कहानी-वादी में घुलता नफ़रत का ज़हर-आरती पांड्या

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Arti Pandya Kahani Wadi mwin ghulta

वादी में घुलता नफ़रत का ज़हर

   लेखिका – आरती पांड्या

जब से पता चला था कि पतिदेव का तबादला श्रीनगर हो रहा है तो मेरी खुशी का ठिकाना  नहीं था क्योंकि बचपन से ही कश्मीर घूमने जाना मेरा सपना था जिसके पीछे शायद कश्मीरी होकर भी कभी वहाँ ना जा पाने की खीज थी l अपनी दादी से सुना था कि दादाजी और दादी पहले श्रीनगर में रहते थे और वहाँ उनका बहुत सुंदर घर था , ड्राई फ्रूट्स का बिज़नस था और बहुत से नाते रिश्तेदार भी वहाँ पर थे ,लेकिन जब मेरे पापा और दोनों बुआयें छोटे छोटे थे तभी दादाजी का खून हो गया या और दादी अपने तीनों बच्चों को लेकर अपने भाई के यहाँ दिल्ली आ गई थीं l फिर दादी ने एक कॉलेज में नौकरी कर के अपने बच्चों को पढ़ाया लिखाया और दिल्ली की ही होकर रह गईं l 90 के दशक में दादी के बहुत कहने पर मेरे पापा हम सब  को लेकर श्रीनगर आने के लिये राज़ी हुए पर उस समय वहाँ से कश्मीरी पंडितों को खदेड़े जाने के समाचार आने शुरू हो गए और पापा ने कश्मीर जाने का प्लान स्थगित कर दिया और उसके बाद भी कई बार मैंने अपने पापा से कश्मीर चलने की जिद करी थी लेकिन पापा को तो जैसे उस जगह के नाम से ही चिढ़ हो गई थी इसलिए हर साल  छुट्टियों में देश के दूसरे शहरों में घुमाने ले जाते थे पर हम लोग कश्मीर कभी नहीं जा सके l

       अब इतने सालों बाद मेरा कश्मीर घूमने का और दादाजी का घर देखने का सपना पूरा हो जाएगा क्योंकि अब तो कम से कम तीन साल तक श्रीनगर में ही रहना था l वहाँ पँहुच कर  कश्मीर का चप्पा चप्पा छान मारूँगी यह सोचते हुए मैंने घर का समान समेटना शुरू कर दिया था  l नवंबर के आखिरी हफ्ते में जब जम्मू रेलवे स्टेशन पर उतरे तो वहाँ की कड़कड़ाती ठंड में ढेर सारे ऊनी कपड़ों में भी ठिठुरते हुए मेरे दोनों बच्चे मुझसे चिपके पूछ रहे थे कि घर कब पँहुचेंगे ?

 उनको क्या पता था कि अभी तो बहुत लंबा सफर तय करना था l खैर बच्चों को मोटे कंबल में लपेट कर मैं तो प्लेटफ़ॉर्म की बेंच पर बैठ गई और मेरे पति कार्तिक अपना सामान और गाड़ी ईवीके से उतरवाने के गोरखधंधे में उलझ गए l दो घंटे बाद सामान एक ट्रक में डलवा कर हम लोग अपनी गाड़ी से श्रीनगर के लिये चल पड़े l जैसे ही बनिहाल के पास पँहुचे तो सड़क के दोनों तरफ बर्फ के ऊंचे ऊंचे ढेर और सड़क पर गाड़ियों और ट्रकों की लंबी कतार देख कर एक बार तो कश्मीर का चप्पा चप्पा घूमने की मेरी इच्छा मन के किसी गहरे कोने में जाकर दफन हो गई लेकिन फिर धीरे धीरे सरकते हुए हमारी गाड़ी खाली सड़क पर आगई और फिर तो बगैर कहीं रुके हम लोग शाम को अपने आर्मी मेस में पँहुच गए l मगर हमारे सामान की ट्रक का कुछ अता पता नहीं था l कार्तिक ने ट्रक के ड्राइवर को फोन किया तो उसने बताया कि रास्ते में एक जगह सड़क टूट गई है और आर्मी एंजिनीयर्स रेजमेन्ट के लोग सड़क की मरम्मत का काम कर रहे हैं l उम्मीद है कि  रात के 2-3 बजे तक ट्रक श्रीनगर पँहुच जाएगा l  सामान की ट्रक के बीच रास्ते में अटकने की  खबर सुन कर मेरे तो हाथ पैर ठंडे पड़ गए l ‘अगर चोरों ने ट्रक लूट लिया तो मेरी तो बरसों की जुटाई गृहस्थी  ही बर्बाद हो जाएगी l’ मैंने सोचा , तब  कार्तिक ने समझाया कि ऐसा कुछ नहीं होगा क्योंकि आर्मी के लोग मरम्मत का काम करवा रहे हैं इसलिए कोई आसपास आने की हिम्मत भी नहीं कर सकता है l बड़ी मुश्किल से कुछ घंटे गुज़रे और आखिर ब्रह्म मुहूर्त में हमारा सामान आर्मी मेस तक पँहुचा l  

  अगले दिन से घर ढूँढने की कवायद शुरू हुई ,क्योंकि श्रीनगर में सेना के अधिकारियों के लिए कहीं फौजी घरों की व्यवस्था नहीं थी, इस लिए किराये पर ही जगह ढूँढनी पड़ती है l हमारी किस्मत अच्छी थी कि मेस में ही हम लोगों की मुलाकत मेजर विरधी से हो गई जो कि श्रीनगर से अब पठान कोट पोस्टिंग पर जा रहे थे और राजबाग़ के जिस घर में वह अभी तक रह रहे थे वह खाली ही था l हमलोग फौरन राजबाग़ के लिए निकल लिए l घर बहुत सुंदर था और हमें बाजार से कोई फर्नीचर लेने की फिक्र भी नहीं करनी थी क्योंकि घर में सब कुछ उपलब्ध था l मकान मालिक बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे और हमारे बच्चों से तो थोड़ी देर में ही इतने आत्मीय हो गए कि श्रीमती त्रम्बू फौरन बोलीं “ आप अपना सामान अभी जाकर ले आइए बच्चों को मेरे पास छोड़ जाइए l “

  और इस तरह हमलोग त्रम्बू हाउस के नीचे वाले हिस्से में बस गए l त्रम्बू परिवार के लोग इतने सरल और प्रेमी थे कि हमें लगा ही नहीं कि हम अपने परिवार से दूर हैं l मेरे दोनों बच्चे दिनभर उनके घर में धमा चौकड़ी मचाते रहते थे और मिसिज त्रम्बू उनलोगों के नखरे उठाती रहती थीं l हमारे घर के आसपास सभी घर या तो सियासी लोगों के थे या फिर कालीन तथा मेवे के बड़े व्यापारियों के थे l  हमारे पड़ोस के सबसे आलीशान मकान में जनाब गुलाम मुहम्मद बट्ट नाम के एक सियासी नेता रहते थे l उनकी बेगम साहिबा के बारे में मेरे नौकर नजीरा ने बताया था कि बेगम बट्ट बहुत रोबीली महिला हैं l अपने घर में तो खैर कोई काम करती ही नहीं हैं क्योंकि तीन चार नौकर घर सम्हालने के लिये हैं लेकिन जब घर से बाहर भी जाती हैं  तो एक नौकर उनके साथ जरूर रहता है जो उनका चांदी का पान का डिब्बा , एक इत्र की शीशी और दो रुमाल एक ट्रे में लेकर चलता है l मन में उनको देखने की बहुत उत्सुकता थी और एक दिन जब वो श्रीमती त्रम्बू के घर आईं तब उनके जलवे अपनी आँखों से देखे l ढेर सारे सोने से लदी वो गोलमटोल मैदा  की लोई जैसी महिला मुझे बप्पी लाहिरी की जुड़वा बहन लग रही थी l खैर , थोड़ी बात चीत में ही पता चल गया कि बेगम साहिबा को अपने खाविंद के सियासी रुतबे से कहीं ज्यादा अपने रईस अब्बा हुज़ूर की ज़ाफ़रान और दौलत का गुमान है l उस दिन के बाद उनसे अधिक मिलना जुलना तो नहीं हुआ लेकिन जब भी कहीं मिलती थीं तो बड़े अपनेपन से बातें करते हुए अपने डिब्बे में से निकालकर एक पान यह कहते हुए खिलाती थीं “इस बीड़े में जो ज़ाफ़रान डाला है वह हमारे वालिद हुज़ूर के यहाँ का बेहतरीन ज़ाफ़रान है और इसकी खपत पाकिस्तान में बहुत ज्यादा है l आपके हिंदुस्तान में तो लोग इतना कीमती ज़ाफ़रान खरीदने की औकात ही नहीं रखते हैं l “ उनकी यह बात सुनते ही मेरे मुंह का जायका बिगड़ जाता था इसलिए बाद में तो मैंने उनका पान खान ही छोड़ दिया l पर हर महीने की चाँद की ग्यारहवीं तारीख को उनके यहाँ से केसर और बादाम में डूबा सूजी का हलवा जरूर आता था जिसके बदले में मैं भी उनकी कटोरी में कुछ ना कुछ बना कर भेज देती थी l

  श्रीनगर आए हुए 6-7 महीने हो गए थे l बच्चों के नाम स्कूल में लिखवा दिए थे इसलिए दोपहर के खाली समय में मैं शहर घूमने निकल जाती थी l मैंने गुपकार रोड स्थित अपने दादाजी का वह आलीशान बंगला भी देखा जहां मेरे पापा का बचपन बीता था l मन में कुछ दरक सा गया क्योंकि अपना होकर भी वह घर अब किसी और का था l उस दिन के बाद जब भी हम लोग घूमने के लिए उधर से गुजरते थे तब मैं कार्तिक और बच्चों को अपने दादाजी का घर जरूर दिखाती थी l

    शहर के अंदर तो काफी घूम फिर लिए लेकिन श्रीनगर से बाहर जाना अधिक नहीं हो पाता  था क्योंकि अक्सर ही यहाँ वहाँ छोटे मोटे फसाद होते रहते थे जिसकी वजह से कार्तिक कुछ तो अपनी यूनिट के प्रबंधों में व्यस्त हो जाते थे और ऐसे तनातनी के माहौल में परिवार को लेकर बाहर जाने से थोड़ा कतराते भी थे l कोई बात नहीं , अभी तो कश्मीर में तीन साल रहना है तब तक तो हालत ठीक हो ही जाएंगे , यह सोच कर मैं तसल्ली कर लेती थी l

   एक दिन हमारा नौकर नज़ीरा खबर लाया कि बट्ट साहब के घर में कोई परेशानी आ गई है जिस वजह से दो तीन दिनों से काफी लोग उनके यहाँ आ जा रहे हैं l एक पड़ौसी होने के नाते और उनके भेजे कीमती ज़ाफ़रानी हलुए का कर्ज चुकाने के इरादे से मैं फौरन उनके यहाँ हालचाल लेने पँहुच गई ,लेकिन जो बेगम बट्ट हमारे पँहुचते ही गले मिल कर बतियाना शुरू कर देती थीं आज बाहर निकल कर भी नहीं आईं बल्कि अपनी नौकरानी से कहलवा दिया कि उनकी तबीयत कुछ नासाज है लिहाजा अभी मिलना नहीं चाहती हैं l मुझे बुरा तो लगा लेकिन मैं वापिस अपने घर आगई l फिर अपनी मकान मालकिन से बट्ट परिवार का कष्ट जानने का प्रयास  किया लेकिन उन्होंने भी यह कह कर टाल दिया कि उनको भी इस बारे में कोई जानकारी नहीं है l मैं समझ गई कि कश्मीर में रहते हुए और कश्मीरी होते हुए भी मैं यहाँ विदेशी हूँ इसलिए कोई कश्मीरी एक हिन्दुस्तानी औरत को कुछ नहीं बताएगा l शाम को जब कार्तिक अपनी यूनिट से वापिस आये तो उन्होंने अपनी बात का जबरदस्त बम फोड़ते हुए बताया कि बट्ट साहब के बड़े साहबज़ादे को पुलिस ने किसी जिहादी गतिविधि में पकड़ कर जेल में डाल दिया है और बेटे की गिरफ़्तारी की वजह से बट्ट साहब की सियासी पोजीशन पर भी तलवार लटक गई है l

  मैंने फौरन कहा “ लेकिन उनका बेटा फरहान तो देखने में बड़ा शरीफ लगता है , अच्छे कॉलेज में पढ़ता है ,वह ऐसी गिरी हुई हरकत नहीं कर सकता है l किसी ने बेचारे को यूँही फंसा दिया होगा l “ मेरी तरफ एक गहरी नजर डालकर कार्तिक बोले “आज कल की नई पौध ऊपर से कुछ और अंदर कुछ और ही होती है l फरहान को  फँसाने की कोई बात ही नहीं है क्योंकि दो रोज़ पहले लालचौक में बच्चों के स्कूल की बस पर जो पथराव हुआ था जिसमें कई बच्चों को चोटें आईं थीं , उन पथराव करने वालों में एक फरहान भी था l जब उसकी और उसके साथियों की तलाशी ली गई तो उनलोगों के पास से काफी रुपये और पिस्तौलें भी बरामद हुई और उसने यह भी कुबूल किया है कि पिछले महीने ऊधमपुर के पास आर्मी की ट्रक के ऊपर जो हमला हुआ था उसमें भी वह शामिल था l समझ में नहीं आता हिना, कि हमारे देश के बच्चों को क्या हो गया है ? क्या इन कामों के लिये मिलने वाले पैसे का लालच ही इस खून खराबे की जड़ है या कच्चे मासूम दिलों में बोये जाने वाले नफरत के ज़हरीले बीज यह सब करवा रहे हैं l l हमारे बच्चे यह क्यों नहीं समझते हैं कि यह सब करवा कर पडौसी देश उनके साथ कोई दोस्ती या हमदर्दी का रिश्ता नहीं निभा रहा रहा है बल्कि अपना उल्लू सीधा कर रहा है ll “

   मैंने एक गहरी सांस लेकर जवाब दिया “ कार्तिक , आप शायद यह इसलिए कह रहे हैं क्योंकि आप एक फौजी हैं और अच्छी तरह से जानते हैं कि कश्मीर ना कोई अलग मुल्क है और ना ही किसी और मुल्क का हिस्सा है l हम हिंदुस्तानी हैं और यही हमारा मुल्क है लेकिन आजकल अपने कश्मीर की इन खूबसूरत वादियों में मुझे धीरे धीरे घुल रही नफरत का जायका मिलने लगा है l  कभी जब लाल चौक के बाज़ार में खरीदारी करने जाती हूँ तो घूमने आये हुए टूरिस्ट्स  के साथ वहां के दूकानदारों का बर्ताव देख कर हैरानी होती है l l अगर कोई पर्यटक किसी चीज़ का दाम कम करने को कहता है तो उसे सीधा जवाब मिलता है कि  “‘जाओ अपना मुलुक में जाकर खरीदो’ l” कई बार यह अल्फ़ाज़ कानों में पड़ चुके थे इसलिए एक दिन एक जनाब से पूछ ही लिया कि आने वाले ग्राहक भी तो उन्ही के मुल्क के हैं तो जवाब मिला “ ‘अम कश्मीरी है हिन्दोस्तानी नइ’ मैं उसे बताना चाहती थी कि मैं भी उसी के जैसी कश्मीरी हूँ लेकिन मेरी सोच उससे अलग है l मगर मैंने चुपचाप सामान खरीदा और घर आगई l “

  कार्तिक बोले “ तुमको उसे सच्चाई का आईना दिखाना चाहिये था हिना ! चुपचाप वापिस नहीं आना चाहिए था l ” l”” मेरे समझाने से जैसे वह समझ ही जाता l “ मैंने हंस कर जवाब दिया और बात आई गई हो गई लेकिन कश्मीर के हालात देखते हुए वहाँ की पोस्टिंग अब अखरने लगी थी क्योंकि हर समय एक डर सा दिल में रहता था l  जब तक बच्चे स्कूल से वापिस ना आजाये तब तक दिल की धड़कने तेज ही रहती थीं ऊपर से कार्तिक को तो आए दिन ऐसी जगहों पर ही जाना पड़ता था जहां आतंकवाद की लपटें उठ रही होती थीं l बचपन में सुना करते थे कि जब कलियुग अपने चारों चरण टेक कर खडा होता है तब दुनिया का आचार और व्यवहार बदल जाता है और सब लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं ll तब वो बातें कहानी जैसी लगती थीं लेकिन यह मालुम नहीं था कि अपने इसी जीवनकाल  में कलियुग के चारों चरण टिके हुए देख लेंगे ll  वाकई रोज़ के खूनखराबे देख सुन कर अब तो यही इच्छा होती है कि या तो हम सब लोग मिल कर इन मुट्ठी भर दानवों को ख़त्म कर दें या फिर हमारी ही आँखें मुंद जाएं ll सोचती थी कि डायनों और पिशाचों के भी कुछ कायदे क़ानून होते होंगे लेकिन आजकल के ये हत्यारे तो बच्चों को भी नहीं छोड़ते ,l उनके साथ अमानवीय हरकतें तो होती ही हैं और अब तो आतंकवादी उनको अपने जैसा ही बनाने लगे हैं l

 कश्मीर में बढ़ते तनाव और अपने पड़ोसी के ही घर में पल रहे आतंकवाद के बारे में सोच सोच कर मेरा दिमाग परेशान हो गया था l कुछ दिनों बाद जब बेगम बट्ट के यहाँ से एक बड़े बर्तन में जाफरानी हलवा आया तो मेरे चेहरे  की हैरानी देख कर उनकी नौकरानी ने बताया कि ‘फरहान साहब घर आगए हैं और इसी खुशी में बेगम साहिबा ने मीठा बांटा है l’ ऊपर से  दबाव पड़ने पर ये तो होना ही था लेकिन गलती करने के बाद ऐसे गुनहगारों को खुला छोड़ देना  समाज के लिये  कितना खतरनाक है यह ऊपर से दबाव डालने वाले हुक्मरान क्यों नहीं समझते हैं ?   कश्मीरियों के दिलों में क्यों यह बात बैठाई जा रही है कि ये लोग हिंदुस्तानी नहीं हैं l ठीक है आप खुद को हिन्दुस्तानी मत मानिए मगर हिन्दुस्तान का हिस्सा तो मानिए l l यहां के लोगों की रोज़ी रोटी का ज़रिया पर्यटन ही है लेकिन आतंकवाद के चलते वही खतम होता जा रहा है और इस बात का भी दोष हिंदुस्तान को ही दिया जा रहा है l l जब हमारी सेना ‘उनके कश्मीर’ की हिफाज़त करती है तो उन्हें ही पत्थर मारते हैं ll  लेकिन जैसा कि हर एक राज्य और शहर में देखा जाता है कि आम जनता इन झगड़ों में नहीं शामिल होती है वैसे ही कश्मीर में भी आम तौर पर लोग सीधे , सरल और गरीब हैं l  शायद गरीबी ही यहाँ की युवा पीढ़ी को देश विरोधी गतिविधियों की तरफ धकेल रही है l lधरती के स्वर्ग कश्मीर को जो भी लोग नफरत की आग में जला रहे हैं उनको समझना चाहिए कि झूठे प्रलोभनों में फंस कर वे लोग अपना ही सर्वनाश कर रहे हैं l

    श्रीनगर की कुछ कड़वी कुछ मीठी यादें बटोर कर अब हम लोग गुवाहाटी आ गए हैं और यहाँ के रंगों का आनंद ले रहे हैं लेकिन कश्मीर में बढ़ता आतंकवाद कई  बार चिंता में डाल देता है इसलिए नहीं कि  मैं भी कश्मीरी हूँ बल्कि इसलिए क्योंकि  भारतीय सेना की नौकरी ने सच्ची देशभक्ति का एहसास भर  दिया है और इसलिए देश के किसी भी हिस्से में पनपने वाला नासूर चिंता का विषय बन जाता है l      

लेखिका – आरती पांड्या

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