कहानी : षष्ठी – उषा रॉय

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उषा रॉय

                                 षष्ठी                 

             समझनी है जिन्दगी तो पीछे देखें अगर जीनी है जिन्दगी तो आगे  –     अज्ञात

              प्रिय ननद जी, आपका पत्र मिला। मैं सोच रही थी कि आप हमें भूल चुकी है। लेकिन मैं आपको कैसे भूल सकती हँू। मेरा आपका घनिष्ठ सम्बन्ध है। आप क्यों मान बैठी हैं कि औरत -औरत की दुश्मन होती हैं। आज मैं अपने बारे में आपको बताना चाहती हँू। और ये कहना चाहती हँू कि- परिस्थितियाँ तकलीफ का समुन्दर होती है। इसमें कोई शक नहीं। जब आप इसके गर्जन-तर्जन से बिना डरे किनारों पर पहुँचते हंै, तो पता चलता है कि हमारा अर्ध-विश्वास ही हमारा दुश्मन था। इसलिए मैं नहीं मानती कि औरत-औरत की दुश्मन होती है। अगर आपको कहना ही है तो परिस्थितियों को कह लीजिये, कम से कम हमारी पीढ़ियों को तो सही संदेश मिलेगा।

परिस्थितियाँ बद से बदतर होती जायें और हमारी तकदीरों के अक्षर भी स्याह अर्थ देने लगे तो समझ लीजिये खतरा व्यक्ति विशेष में नहीं बल्कि वातावरण में ही समाया हुआ है। यही हैं वे चुनौतियाँ जो दिखाई नहीं देती। और जब चुनौतियाँ सामने हों तो सँभल के कदम रखना होता है, और सँभल के बोलना होता है। कोई भी चीज अचानक नहीं होती है। यह कह देना कितनी नादानी है कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है और बस हाथ पर हाथ धरे बैठ जायें।

ननद जी आपने अँधेरे देखे हैं न। पता चलता है काला, पता चलता है नीला नहीं न बस कभी-कभी औरत की परिस्थितियाँ ऐसी ही होती हैं। और ऐसी ही होती है उसकी घबराहट। उसमें क्या आदमी क्या औरत सभी दुश्मन हो जाते हैं।

कितने प्यार से आपने मुझे पष्ठी भाभी कहा है। जानती हंै मैं कौन हँू , अपने माँ बाप की छठी औलाद। शायद मेरे माँ बाप ने मुझे एक संख्या की तरह ही देखा और रख दिया मेरा नाम पष्ठी। छठी संख्या तक आते-आते बच्चे कैसे पलते हैं, ननद जी। आप कैसे समझेंगी ? क्योंकि आप तो समझदार माँ बाप की पहली और आखिरी भाग्यवान संतान है। मेरी पाँच बड़ी बहनें। वहाँ चीजें बाँटी नहीं जाती, लूट ली जाती थीं। पूरा जंगल तंत्र। खूब लड़ाई-झगड़ा रोना-चिल्लाना, दिन भर धमा चैकड़ी। खेल भी पूरे जंगली। मैं सबसे छोटी थी और मुझे देखने के लिए मेरे माँ बाप को बिलकुल फुरसत नहीं थी। जिस बहन के मन में आता नहला देती, खिला देती और सुला देती।

‘‘षष्ठी इधर आओ। एक चीज है मुंह खोलो।’’ और मैं दौड़ते-दौड़ते पहुँचती थी। वे प्यार करती और प्यार से ही मुँह में थूक देती और सब की सब ठठा के हँस पड़ती। छिः कुत्ते बिल्ली भी ऐसे नहीं रहते होगें। वैसे भी मेरे होने का अर्थ क्या था। एक संख्या ही तो। मर जाती तो धरती पर कोई फर्क नहीं पड़ता। कभी-कभी मुझे अपने से घृणा होती।

पर कुछ तो है जो मैं हूँ। मुझे अपने होने को सार्थक करना चाहिए। शायद इसीलिए विधाता ने इतनी सोचने समझने की शक्ति दी है। परिस्थितियों पर गौर करने की बुद्धि दी है।

घर की हालत बयान से परे थी। बड़ी बहनों में गहनों-कपड़ों की लूट थी। उन्हें किसी चीज से संतोष नहीं था। मैं तो भूखी रहकर भी उनकी अतृप्ति देखती। मैं मेहमानों के सामने नहीं जाती थी क्योंकि मुझे लगता था कि उनके लिए भी मैं केवल एक संख्या हँू।

हम बहनों का भविष्य सारे मुहल्ले की चिन्ता का कारण था। पापा इतना ला देते थे कि हम अच्छे से खा लें ,पहन लें। पर दहेज कहाँ से लाते। बहनें नयी-नयी तिकड़म भिड़ाती रहती। उन्हें अपने भविष्य की बड़ी चिन्ता थी। उनकी योजनायें सुनकर तो मैं रजाई में मुँह डाल लेती। सारी बहनों की एक सी शक्ल सूरत, एक सी आँकाक्षायें और सबकी एक ही मंजिल। पाँच छह साल बीतते-बीतते सबने अपना-अपना घर पकड़ लिया। जो कभी लड़ भिड़ के आ भी जाती तो अम्मा उन्हें वापस पटक आती। जब तक अम्मा बोलती तब तक तो भारत रहता और जब बहनें भी बोलने लगती तो महाभारत शुरू हो जाता। पापा ने मौन साध लिया था। एक पान के खर्चे में अपने घर में शान्ति बनाये रखने में पूरी तरह कामयाब थे।

दुश्मन तो मैं अम्मा को भी कह दूँ। पर क्या कह पांऊगी। उनकी बहस का कोई अन्त नही। जबान इतनी तेज कि क्या बोल रही है कुछ पता नहीं। झूठ भी बोल देतीं। जरा सी बात को कहानी बना देती। कभी-कभी तो अपनी बात से मुकर भी जातीं। उनके लिए कमरे छोटे पड़ते, सो बाहर निकल जाती जब तक सड़क पर खडे़ होकर मुहल्ले वालों से दो चार घण्टे बातें न कर लें चैन नहीं मिलता। सभी बहनें अपने-अपने घरों में चली गयीं। अकेले रह गयी मैं। अम्मा के उल्टे सीधे विचार थे। चीखने-चिल्लाने का अन्दाज ही अलग था। इसलिए मैं और पापा और चुप होते गये। अम्मा पापा से कुछ नहीं पूछती जो मन में आता वही करती। कभी-कभी अम्मा गाँव जाती, राशन, फल अचार आदि ले आती। न कभी पापा जाते और न कभी हम लोग। अम्मा खुद ही कहती-

‘‘क्या करूँ मुझे ही सब देखना होता है। ये महारानियाँ तो एक दिन भी ना रह पायेंगी गाँव में। आज भी नौला से पानी भरने जाना होता है। घास काटना जरूरी ही है और वहाँ के रस्मोरिवाज बाप रे बाप।’’ पर उन्हें क्या सूझा कि एक बार गाँव गई तो मेरे लिए रिश्ता ही ले आयीं। उन्हें अपनी बुद्धि पर नाज था।

‘‘खूब जगह जमीन है। एक ही बेटा है अच्छा कमाता है। सास ससुर इतने सीधे मानों मुँह मंे जबान ही नहीं। और क्या चाहिये अपनी पष्ठी राज करेगी राज।’’ और अम्मा के फैसले को चुनौती देने वाला कोई नहीं था। कभी-कभी सोचती हूँ अच्छा हुआ भगवान ने अम्मा को कोई बेटा नहीं दिया। हमारी अम्मा भी उन सुविधा भोगी औरतों में से ही है। किसी भी तरह घर बैठे पैसा आये। ऐसे ही उपाय सोचती और करती।

‘‘सुन मेरी बावली बेटी। न जाने तुझ जैसी बेटियंा क्यों पैदा होती है जो अपनी सुन्दरता का इस्तेमाल करना भी नहीं जानती। सुन्दर होना अलग बात है और उसे बनाये रखना अलग बात। इसीलिए तो दो चार साल होते-होते लोग दूसरी औरतांे के चक्कर में आ जाते है । अच्छा सुन गाँव की आबोहवा बड़ी तीखी होती है, इसीलिए हाथों में दस्ताने और पैरों में मोजे डाले रहना। ये सारी चीजें देख ले, जो तुझे दे रही हँू। ऐसा न हो कि तेरी सास सब बाँट दे।’’

मैं अम्मा का मुँह देखती रह गयी। क्या कहँू ननदजी मेरे सपने ! मेरी इच्छायें ! मेरे अरमान ! क्या उनका कुछ भी महत्व नही है। बेसिर पैर की बातें भी कितनी घर कर जाती है। मैं इससे अछूती नहीं थी। पापा बहुत रोये थे। और पहली बार उन्हें परेशान होते देखा। मेरी ओर देखते ही उनकी आँख डबडबा जाती। अम्मा हद से ज्यादा व्यस्त।

मुझे लगता है अम्मा एक जंगल है। इस जंगल से एक बार छूट जाँऊ फिर मैं भी देखूूंगी दुनिया। पर मुझे नहीं पता कि-जंगल वह नहीं होता है जो देखने में भयानक लगता है। बल्कि जंगल वह होता है जहाँ आप मुसीबत में हों और कोई मदद करने वाला न हो। यही सब सोचती-सोचती अम्मा के गाँव होते-होते मैं अपने ससुराल पहुँच गयी।

गाँव को लेकर मेरे मन में विचार चल रहे थे पहाड़ों के सौन्दर्य भी मेरा दुख कम नहीं कर पा रहे थे। पहाड़ी नदियों का शोर मुझे अपने ही भीतर का शोर लगता। शहर की पढ़ी लिखी बहू को उतारने के लिए गाँव की बहुत सारी औरतें उमड़ आयी थी। मेरी सास सारे रस्म-रिवाज पूरे कर लेना चाहती थी। ये रीति रिवाज ही तो हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को बाँधे रखते है। ये उनके विचार थे। लाल पीली पिछौड़ पहने ,सिर से नाक तक सिन्दूर और नाक में बड़ी बड़ी नथ पहने औरतें जितने कौतूहल से मुझे देख रही थी उतनी ही कौतहल से मैं भी उन्हें देख रही थी। पति महोदय तो गाँठ खोलकर आगे बढ़ गये। बाकी रस्म मुझे करनी थी। पानी भरने की रस्म थी नौला भरना और घास काटना। मैंने हाथों में दस्ताने पहन रखे थे। दस्ताने पहनकर घास काटना….था ही अटपटा…गाँव की औरतें हँस रही थी मेरे ऊपर। तभी से मुझे लगने लगा था कि सास खुश नहीं हैं। हो सकता है कि उम्मीदों के महल टूट रहे हांे।

ननद जी अपने तो बाहर-बाहर रहकर पढ़ाई की फिर भी अपने गाँव को तो आप जानती ही हैं। मेरी सास कम बोलने वाली थी। वे न तो किसी की मदद करती और नही किसी की मदद लेती थी। शायद अपने दिमाग में उन्होंने अपनी बहू का एक  फ्रेम बना रखा था। लेकिन कड़वा सच यह था कि मैं उसमें फिट नहीं थी। परिवार में बात करने की आदत नहीं थी, सभी लोग अपने आप में गुम अपने में खोये हुए, कुछ गिने चुने ही काम ही सबके परिचय थे। मेरे पति की दिनचर्या में थोड़ा परिवर्तन हुआ। लेकिन स्वभाव जैसे का तैसा था। मैने तो शोर शराबा, हल्ला गुल्ला ही देखा था। इतनी खामोशी मैं नहीं सह पा रही थी। घर के कामों में पहला काम था, घास काटना, जानवरों को खिलाना, दूध दुहना, झाडू लगाना फिर अन्य काम। कुछ दिन तो सब ठीक-ठाक रहा। फिर सास के घुटनों का दर्द बढ़ गया। किसी प्रकार की दवाई मालिश की कोई बात नहीं, एक सुबह दरौंती पकड़ाई और सपाट स्वर में बोली-‘‘जंगल से घास लाना है।’’

दूर से ही दिख रहे थे घास के हरे मैदान… अकेले जाना था… घास काटकर लाना था। मैं गयी…मैंनें देखा सारी घासें जमीन पर लेटी पड़ी हैं। रात में बहुत बारिश हुई थी शायद इसीलिए। अब क्या करूँ… हे भगवान ! किधर से काटँू और कैसे… और मैं वापस आ गयी। सास ने मुझे खाली हाथ देखा। उन्हें यकीन नही हो रहा था कि मुझे घास काटना नही आता है इसीलिए मैं वापस आयी हूँ। उन्हें लग रहा था कि मैं पढ़ी लिखी हँू तो महारानी हूँ और घास काटना मेरी शान के खिलाफ है। हमारे बीच एक तनाव कायम हो गया। ससुर जी दूर से ही देख रहे थे। उन्हें भारी निराशा हुई। मेरे पति को किसी चीज से मतलब नहीं था।

ननद जी हमारे गुण भी तभी काम आते हैं न जब लड़ाई होती है या लड़ने का साहस होता है और लड़ाई भी तभी होती है जब शत्रु सामने होता है। लेकिन जब शत्रु पक्ष सामने नहीं हो तब आप अनचाही स्थिति में घिर जाते है। यही परिस्थिति होती है जो किसी शत्रु से कम नहीं। व्यक्ति अकेला होता है और उसे मदद की जरूरत होती है। व्यक्ति में अगर औरत हो तो उसकी लड़ाई और गहन हो जाती है। यह ठीक था कि मेरे और मेरी सास के स्वार्थ और अहं टकरा रहे थे। लेकिन मैं उन्हें अपना दुश्मन नहीं कह पा रही थी और रोये जा रही थी खाने पीने की सुध भूली। घर का चारा खत्म था। बारिश रोज होती। मैं घास काटने के लिए रोज जाती और वापस आ जाती। सास अपने घुटने के दर्द और मेरी विफलता से बहुत नाराज थी। सबने मुझे तकदीर के हाल पर छोड़ दिया। मैं षष्ठी फिर से आवंाछित बन गयी। लेकिन मैं अम्मा के जंगल में वापस नहीं जाना चाहती थी। बहुत सोचने पर भी मुझे कोई रास्ता नजर नहीं आया।

एक बात तो स्पष्ट है कि बना बनाया ढाँचा आपकी कोई मदद नहीं करता है। व्यवस्था तो सिर्फ अपने हित को देखती है। वह उसमें फिट न होने वाले आखिरी साँस लेते और ढेर होते व्यक्ति को देखना चाहती है। मेरे सामने एक ही उपाय था। स्वाभिमानी मन एक ही बात कह रहा था…घर छोड़ देने की। फिर जो होगा देखा जायेगा। पहाड़ों की रातें बड़ी सुन्दर होती है। तन मन को शीतल करने वाली मनोरम और बेहद शान्त। लेकिन मेरे मन मंे उथल पुथल मच रही थी। थोड़ी रात शेष रहे तभी घर छोड़ना उचित होगा… कोई न कोई सवारी मिल ही जायेगी। जो भी हो आज फैसला ले लूँगी। ऐसा जिन्दगी जीने से क्या लाभ ? जहाँ मन न लगे…. आपका अपना कोई न हो। मैनें जरुरी सामान लिया और घर से बाहर निकल गयी। मुझे रोना आ रहा था। देहरी लाँघते हुए मेरी रुलाई वैसे ही तेज हो गयी जैसे देर से रखी अर्थी उठती है तो थकी हुई रुलाई भी बँधी गाय की तरह रस्सी तुड़ा कर भागती है। उसी तरह मेरी रोने की आवाज अनजाने में गूँज उठी। घर के बाहर एक छोटे चबूतरे पर बैठ-माथा पकड़कर मैं रो रही थी। मैं रो लेना चाहती थी। क्योंकि एक बार चल देने पर वापस नहीं आऊँगी न ही कोई खबर करुँगी। यही सोच रखा था।

‘‘अरे तुम क्यों रो रही हो ?’’

मैं चैक उठी एक स्त्री काया मेरे कन्धे पर हाथ रखे मेरा माथा सहला रही थी। मैने आँखे फाडे़ उन्हें देखा। उन्होंने चुपचाप मेरा सामान उठाया, मुझे सहारा देकर मेरा सिर अपने कन्धे पर रखते हुए ले चलीं। ननद जी जानती हैं वे कौन थी ? वे आपकी माँ थी। हाँ चाची जी। उन्होने मेरा सामान अन्दर रखा और मुझे रसोईघर मे ले गयीं। आप सब सो रहे थे। एक पाटी पर वे बैठी और दूसरी पाटी पर मैं कुछ कहने लायक थी ही नहीं। चुपचाप उन्हें देखे जा रही थी। उन्होंने पानी का गिलास दिया और कहने लगी-‘‘मैं सब जानती हूँ तुम्हारी सास का स्वभाव और तुम्हारी नादानी। अच्छा बताओ शाम को खाना खाया था। नहीं न। भूख तो लगी होगी।’’

मैं सम्मोहित सी उनकी बड़ी-बड़ी आँखो में देखती रही। मैंने सिर हिला दिया। थोडी ही देर में उन्होंने थाली में कुछ खाने को दिया। ये क्या है… मैने उनकी ओर देखा। चाची जी ने कहा-‘‘देखो बेटा ये हलवा है, लेकिन पानी शायद ज्यादा पड़ गया। पतला हो गया है… घर में चम्मच… मैने सोचा… पहले तुम्हारी भूख के बारे में सोचा जाए। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। खा जाऊँ… भूख के बारे में तो सोचा ही नहीं, आज तक लगभग बेमन से ही खाती रही हँू। चाची जी में कितना ममत्व है… कितना आग्रह… पर ये गीला हलवा… मैं कभी उनका मुँह देख रही थी, कभी हलवा। पर जैसे-तैसे मैने खाना शुरू किया। थोड़ी देर के लिए मैं अपनी समस्यायें भूल चुकी थी। जैसे ही मैंने खाना खत्म किया। चाची जी मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहने लगी।

‘‘देखो बेटा। तुम्हें भूख थी। मैने हलवा कहाँ बिल्कुल लपसी बना दिया था। शायद तुमने कभी न खाया हो। भूख तुम्हारे भीतर थी और खाना तुम्हारे सामने, फिर यह प्रश्न ही बेकार है कि क्यों ये ऐसा है और हम इसे कैसे खाएँ। अगर समस्या है तो समाधान भी वहीं कहीं होगा। ढूँढो चाहे जैसे भी हो। जब तक समस्याओं को आँखंे गड़ाकर नहीं देखोगी समाधान नही आयेगा बस यही मूल मंत्र है। ऐसे ही काम को भी समझो। कार्यक्षेत्र है और तुम हो। बस जहाँ से मिले जैसे मिले वही से शुरू हो जाओ फिर देखो कैसे काम में सफलता मिलती है।

‘‘बेटा आदमी थकता है, यह तो सच है पर काम भी थकता है यह करके देखो। और इसी तरह परिस्थितियों को बदला जाता है।’’

मैं टुकुर-टुकुर उन्हें देख रही थी। यह कौन सी माँ है जो कर्मठ बनने की कला सिखा रही है।

ननद जी मैं तो धन्य हो गयी। अब सब कुछ समझ में आने लगा था। सारी चीजें साफ-साफ दिखाई देने लगी। अब भोर होने को थी। चाची जी मुझे अपने साथ खेत ले गयी, घास काटना सिखाया, इकट्ठा करना ,बोझा बाँधना और जानवरों से भी बचने के उपाय भी सिखाये। मैं घास का गट्ठर लेकर घर पहँुची सब सो रहे थे। मेरे पति भी। मैने सोचा-वास्तव में इस घर में सभी सोये हुए हैं। सोये हुए लोग संख्या होते हैं। षष्ठी आज एक संख्या नहीं बल्कि एक ताकत है जो कम से कम अपना और अपने घर की किस्मत बदल सकती है। चाहे लड़ाई महत्व की हो या हक की, हमें लड़ना ही होगा। चाची जी का दिया हुआ आशीर्वाद और सीख मेरे रोम-रोम में समाया हुआ है। इस पर सबसे ज्यादा अधिकार आपका है। चाची जी नहीं रहीं। मुझे दुःख है साथ ही जिम्मेदारी भी बढ़ी है। आपकी हिस्से की सम्पत्ति पर आप का हक है जिसे आपके चचेरे भाइयों ने कब्जा कर रखा है और उनकी बहुएँ आपको बुरा-भला कहती हैं। आपको बहुत परेशान किया है। तो वे अपने पतियों के कहने पर कर रही होंगी। आप अपनी लड़ाई लड़िये। मैं हमेशा आपके साथ हूँ। आप आइए । यह भी आप का ही घर है। और हाँ आपके चुप रहने वाले भाई भी आपसे बातें करना चाहते हैं और आपकी भतीजी भी।

शेष शुभ आपकी भाभी।

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