धारावाहिक उपन्यास भाग 13 : सुलगते ज्वालामुखी
धारावाहिक उपन्यास
सुलगते ज्वालामुखी
लेखिका – डॉ अर्चना प्रकाश
मुशीरा और वेदान्त की गृहस्थी भी सुखमय चल रही थी। चार वर्षों में पुत्र अनन्त व पुत्री चा°दनी को सासु मा° और सत्यशरण की गोदी में डाल कर वह इन दोनों की लाडली बन चुकी थी। वसीम खान और सत्यशरण समधी से अधिक दोस्त बन चुके थे। सभी लोग अब वेदान्त के साथ ही लखनऊ में रहने लगे थे। वेदान्त व मुशीरा जब अपनी नौकरी पर जाते तब अनन्त व चा°दनी दादा दादी के साथ ही रहते। जितनी धूम धाम से वे लोग होली दिवाली मनाते उतनी ही शान से ईद बकरीद भी मनाने लगे। बड़े भाई अफजल सभी त्यौहारों पर मुशीरा की ससुराल में फल मिठाई व पूरे परिवार के लिए उपहार लेकर आते।
शाम के पा°च बज रहे थे सीता देवी अनन्त व चा°दनी के साथ कैरम खेल रही थी और सत्यशरण को चाय की तलब लगी थी।
‘‘शाम हो गई है कुछ चाय वाय मिलेगी क्या, देख रहा हू° अब तुम रसोई में कम ही जाती हो।’’ सत्यशरण बोले।
‘‘क्या करे जब आपकी बहुरिया हमें काम में हाथ लगाने ही नहीं देती।’’ सीता देवी तपाक से बोली।
सत्यशरण मुस्करा उठे भई। ‘‘ये तो तुम पर ज्यादती है!
सुबह आफिस जाते समय हमको कसम रखा के गई है कि काम में हाथ न लगाना सिर्फ बच्चों को देखना।’’
‘‘अच्छा इसके माने बहू तुम पर हुकुम चलाती है?’’ सत्य शरण ने कहा।
सीता देवी ह°स पड़ी। ‘‘ये क्या आज हमी से तफरी ले रहे हों! तो
सुनो बहू सुबह शाम पूजाघर में दुर्गा और शिव की आरती करती है, सबको प्रसाद देती है और रसोई का सब काम खत्म करके आफिस जाती है।’’
‘‘तब तो हमारा बुढ़ापा संवर गया! अपनी बिरादरी की बहू लाते तो वह हमारी इतनी सेवा न करती’’ सत्यशरण बोले।
‘‘सो तो है होली दिवाली हमें इतनी मह°गी साड़ी व सामान देती है कि उसे देख कर पड़ोसियों की आ°खें फैल जाती हैं।’’ सीता देवी ने प्रत्युत्तर दिया।
‘‘ये देश और यहा° का समाज सोचो कितना विचित्र है? जहा° पर हिन्दू मुसलमान आपस में सदियों से विवाह करते चले आ रहे हैं। किन्तु ब्राह्माण व दलित न विवाह करते हैं न आपसी सम्बन्ध बनाते हैं। यदि सवर्ण व दलित प्रेम प्रसंग की भनक भी लग जाये तो परिवार के लोग ही धोखे से उसकी हत्या कर देते हैं।’’ सत्यशरण ने कहा।
‘‘सोचना तो ये है कि हमारे भी सभी रिश्तेदारों ने हमसे सारे सम्बन्ध तोड़ लिये हैं कि बहू मुस्लिम है। हमारी बेटी रश्मि के लिए कोई लड़का भी नहीं मिल रहा इसी कारण से’’ सीता देवी दुःखी मन से बोली।
‘‘भारत सदैव से ही बहु संस्कृति व बहुभाषायी देश रहा है। लेकिन गोरी, गजनी जैसे मुस्लिम राजाओं की बर्बरता और लूटमार का इतिहास देश का हिन्दू भूल नहीं पा रहा!’’ ये सत्यशरण थे।
तभी मुशीरा वहा° पर आ गई। जल्दी से पर्स व अन्य सामान रख के किचन से सबके लिए चाय बना लाई साथ में बिस्किट्स भी थे।
‘‘पाकिस्तान की आतंकवादी गतिविधियों के कारण ही भारत में हिन्दू मुसलमानों के घनिष्ठ सम्बन्ध अच्छी नजर से नहीं देखे जाते’’ सीता देवी चाय पीते हुए बोली।
‘‘मुट्ठी भर लोगो की वजह से पूरी कौम बदनाम है। ये कैसे लोग हैं जो रहीम व रसखान की विद्धता, एवं देश प्रेम को कुछ सिक्कों की खातिर बदनाम कर रहे हैं?’’ ये मुशीरा थी।
‘‘इस समय पूरे देश में आतंकवाद की हजारों वारदाते पाकिस्तान करा रहा है। कट्टर इस्लामी और बर्बर मुसलमान पिछले सात दशकों से इसे चला रहे हैं। हमारी सरकारें सिर्फ सत्ता के लिए इसे अनदेखा करती रही हैं।’’ सत्यशरण ने कहा।
‘‘जी बाबू जी मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है!’’ मुशीरा ने कहा।
अनन्त व चा°दनी वहा° पर भागते हुए आये और सत्यशरण से लिपट कर बोले- ‘‘दादू! हमें आपके साथ कैरम खेलना है! जल्दी चलिये!’’
चा°दनी को गोद में उठा कर और अनन्त का हाथ पकड़कर सत्यशरण अपने कमरे की ओर चले गये।
‘‘बच्चों को देखते ही बच्चा बन जाते हैं सीता देवी’’ मुशीरा से बोली।
‘‘मा° आप भी बच्चों व बाबू जी के साथ कैरम खोलिये। शाम के नाश्ते व रात्रि भोजन का काम मैं अकेले कर लू°गी।’’
रश्मि के विवाह को लेकर वेदान्त व सत्यशरण दोनों ही परेशान थे। दुगना दहेज देने पर भी कोई वर नहीं मिल रहा था। मुस्लिम बहू की जानकारी मिलते ही सभी किनारे हो जाते।
इन्हीं दिनों मुशीरा की क्लास में नया लड़का वैभव शर्मा आया, जो स्वभाव से ह°समुख व उच्चमध्यम वर्गीय लगता था। वैभव को रश्मि से मिलवाने के लिए मुशीरा यूनीवर्सिटी जाते समय अपना पर्स घर में ही छोड़ गई। कक्षा में पहु°चते ही उसने वैभव से कहा-
‘‘मेरे घर जाकर मेरा पर्स ला सकते हो प्लीज!’’
‘‘यस मैम! श्योर! एड्रेस दे दें।’’
वैभव मुशीरा के घर की डोर बेल पर उगली रखे खड़ा था। तभी तमतमाई सी रश्मि ने दरवाजा खोला-
‘‘आपको बता दू° कि डोरबेल उंगली से दबा के छोड़ दी जाती है।’’
वैभव ने झटके से डोरबेल से हाथ हटा लिया फिर बोला- ‘‘मैम ने अपना पर्स मंगाया है।’’
रश्मि अन्दर गई और नीले रंग का पर्स लाकर वैभव के हाथ में पकड़ाते हुए बोली- ‘‘आगे से डोरबेल बजाना सीख कर आये।’’
वैभव ने पर्स मुशीरा को दे दिया किन्तु उस आग्नेय नेत्री के विषय में उत्सुकता जाग उठी। मुशीरा अब हर दूसरे तीसरे दिन किसी न किसी बहाने से वैभव को अपने घर भेजती। कुछ तकरार व कुछ सामंजस्य के साथ दोनों में दोस्ती बढ़ रही थी।
वैभव को पता चला कि मुशीरा व वेदान्त रश्मि के भाई भाभी हैं और मुशीरा भी जान चुकी थी कि वैभव वास्तव में ब्राह्माण वाला शर्मा नहीं है वरन् वह पंजाबी शर्मा था। जिसका परिवार नोएडा में था। मुशीरा को ये भी पता था कि वैभव की मम्मी सरोज शर्मा नोएडा में बुटीक चलाती हैं और उसके पापा मनोज शर्मा इंडियन बैंक में मैनेजर हैं। वैभव का बड़ा भाई भी है जो माता पिता के साथ ही रहता है।
धीरे धीरे वैभव व रश्मि एक दूसरे को अच्छे लगने लगे। दोनों में मनपसन्द बातें भी होने लगीं। दुःख से बोझिल मन तिनके का अवलम्ब पाते ही पिघल उठता है। ठीक इसी तरह रश्मि भी अनेक वरपक्षों की अस्वीकृति का सन्ताप वैभव से कहने को विवश थी। सब कुछ सुनने के बाद वैभव बोला- ‘‘देखो रश्मि छोटी जगह पर छोटी सोच के लोग जाति बिरादरी धर्म की बातें यू° उछालते हैं जैसे उनकी जिन्दगी का सिर्फ यही मकसद हो। लेकिन दिल्ली मुम्बई जैसे शहरों में लोगों के पास इन बेकार की बातों के लिए न वक्त होता है न दिलचस्पी।’’
‘‘अच्छा! ऐसा भी होता है क्या?’’ रश्मि हैरानी से बोली।
‘‘क्यों नहीं? मेरे पापा पंजाबी हैं जबकि मेरी मम्मी शादी से पहले ठाकुर थी। दिल्ली में अलग धर्म व जातियों के विवाह रोज होते हैं!’’ वैभव ने समझाया।
‘‘मैं तो ऐसा पहली बार सुन रही हू°।’’ रश्मि बोली! ‘‘लखनऊ और
गाजीपुर से बाहर की दुनिया अभी तुमने देखी ही कहा°?’’ वैभव ने तंज
कहा तो रश्मि शर्माते हुए चली गई।
क्रमशः