पुस्तक समीक्षा : कुछ तो बचा है
जीवन्तता का उत्कर्ष : कुछ तो बचा है |
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कृतिकार – डॉ अमिता दुबे समीक्षक – ओम नीरव आज कविता कटीले नुकीले प्रतीकों से घायल हो चुकी है, धुँधले बिम्बों को निरखते-परखते उसकी आँखें सूज गयी हैं, प्रस्तुत-अप्रस्तुत के बीच समझौता करवाते-करवाते उसके मस्तिष्क की नसें दुखने लगी हैं, दुरदुरे-खुरदुरे शब्दों की ऊबड़-खाबड़ डगर पर चलते-चलते उसके तलवे छिल हैं। ऐसी त्रासदी में जब कविता डॉ. अमिता दुबे के रेशमी छुअन वाले प्रतीकों का स्पर्श करती है, इंद्रधनुषी स्पष्ट बिम्बों का दर्शन करती है, प्रस्तुत की गोद में अप्रस्तुत को हुलसते हुए देखती है, हृदय की गंगोत्री से प्रवाहित हुई शब्द-गङ्गा के साथ प्रवहमान होती है तो वह आह्लादित होकर कह उठती है- ‘कुछ तो बचा’ है। डॉ अमिता दुबे जी के काव्य-संग्रह ‘कुछ तो बचा है’ के पृष्ठों पर विचरण करते हुए मैं अनुभव किया है कि आपकी कविता अपने पास-पड़ोस की जीवन्त घटनाओं और पात्रों से जन्मी है, जीवन्तता के साथ पल्लवित हुई है और उसके उत्कर्ष में जीवन्तता का उत्कर्ष दिखाई देता है। आपकी कविता का एक-एक स्पर्श कहीं न कहीं जीवन के यथार्थ को सरलता और तरलता के साथ ध्वनित करता दिखायी देता है। पौराणिक प्रतीकों का नवीन संदर्भों में सटीक और सार्थक प्रयोग करते हुए ‘अनुत्तरित प्रश्न’ शीर्षक रचना में आप ने आज के ज्वलंत प्रश्नों से पाठक के हृदय को उद्वेलित और जाग्रत करने का सफल प्रयास किया है- आज भी अनुत्तरित हैं अभिमन्यु के प्रश्न कि इस धर्मयुद्ध में अनीति का साथ गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म पितामह देने को क्यों थे विवश ये विवशता क्या आज समाप्त हो गयी है? नहीं, बलकुल नहीं आज भी गुरु द्रोण पितामह भीष्म कुलगुरु कृपाचार्य विवश हैं महामंत्री विदुर की नीतिगत बातें तब भी कोई नहीं सुनता था आज भी विदुर नहीं सुने जाते हैं और न ही मानी जाती है विदुर नीति। तभी अनेक प्रतिभाएँ आत्महत्या करने को विवश हैं। ‘छोटी-छोटी खुशियाँ’ शीर्षक कविता में आपने एक पुंगी वाले के माध्यम वे अतीत को मनस पटल पर पुनर्जीवित करने में विलक्षण काव्य-कौशल का परिचय दिया है और अंत में कुछ मारक पंक्तियों के साथ रचना का समापन किया है- तब आज की तरह न जेनेरेटर थे न इनवर्टर न हम सब सुविधाओं के आदी थे बस थीं ऐसी ही छोटी-छोटी खुशियाँ जिनकी तब कोई कीमत नहीं थी लेकिन आज ये खुशियाँ बहुत याद आती हैं क्योंकि आज की इस भागती दौड़ती ज़िंदगी में किसे फुर्सत है इन छोटी-छोटी खुशियों के पीछे भागने की। यह बात विशेषतः रेखांकनीय है कि अमिता जी की प्रायः सभी रचनाएँ किसी न किसी मारक पंक्ति (Punch Line) के साथ समाप्त होती है और इस प्रकार एक विस्फोटक भावाभिव्यक्ति के साथ पाठक के लिए कुछ सोचने को छोड़ जाती हैं। इस संदर्भ में कुछ रचनाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, यथा- ‘लड़की का घर’ शीर्षक कविता के अंत में मारक पंक्ति – एक लड़की को चाहिए अपना घर फ्लैट, कमरा , मकान नहीं घर- अपना घर पूरे अधिकार के साथ। ‘चलते जाना है’ शीर्षक कविता में- इस भूख और गरीबी को हराना है हारने के डर से सन्यासी नहीं नहीं हो जाना है। ‘एक सपना जवान’ शीर्षक रचना में- इसीलिए हर उड़ान के बाद दो जोड़ी आँखें नम होती हैं और… एक सपना जवान होता है। आपकी कविता में प्रतीक-बिम्ब, मानवीकरण का समावेश कहीं भी हठात नहीं हुआ है, अपितु कथ्य को अधिकाधिक संप्रेषणीय बनाने के लिए एक माध्यम के रूप में हुआ है। प्रतीक आपकी कविता के साधन हैं, साध्य नहीं। इस परिप्रेक्ष्य में दृष्टव्य है पूरी की पूरी ‘पीले पत्ते’ शीर्षक कविता, इसके कुछ अंश- कभी उदास-उदास से ये पीले पत्ते कराहते भी हैं अपनी दुर्दशा पर बिफरते हैं पूछते हैं सवाल और देते हैं चुनौती नए पत्तों को, तुम्हारा भी यही हश्र होना है आज डाल पर इतरा रहे हो कल हमारी तरह मिट्टी मे मिलोगे भूख-प्यास से त्रस्त बीमार होकर तड़पोगे तब हमारी तरह तुम्हें भी नए उगे पत्ते चिढ़ायेंगे हेय दृष्टि से देखेंगे। पूछेंगे कहाँ गयी रौनक कहाँ गए ठाठ-बाट तब कोई उत्तर नहीं होगा तुम्हारे पास। और इसी प्रतीक विधान में जीवन-दर्शन की जटिल ग्रंथि को बड़ी सहजता से सुलझाया है अमिता जी ने। इस संदर्भ में दृष्टव्य- हरे पत्ते पीले होंगे पेड़ से झरेंगे धूल में मिलेंगे आगे बढ़ते समय को मुट्ठी में बंद करने को तत्पर नए पत्ते पुराने होंगे तब ही तो नए पत्ते उगेंगे। प्रतीकों की एक अतीव मनोहारी किन्तु मार्मिक झाँकी आपकी रचना ‘बेटियाँ’ में देखने को मिलती है- क्या हैं बेटियाँ माता-पिता के घर-आँगन की कलियाँ फुर्र-फुर्र उड़ जाने वाली चिड़ियाँ या प्रौढ़ होते पिता की छाती पर राखी सिल! ‘कुछ तो बचा है’ की सरजिका डॉ अमिता दुबे की भाषा सामान्य बोल-चाल की हिन्दी भाषा है जिसमें देशज एवं लोक-प्रचलित अपभ्रंश का प्रयोग इस कौशल के साथ किया गया है कि आपके हृदय की बात सीधे पाठक के हृदय-तल तक उतर जाती है, उसमें किसी अंतराल की संभावना ही नहीं रहती है। आपकी भाषा को हृदय की भाषा कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। भाषा के इस सौष्ठव की एक झलक ‘हारने का डर’ की इन पंक्तियों में देखी जा सकती है, जिनमें गंभीर गवेषणा को सरल-तरल शब्दावली में व्यंजित किया गया है- बहुत कठिन होता है जीतना उससे कठिन है हार जाना यह हारने का डर बहुत बड़ा होता है यह डर जब नस-नस में बैठ जाय तब बहुत मुश्किल है इस डर से पार पाना! भाषा-शैली की भाँति आपकी चिंतन शैली भी सहज स्वाभाविक है। जन-मानस में बहुधा उठने वाले प्रश्नों और विचारों को आपने बड़े आत्मीय क्या, वात्सल्य भाव से निरखा है, परखा है और उकेरा है। ‘वीरवर लक्ष्मण’ शीर्षक रचना में अमिता जी की कवयित्री जब लक्ष्मण से प्रतिवाद करती है तो लगता है जन-वाणी ही मुखर हो उठी हो-तुमने क्रोध किया जहाँ आवश्यक था किन्तु नहीं किया विरोध कभी श्रीराम के निर्णय का तुमने तो कभी नहीं किया विरोध पिता के निर्णय का भी राम तो पितृ-आज्ञा पालन हेतु विवश थे किन्तु तुम तो स्वतंत्र थे वाद-प्रतिवाद करने को तुम कर सकते थे संवाद उसी प्रकार जैसे तुमने धनुष यज्ञ के समय किया था कृति की शीर्षक रचना ‘कुछ तो बचा है’ वास्तव में प्रतिनिधि रचना है जो आपकी काव्य-कला और अनूठी कहन का सटीक प्रतिबिंब प्रस्तुत करती है। इसमें बरसात में भीग गयी कवि की डायरी को प्रतीक बनाकर आपने बहुत स्वाभाविक सजीव चित्रण के साथ जीवन के विगत एवं आगत के बीच स्वर्णिम माध्य का मनोहारी निगमन किया है, कुछ इस प्रकार- चलो कुछ तो बचा नहीं धूल गया सब कुछ डायरी के पन्ने के साथ बरखा की बूँदों के साथ कुछ तो बचा है। समग्रतः डॉ अमिता दुबे प्रणीत यह काव्य कृति ‘कुछ तो बचा है’ युगीन आवश्यकता की पूरक है। अस्तु सामाजिकों और साहित्यकारों के लिए पुनः पुनः पठनीय और अनुशीलनीय है। मैं शुभकामना करता हूँ कि आपकी लेखनी से प्रसूत ऐसी ही उत्कृष्ट नयी-नयी कृतियाँ उत्तरोत्तर हमें पढ़ने को मिलती रहें। शुभमस्तु। कृतिकार-डॉ0 अमिता दुबे प्रकाशक-अनामिका प्रकाशन, 52, तुलारामबाग, प्रयागराज पृष्ठ सं0-103 मूूल्य -150 |