लहरें पैदा हो गईं हैं।मानो किनारों से टकराने की ताब आ गयी है उसमे।फिर एक दिन दोनों इस एकांत में बहक गये।होश आने पर उर्मि ने रवि को तृप्ति से सोते पाया, मानो एक मासूम बच्चा तृप्त हो सो रहा हो।लेकिन खुद पर?
खुद पर उर्मि को बड़ी ग्लानि हुयी।ये क्या हो गया।उसने रवि को झकझोर डाला, “रवि रवि”
 खुमार भरी आँखों से रवि ने उर्मि को ताका, वहां ग्लानि का दावानल धधक रहा था।” अभी चलो जिया के पास।उनसे मुझे मांग लो।अभी, इसी वक्त चलो।”

“उर्मि”,रवि ने उसे बाँहों में थाम लिया।“क्या हो गया तुम्हें? अरे शादी तो हम करेंगे ही।मुझे थोड़ा जम तो जाने दो।तुम्हें क्या इस चॉल में लाकर सड़ा दूं? बोलो? हुंह, ज़रा सी बात से परेशान हुई जा रही हो।”
उर्मि तड़प उठी, “ज़रा सी बात है? तुमने एकाएक ही मुझसे सारे अधिकार पा लिए।ये ज़रा सी बात है।”
रवि चटाई पर से उठा।गौर से उर्मि का चेहरा देखा, उठकर हरी काई लगे मटके से गिलास में पानी भरा, और उसकी ठोड़ी उठा, गिलास हौठो से लगा दिया।दूसरे हाथ से उसके बाल निहायत मासूमियत से सँवारते हुए कहने लगा, ” मुझ पर विश्वास करो, उर्मि।मैंने जो कुछ किया, पूरे होश में किया, मैं तुम्हें कभी धोखा नहीं दूंगा।”
और उर्मि ने मजबूर हो उसके सीने पर सर टिका दिया।
दो बरस बाद जीजा जी का चंडीगढ़ ट्रांसफर हो गया।जिया चाहतीं थीं, उर्मि भी साथ चले, पर नौकरी उर्मि को आड़ देकर बचा ले गयी।उर्मि एक पारसी परिवार के साथ बतौर पेइंग गैस्ट रहने लगी।
छोटे भाई गुड्डन ने आना चाहा, पर उसने मकान की समस्या लिख दी।मन में यह भी था कि गुड्डन के आते ही उसकी रत्ती रत्ती आज़ादी छिन जायेगी।पापा के पास खबरें पँहुच जाएँगी और वह एक लम्हा सुख को भी तरस जायेगी।रूपये वह हर महीने बराबर भेजती रही।त्योहारों पर घर जाती तो ढेरों चीज़ें ले जाती।
पापा को दिलासा देती कि थोड़े रूपये जुड़ जाएँ तो फिर माँ का बम्बई के कैंसर इंस्टिट्यूट में चैक अप करायेगी।एक दो बार मां ने अपनी कराह भरी आवाज़ में उससे ब्याह का पूछा था।कहा था, “सहारनपुर वाले वकील साहब का बेटा विलायत से ट्रेनिंग करके आ गया है।कहो तो…”.पर उसने इंकार कर दिया था, कारण कुछ नहीं , बस यों ही।
जिस दिन उर्मि का जन्म दिन था।उसी दिन रवि को पहली फिल्म मिली।फिल्म के दसों गीत रवि ने लिखे थे।उस रात जुहू बीच पर आधी रात तक रवि उर्मि के साथ भविष्य के सपने सँजोता रहा था।
“यह फिल्म मुझे तुम्हारी ही किस्मत से मिली है, लगता है, घूरे के दिन फिर गये।” 
“घूरे के” उर्मि खिलखिलाकर हंस पड़ी थी।
ऐ,इतना मत हंसो।देखो, लहरें घबरा के पीछे लौट गयीं।” रवि ने उसकी नाक दबा दी।और दोनों देर तक हंसते रहे थे।
उसके बाद जैसे दिनों को पर लग गए।वे पर जो छुओ तो बेहद मुलायम लगते हैं पर जिनकी छुअन देर तक जिस्म थर्राती रहती है।रवि कुमार ने जुहू में समंदर किनारे अपना बंगला बनवाया।बंगले में क़ीमती गलीचे बिछाए, गाड़ी खरीदी, और तमाम किस्म के गुलाबों और लचीली घास को पा, ज़मीन का वीरान टुकड़ा महक उठा।
उर्मि ने नौकरी छोड़ दी।और बतौर प्राइवेट सेक्रेटरी रवि के साथ रहने लगी।घर पर वह अब दोगुने पैसे भेजती।
उर्मि ने बंगला अपने ढंग से सजाया।पर्दे, फर्नीचर, कटलरी, सब उर्मि की पसन्द के, सनमाईका के डबल बैड पर नाइलोन की नीली गोल मसहरी भी उर्मि ने दर्ज़ी घर में बैठाकर सिलवाई।मसहरी में चारों तरफ रेशमी डोर थी, जिसे खींचो तो मसहरी मकड़ी के जाल की तरह सीलिंग पर तँग जाती थी।और छोडो तो गोल लहंगे सी पलँग को अपने में समेट लेती थी।यह रवि और उर्मि का कमरा था।दिन का कोई हिस्सा निश्चित नहीं था, जब भी रवि का मन होता, वह पलँग पर आँखें मूंदे लेट जाता।और उर्मि कागज़ क़लम ले उसकी गुनगुनाहट लिपिवद्ध करती रहती।तार इतने जुड़ चुके थे कि दूरियों का एहसास तक न होता।लेकिन न जाने क्यों रवि शादी की बात टाल जाता।”कर लेंगे।अग्नि के फेरे भर तो लगाने हैं।” उर्मि मन ही मन तड़प उठती। “तुम क्या जानो, उन फेरों की कीमत?आज मेरे पास सब कुछ है, ये बंगला, ऐशो आराम, तुम।पर वो मर्यादा, वो अधिकार तो नही है न जो एक पत्नी के होते हैं।रवि जब भी तुम्हारे दोस्त मुझ पर नज़रें डालते हैं लगता है जैसे मैं उन प्यासी नज़रों का एक सन्तुष्टि घूँट हूँ।काश रवि, तुम समझ पाते।”लेकिन प्रकट में वह होठ काटकर केवल इतना कह पायी , सिर्फ अग्नि के फेरों में ही बात क्यों अटकाये हो रवि तुम?”
अनियमित दिनचर्या, और बदपरहेजी।मुश्किल से मिली शोहरत के दीवानेपन ने रवि को बीमार कर दिया।खांसी और जोड़ों का दर्द लगता था स्थायी रूप ले रहा है।उर्मि ने खूब सेवा की।लेकिन नतीजा कुछ न निकला।आखिर घबराकर रवि के डैडी को तार करना पड़ा।वहां से ट्रंकॉल आया,
रवि की बाबत जानकारी ली गयी।तीसरे दिन पंहुंचने की सूचना दी गयी।उर्मि ने उमंग भरे स्वागत की तैयारी कर डाली।पर जिस दिन उनके आने का तय था, उसके एक रात पहले उर्मि को मां की मृत्यु की ख़बर मिली।बदहवास उर्मि सुबह की फ्लाइट से घर चली गयी।मां घर को एक डोर की तरह बांधे थी।डोर टूटते ही घर भी बिखर गया।मां की तेरहवीं के बाद जब जिया जाने लगीं, तो एक कोने में ले जाकर तो एक कोने में ले जाकर उर्मि को समझाया, देखो, उर्मि तुम समझदार हो।सहारनपुर वाले अब तक जवाब के इंतज़ार में हैं।तुम शादी कर लोगी तो गुड्डन, चुनिया को हम दोनों मिलकर पढ़ा लेंगे।भविष्य बन जायेगा उनका।पापा को तो तुम देख ही रही हो।किस कदर टूट चुके हैं।फिर निम्मो भी जबान हो चुकी है।उसके लिए तो लाइन क्लियर करो कम से कम।उर्मि ने सर झुकाकर सुना।मां के बाद अब जिया ही हैं।फिर भी।
“जिया तुम निम्मो की शादी कराओ।मेरी फिकर न करो।निम्मो की शादी में पाँच-दस हज़ार खर्च कर सकती हूँ।”
 जिया ने अवाक् हो सुना।कुछ सालों में ये संकोची लड़की कितनी ढीठ, कितनी अंजगान हो गयी है।रूपये का लालच न दो उर्मि।अपने को देखो।बाक़ी सबकी किस्मत में जो होगा, उसे कौन रोक सकता है।
 निहायत तनाव में, सबकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़, उर्मि बम्बई लौटी।लौट कर पाया, रवि को उसके डैडी आकर जबलपुर ले गए हैं।राम सिंह ने ही बताया, कि साहब कई बार पूछते थे कि घर में और कौन कौन रहता है।बार बार आपके बारे में तहकीकात करते थे।कहते थे कि घर तो ऐसे सजा है जैसे फैमिली वालों का होता है।
उर्मि मुस्कुराकर रह गयी।
उर्मि के लौटने के करीब बीस दिन बाद रवि बम्बई लौटा।शाम को वो लॉन में कुर्सी डाले समंदर का नज़ारा देख रही थी।मन में फिक्र भी थी कि इतने दिनों से रवि की कोई खबर नहीं आयी।ट्रंकॉल तो लगा ही सकता था।तभी गेट पर टैक्सी आकर रुकी।ठिठकी, देखा, रवि के उतरने के महावर रचे दो पैर, पायल और बिछुए पहने, मखमली चप्पलों में एक जोड़ी पैर भी उतर रहे हैं।

 “अरे तुम कब आयीं उर्मि??? राम सिंह सामान उतारो टैक्सी में से”

“”रवि”
उर्मि भौंचक थी।रवि बहुत नर्वस था।उर्मि से सामना होने की तो बिलकुल उम्मीद नहीं थी।कांपते हाथों से उसने साथ आई, औरत का हाथ पकड़ा, बीना, ये उर्मिला है।मेरी प्राइवेट सेकेट्री।भई, क्या करें, उर्मि, इतने आनन फानन में सब हुआ कि खबर तक देने की मोहलत नहीं मिली।”
उर्मि को लगा पूरी ज़मीन हिल उठी है।भूचाल है क्या? अरे गेट का सिरा भी तो नहीं दिखता….उफ़ रवि,….मुझसे सांस भी नहीं ली जा रही, दम घुट रहा है, कुछ अटक रहा है कुछ……
 जब उर्मि को होश आया तो उसने अपने आपको अस्पताल में पाया।प्राइवेट वार्ड में अकेले।सामने सिर्फ राम सिंह था।
मेमसाब अच्छी हैं न आप? साब अभी गये हैं, बोल के गये हैं, मेमसाब को होश आये तो फ़ोन कर देना, सहगल साब के ऑफिस में “
 उर्मि ने इशारे से पानी माँगा।गला तर हुआ तो अहसास हुआ, और सब तो खुश्क हो चुका है, “नहीं राम सिंह फ़ोन की क्या ज़रूरत है? अच्छी तो हूँ मैं।“
 राम सिंह जल्दी से थर्मस में से गर्म पानी निकाल कॉफी बनाने लगा, बताया,”मेम साब आप गेट पर ही बेहोश हो गईं थीं, उसी टैक्सी में आपको यहां लाये।हार्ट अटैक था आपको।”
“क्या वो भी आई थी?”
“कौन, मालकिन? नहीं, साब ने उन्हें अंदर बैठाकर कह दिया था, आपको अस्पताल पंहुंचाकर आते हैं।पहचान वाली हैं।कलीग है, जाना तो पड़ेगा ही।“
“सिर्फ पहचान वाली? ऐं? “उर्मि के हाथ लोहे के पलँग की पट्टी पर चुभ उठे थे।शाम को रवि आया।उर्मि को नर्स इंजेक्शन दे रही थी।कमर तक सफेद चादर ओढ़े वो खुद भी कफ़न हो चुकी थी।एक लाश, जिसका न कोई वजूद होता है न एहसास।
“अचानक तबियत बिगाड़ ली तुमने।उऊं” रवि ने हौले से उसके माथे पर हाथ रखा, तो उर्मि तड़प उठी, “यू चीटेड मी।क्यों….क्यों…..रवि…..क्यों आख़िर?????” और रवि के नाज़ुक से लखनवी कुर्ते का गला पकड़ वो झूल सी गयी।
 “अरे अरे, उर्मि, क्या करती हो?इतना सीवियर अटैक हो चुका है।उस पर ये एक्साइटमेंट , क्या मरना है, तुम्हें??”
“मार डालने में तुमने क्या कसर छोड़ी रवि?” 
उर्मि ने नफरत से दाँत पीसे , “चार सालों से तुम मुझसे शादी के झूठे वादे करते आये हो, मेरा मन, मेरा शरीर, एक पति की तरह भोगा तुमने।लेकिन मुझे क्या मिला?सिर्फ रखैल की पदवी ही?”कहते हुए उर्मि हाँफ उठी।थककर उसने तकिये में सर गड़ा लिया।और बेसाख्ता रोने लगी। रवि ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया, नन्ही बच्ची की तरह वो उसे मनाता रहा, पुचकारता रहा।
“ऐसा नहीं कहते उर्मि, तुम तो मेरा जीवन हो।मेरी प्रेरणा।तुम न होतीं तो मैं अधूरा ही रहता, मेरे गीत अधूरे थे।मेरी ज़िंदगी अधूरी थी।आज जो मैं हूँ, सिर्फ तुम्हारी बदौलत हूँ उर्मि।विश्वास करो।“
 सहानुभूति पा उर्मि पिघलने लगी, “अब मेरा क्या होगा रवि?कहाँ जाऊंगी मैं? तुम्हारे लिए सबसे लड़कर, सबको नाराज़ करके आयी हूँ मैं रवि।“
रवि ने उसके बाल मुठ्ठियों में दाब लिए।” तुम कहीं नहीं जाओगी उर्मि, तुम सिर्फ मेरी हो।मेरी रहोगी।बीना पत्नी बन सकती है, पर मेरी प्रेरणा नहीँ, मेरा हौसला नहीं।मैंने वर्सोवा में एक फ्लैट बुक कर दिया है तुम्हारे लिए।खूब बड़ा टैरेस है उसका, वहां तुम अपनी पसंद के सब गुलाब लगाना।अपने ढंग से सजाना उसे, और पगली रवि सिर्फ तुम्हारा है।मैं कहता था न अग्नि के फेरे कोई मान्यता नहीं रखते।“
रवि के वाक्यों से उर्मि अभिभूत हो उठी।होगी कोई मजबूरी।बीना से शादी करने की।वरना….और होंठों की सारी शिकायत पोंछ वो रवि के आलिंगन में समा गई।वक़्त के आगे उर्मि ने समर्पण कर दिया।और करती भी क्या? पापा के पास लौट नहीं सकती थी।सर्विस थी नहीं जो अपना और अपने घर का थोड़ा बहुत बोझ उठा पाती।और फिर, रवि से उसे बेइंतिहा प्यार भी तो था।

 वर्सोवा के फ्लैट में वो कई दिनों तक अपने को एडजस्ट नहीं कर पाई।बैड शीट बिछाती थी तो जुहू के बंगले की अपनी गोल मसहरी याद आ जाती।
 तसव्वर में बवंडर सा उठता।अब तो बिना रवि के साथ उसी मसहरी में सोती होगी, हँसती होगी।उस अधिकार से सब भोगती होगी, जिसे पाने को उर्मि अब तक तरस रही थी।उसका मन भारी हो उठता ।बंगले की एक एक चीज़ याद आती।कितने शौक़ से उसने गुदगुदे गलीचे खरीदे थे।वे चांदी की चम्मचें जिनके हैंडल पर फूल खुदे थे।बाथरूम के सर्फ के झाग जैसी टाइल्स, जिन पर खड़े हो तो लगता था, जैसे बेदिंग सोप घुले टब में खड़े हों। महीनों नर्सरी के चक्कर काट काट कर गुलाब की किस्में जुटाईं थीं।कैक्टस के गमले जुटाये थे।बीना तूफ़ान की तरह आयी और एक बारगी ही उसे, इस सबसे अलग कर दिया।कैसा अभिशाप है ये? कैसी नियति है ये, सोचते सोचते उसके दिमाग़ की नसें तड़क उठतीं थीं।
रवि के सभी दोस्त उर्मि से रवि के रिश्ते की बात जानते थे।जो पहले उसे सहज सुलभ समझते थे, अब वे भी सचेत हो गए थे।चूंकि वो शायरा थी।इतने बड़े गीतकार की इतनी घनिष्ठ सहयोगिनी थी, रूप रंग में तो माशाअल्लाह एकदम बेमिसाल थी, सो एक आदर भरा दायरा सा खिंचा था उसके और रवि के दोस्तों के दरम्यान।लेकिन बीना उसे बहुत गयी गुज़री समझती थी, जैसे सड़क की धूल हो, या उसके पति की ही ताब है जो उसे माथे पर सजाये बैठे हैं।यूं तो उर्मि ने पहले ही कुछ कयास लगा लिया था, क्योकि रवि के गीत इस साल काफी हिट हुए थे, फिल्म इंडस्ट्री में चर्चा गर्म थी कि इस साल तो रवि कुमार की चांदी है, रात जैसे ही उर्मि ने टीवी पर खबर देखि, सुनी, तुरन्त फ़ोन पर रवि को बधाई देने के बजाय खुद बंगले पर जाना तय किया, वॉर्डरॉब में से नीले रेशम की वो साड़ी निकाली जो रवि ने पहली फिल्म मिलने पर उसे उपहार में दी थी।माथे पर गीली बिंदी लगायी तो आईने में बीना का गुरूर भरा चेहरा तैरता नज़र आया।बिंदी हो तो सिन्दूर की, उसी में नारी की गरिमा है, मुस्कुराकर उसने कानों में कुंदन के झुमके पहने।और गुनगुनाते हुए फ्लैट की सीढ़ियां उतर वो सड़क पर आ गयी।बंगले पर पँहुची तो रवि को अपने शयन कक्ष में मद्धिम सा बल्ब जलाये विहस्की पीते पाया।बीना दोनों बच्चों , टीनू और सनी के साथ पार्क में टहलने गयी थी।उर्मि ने चुपके से रवि की आँखों पर अपनी हथेलियां रख दीं।
 पल भर में रवि हंस पड़ा, उर्मि हो ।उर्मि भी हंस पड़ी।मुबारक़ हो।बहुत बहुत मुबारक़ हो रवि।
कमरे के नीले आलोक में नील परी सी उर्मि।रवि अपने पर काबू न पा सका।हुलसकर उसे बाँहों में भर लिया।इसकी हकदार तुम हो रवि।तुम मेरी प्रेरणा।और डोर खींचते ही नाइलोन की गोल मसहरी ने दोनों को अपने में समेट लिया।
 एकाएक रवि के गीत की कडी माहौल को स्वप्निल सा एहसास देने लगी वह टैरेस तक आयी तो रवि की तन्द्रा टूटी।मुंडेर पर से झांक कर देखा, सब कुछ वैसा ही था, जैसा वो छोड़ कर गयी थी।वही निरन्तर आतीं कारें, शामयाने की भरतीं जतिन कुर्सियां, शराब और लिम्का से छलकते गिलास…..बस नहीं था तो उन दस नर्सों का ओर छोर, जो उसने रवि के साथ मिलकर जिए थे।भारी क़दमों से उतरकर, वो फिरसे शामियाने के उसी अँधेरे कोने में जा खड़ी हुई, जहां लिम्का की बोतल लुढ़की पड़ी थी।

बधाई देने वालों का ताँता अभी भी जारी था।बीना गर्व से कई कई बालिश्त ऊंची उठ गई थी।किसी ने रिकॉर्ड प्लेयर पर रवि के गीतों का रिकॉर्ड लगा दिया था।चार पांच पत्रकारों का समूह, हाथ में क़लम कागज़ और दो चार अदद फोटोग्राफर लिए रवि और बीना को घेरे खड़ा था, “रवि जी , आपके गीतों में इतने दर्द का राज़??कशिश की वजह?????”
 उर्मि को लगा, मानो एवज में रवि की आंखें, बावजूद अँधेरे के उस पर ही टिकी हैं।
 “कोई मिसाल है नहीँ, तेरे शबाब की…..
 इस गीत की खूबसूरती, हूबहू आपसे मिलती है, बीना जी, क्या आप, अपने को रवि जी की प्रेरणा पाती हैं??”
 बीना खिलखिलाकर हंस पड़ी, “ऑफकोर्स, पत्नी तो पति की मार्ग दर्शक होती ही है। “जलकर रह गयी उर्मि।अपने को इतना हीन, इतना गिरा हुआ, उसने कभी नहीं महसूसा, इस बीना ने तो उसके व्यक्तित्व, उसकी इमेज के रेशे रेशे कर डाले हैं।उसकी खिलखिलाहट देर तक डंक चुभोती रही।
मन हुआ, कहे, जब ये गीत लिखा गया था, तब तुम्हारा कहीं, अता पता भी नहीं था बीना जी।
 अचानक फोटोग्राफ खींचने की जद्दोजहद में फोटोग्राफर का कैमरा रवि के गिलास से टकरा गया, और उसका सिल्क का कुरता शराब की लकीर से सजे उठा।
 “ओहो, जल्दी, उतार दीजिये, सिल्क है, दाग़ पड़ जाएगा।“बीना ने हुकुम सा दिया।अपनी बेतकल्लुफी में प्रसिद्ध रवि ने, वहां खड़े खड़े कुरता उतार बीना के हाथों में थमा दिया।
 बीना ने आँखें तरेर रवि को देखा, कुछ इस अदा में कि, क्या करते हो, सबके सामने ही….और तुरन्त ही टीनू को पुकारा, “टीनू……डैडी का दूसरा कुरता तो दे जाओ बेटे।“खेल के मूड में उछलते हुए टीनू, शयन कक्ष से दूसरा कुरता उठा, हवा में लहराता लाया, और डैडी के हाथ में थमा, नौ दो ग्यारह…..
“ अरे, ये नीला दाग़ सा क्या है, दिखाइये ज़रा, हाथ में कुरता ले बीना ने देखा, कुर्ते के सीने पर एक नीली बिंदी चिपकी है।“
 “नीली बिंदी??ये तो उर…..”.कहते कहते बीना रुक गयी।सब जानते थे कि बीना बिंदी नहीं लगाती, सिन्दूर टीका लगाती है।तमाम भीड़ की आँखें कुर्ते पर की नीली बिंदी पर चिपकी थीं।मानो उसके माथे की, बड़ी सी सिन्दूरी बिंदी से इस नीली बिंदी का ताल मेल बैठा रहीं थीं।
 बीना का चेहरा बुझ गया।पिछले दो घण्टे से छायी, गर्व की चमक जाने कहाँ बिला गयी
 उर्मि उठी…..अंधेरे कोने से निकलकर , फोटोग्राफरों, पत्रकारों की भीड़ चीरती हुयी, वो बीना और रवि के सामने आ गयी।
 बीना के हाथ में थमे कुर्ते के सीने पर से उसने अपनी बिंदी उखाड़कर अपने सूने माथे पर सजा ली।
 अब वो आश्वस्त थी।अब तक वो टूटी डाल सी एक ओर पड़ी थी।अक्सर ऐसा होता है, जिसके लिए टूटी, वो कभी सम्हालने नहीं आता।लेकिन अचानक ही उसका टूटापन भीड़ की हज़ार आँखों ने जोड़ डाला
 अब वो थी, भीड़ थी और थी तमाम आँखों में अक्स, उसकी नीली बिंदी, जिसे मुकुट की तरह सजाये वो मलिका सी काउंटर तक आयी, बीयर से गिलास भरा, और रिकॉर्ड प्लेयर के पास स्टूल पर बैठे , नव युवक से बोली, रवि का गीत लगाओ………
 बदनाम सही, लेकिन गुमनाम नहीं हूँ मैं।

– लेखिका संतोष श्रीवास्तव

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