यात्रा संस्मरण : मनाली – सविता चड्ढा

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यात्रा संस्मरण

मनाली में ऐतिहासिक स्‍थान

लेखिका – सविता चड्ढा

( लगभग 45 वर्ष पूर्व मेरे पिता जी ने मुझे हिडिम्‍बा और घटोत्‍कच और घटोत्‍कच के बेटे बरबरिक की कहानियां सुनाई थी और मैं मन ही मन इन ऐतिहासिक पात्रों से प्रभावित हो गयी थी।  हिडिम्‍बा  का जन्‍म भले ही राक्षस परिवार में हुआ था लेकिन उनकी सोच और कर्मों ने कैसे उनका जीवन ही बदल दिया। सबसे बड़ी बात कि गलत का विरोध करने की शक्ति का जन्‍म हिडिम्‍बा के माध्‍यम से मेरे बचपन में ही हो गया था । इतिहास में रूचि के कारण भी ये पात्र मेरी स्‍मृति में बने रहे। बचपन में सुनी इन घटनाओं का आज लगभग पचास से अधिक वर्ष बीत गये है।  इन दोनों व्‍यक्तित्‍वों  को पूरी तरह जाने बिना हम कई बार  कितनी चीजों का नाम घटोत्‍कच रख चुके थे और हिडिम्‍बा का प्रयोग भी कई बार किया था । ये दूसरी बात है कि इन पचास वर्षों में ये नाम हमारी स्‍मृति से धीरे धीरे क्षीण हो गये थे । अपनी स्‍मृति में संजोये हुये हूं । मैं इन्‍हें क्‍यों याद रख सकी,  मैने बचपन में ये कहानियां कई बार अपने परिवार से सुनी थी इसलिए इतिहास मेरा प्रिय विषय रहा और इसमें सिमटी घटनाओं की तह तक जाने का कोई अवसर मैने खोया नहीं । )
हिडिम्‍बा देवी और वीर घटोत्‍कच  के मंदिर

इस वर्ष हमारा मनाली भ्रमण का कार्यक्रम बना और जब हमें ये पता चला कि इस मनाली में इतिहास के अति वीर नायक नायिका के मंदिर विराजमान है तो मन सपना साकार होने की खुशी  में मस्‍त हो गया था । इनोवा कार से हम सपरिवार दिल्‍ली से प्रात: 9 बजे रवाना हुये । शाम 6 बजे हम आनंदपुर साहब गुरूद्वारे पहुचें । अंधेरा शुरू होते ही हमने यात्रा को विराम देना  चाहा। हमने सपरिवार आनंदपुर साहब गुरूद्वारे के दर्शन किये प्रशाद लिया और बाहर बनी दुकानों से गर्म काफी पी । अचानक लगा कि थकान कम हो गयी है । गुरूद्वारे के पास बने अच्‍छे और साफ सुथरे होटल होली प्‍लेस में रात को  विश्राम किया ।

अगली सुबह प्रात: 7 बजे मनाली के लिए आनंदपुर साहब से चले तो रास्‍ते में रूकते रूकाते पहाड़ों  और प्रकृति की सुंदरता को निहारते हुये हम चलते गये । हम शाम को तीन बजे मनाली के निधार्रित होटल में पहुंच गये । यहां  केवल एक घंटे के आराम के बाद हम माल रोड  बाजार को निकल गये ।

अगल दिन हम सुबह ही हिडिम्‍बा देवी के मंदिर में पहुंच गये । बिना तड़क भडक के इस मंदिर को देखने सैंकडों लोग पहले से ही पंक्तिबद्व थे । मंदिर के चारों और लोगों की भीढ देख अहसास हो गया कि यहां बहुत देर लग सकती   है ।

क्‍या आप हिडिम्‍बा को जानते है । यदि हां तो बहुत अच्‍छा यदि नहीं तो संक्षेप में बात की जा सकती है । हिडिम्‍बा के जीवन के बारे में जानने के लिए,  इस मंदिर के बारे में बात करने से पहले  बताइये क्‍या आप महाभारत की कथा से परिचित है  । महाभारत के प्रसिद्व पांच पांडव थे युधिष्‍ठर, अर्जुन, भीम नकुल और सहदेव । इन महारथियों  की वीरगाथा अनंत है । इनकी एक पटरानी थी जिनका नाम था द्रोपदी ।

     बचपन की सुनी पहली कहानी हिडिम्‍बा नाम की एक महिला की थी जिसका जन्‍म्‍ राक्षस कुल में हुआ था लेकिन उसके सपने राक्षसी नहीं थे । वह वीर थी और दूसरों की वीरता की प्रशंसक थी । प्राया जो स्‍वयं वीर तो होता है परंतु साधारण होता है वह अपने अलावा हर दूसरे को अपने से कम वीर समझता है और उसे पता भी नहीं होता कि यही सोच उसकी हार का कारण बन जाती है । जिस हिडिम्‍बा की मैं बात कर रही हूं वो असधारण महिला वीर थी। बात  उन दिनों की है जिन दिनों पांडव अपने भ्राताओं कौरवजनों द्वारा लाख के घर में जलाये जाने के षडयंत्र के शिकार होने से बचकर निकले और बचते बचते हिडिम्‍ब राक्षस के क्षेत्र डूंगरी में पहुंच गये।  उन दिनों एक बार अकेले विचरण करते हुये पांडवों में से एक भाई भीम की मुलाकात हिडिम्‍बा से हो गयी । दोनों एक दूसरें के व्‍यक्तित्‍व और वीरता से इतने प्रभावित हुये कि कहा जाता है कि इन्‍होंने गोपनीय नीति से से विवाह कर लिया । दोनों के विधिवत विवाह के लिए राक्षसराज हिडिम्‍ब जो कि हिडिम्‍बा का राक्षस भाई था और जिसका भय सारे डूंगरी क्षेत्र में फैला था उसका वध जरूरी था ।

क्षेत्र के निवासियों ने हिडिम्‍बा को राज्‍य सौंपने की इच्‍छा को मूर्त रूप देने के लिए भीम के साथ मिलकर हिडिम्‍ब राक्षस को मृत्‍यु के घाट उतार दिया था और डूंगरी राज्‍य की सारी बागडोर और निगरानी का उत्‍तरदायित्‍व हिडिम्‍बा पर आ गया । राक्षसराज की मृत्‍यु के बाद दोनों का विवाह हो गया। विवाह उपरांत कुछ समय हिडिम्‍बा के साथ रहते हुये भीम ने सारी कथा का बखान अपनी वीर पत्‍नी से किया। पूरा वृतांत सुनकर हिडिम्‍बा जान गयी कि भीम के साथ उसका जाना संभव नहीं। भीम अपने भाईयों के पास आ गये और वहां से वापस आने से पहले हिडिम्‍बा को अपने कुल और मर्यादा और कौरवों के षडयंत्र  की सारी कथा भी कह   दी।

 इतिहास कहता है कि लगभग एक वर्ष तक ये युगल यहां सुख से रहे । इस दौरान भीम और हिडिम्‍बा का पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम घटोत्‍कच रखा गया । बाद में भीम अपने भाईयों के पास चले गये और हिडिम्‍बा ने अपने राज्‍य को बखूबी संभाला। जब तक धटोत्‍कच अव्‍यस्‍क रहा हिडिम्‍बा ने अपने राज्‍य को निपुणता से संभाला । जब वीर घटोत्‍कच जवान हो गया तो राज्‍य की बागढोर अपने बेटे को सौंप कर हिडिम्‍बा घ्‍यान, तपस्‍या, और साधना  के लिए मनाली के डूगरी गांव में एक विशेष स्‍थान पर  आ गयी । तपस्‍या के बलबूते पर

इनको कई शक्तियां  मिली और अपने राज्‍य के प्रति ये सदा दयालु बनी रही । इन्‍हे देवी हिडिम्‍बा कहा जाने लगा और  कुल्‍लु के राजाओं के लिए भी ये मंदिर संरक्षक बन गया ।  कहा जाता है कि कुल्‍लु के राजा की तिलक की रस्‍म इसी देवी के आशीर्वाद से होती है । इस मंदिर में कोई मूर्ति नहीं बस दो पैरों के निशान है जहां पर जोत जलती रहती है । इन्‍ही पदचिन्‍हों पर यात्री प्रणाम करते है । लकड़ी से बने इस मंदिर की चार मंजिले है ।  मुझे लगता है हिडिम्‍बा देवी ने अपनी तपस्‍या  के लिए संभवता यही स्‍थल चुना होगा जहां आज इस मंदिर की स्‍थापना की गयी है । इस मंदिर को देखने के पीछे मेरा प्रयोजन बचपन की सुनी कथा और एक राक्षस परिवार में जन्‍म लेने वाली महिला के मंदिर को देखना था । अब तो मैं जान गयी हूं मनुष्‍य के शरीर से अधिक उसके कर्म महत्‍व रखते हैं । राजकुल में पैदा होने वाले जेलों में और कूड़ा करकट ढोने वालों के यहां पैदा होने वाले शीर्षस्‍थ स्‍थानों पर अपने उत्‍कृष्‍ट कर्मों का निवार्ह करते देख पुरानी कई घारणाएं बदल गयी है ।

पगोडा शैली में लकड़ी के इस मंदिर का निर्माण डूंगरी वन विहार में 1553 में स्‍थापित किया गया । हिडिम्‍बा के बेटे घटोत्‍कच को अच्‍छा प्रशासक कहा गया है।  कहते है घटोतकच्‍छ का शाविब्‍दक अर्थ एक घड़े के समान सिरवाला होना है ।

जब कौरवों का युद्व चल रहा था और युद्व निर्णायक मोड़  पर था  तब अपने पिता की ओर से युद्व करने के लिए और वीरता से युद्व में शहीद होने की घटना का भी उल्‍लेख है।   हिडिम्‍बा के मंदिर के पास ही एक बड़े वृक्ष के नीचे वीर घटोत्‍कच का स्‍मारक  बना रखा   है। यहां पर एक बडा दीया जल रहा था ।वृक्ष के मोटे तने पर अनेक लोहे के तीर, कैंचियां, लोहे की कीले , जानवरों के सींग, जैसी चीजे टंगी थी । मैने देखा वहां रहने वाले लोगों की इन मंदिरों में बहुत आस्‍था है । मेरे सामने कुछ युवा लोग आये जो इसी स्‍थान के रहने वाले लगते थे । उन्‍होंने इस मंदिरनुमा स्‍थान पर हाथ जोड़कर प्रार्थना की एवं चबूतरे पर पड़ी भबूत का तिलक लगाया, अपने हाथों से अपने दोनों कानों को छूआ और आंखे बंद कर प्रार्थना की। घटोत्‍कच अत्‍यंत बलशाली था । जब महाभारत का युद्व हुआ  तो करण ने प्रतिज्ञा कर ली कि वह अर्जुन का वध करेगा। श्री कृष्‍ण को पता चल गया कि करण के पास एक ऐसा तीर है जो निसंदेह अर्जुन का वध कर सकता है । भीम की सहमति से श्री कृष्‍ण ने तब घटोत्‍कच को युद्ध स्‍थल पर बुलाया और करण के साथ युद्ध करने के लिए भेज दिया । घटोत्‍कच ने कौरवों की सैना का तहस नहस कर दिया जब करण किसी भी सूरत से घटोत्‍कच को पराजित नहीं कर सका और कौरवों की सैना के बहुत बलशाली वीर,  वीरगति को प्राप्‍त हो गये तब करण को मजबूरन विशेष तीर चला कर घटोत्‍कच का वध करना पडा । जब भीम को अपने बेटे की मौत की सूचना मिली तो वे बहुत दुखी हुये और तब श्री कृष्‍ण ने कहा कि वीर घटोत्‍कच का बलिदान व्‍यर्थ नहीं गया । यदि करण आज इस खास तरकस को प्रयोग घटोत्‍कच के वध के लिए नहीं करता तो कल यहीं तीर अर्जुन वध का कारण बनता। इन तीरों के अलावा और कोई अर्जुन के तीरों को परास्‍त करने की शक्ति नहीं रखता । उन्‍होंने कहा कि तुम्‍हारे बेटे का बलिदान हमेशा याद रखा जायेगा । आज भी कुल्‍लु और मनाली में इस वीर का नाम आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। वीर घटोत्‍कच का विवाह एक सुशील और राक्षस राज मूर की पुत्री कामकंटका के साथ हुआ ।  इनका  कामकंटका से एक पुत्र प्राप्‍त हुआ जो इतना शक्तिशाली हुआ कि वह अपने पिता से भी अधिक शक्तिशाली और विभिन्‍न शक्तियों का ज्ञाता था। कहते है कि उसमें इतनी शक्ति थी कि वह एक ही तीर से करोड़ों सैनिकों का एक साथ वध कर सकता था । बरबरीक ने श्री कृष्‍ण के सामने यह शर्त रखी कि वह एक ही तीर से सारे शत्रुओं का संहार कर सकता है । श्रीकृष्‍ण अर्जुन को सर्वश्रेष्‍ठ धनुर्धर  मानते थे ओर वे  किसी को भी इस स्थिति में स्‍वीकारने से पहले उसकी परीक्षा लेते हैं । श्रीकृष्‍ण को यह पता भी चल गया था कि बरबरीक इस युद्ध में हारे हुये पक्ष का साथ देना चाहता   है ।  बरबरीक परीक्षा में सफल हुआ था । मुझे यह परीक्षा की कथा मेरे पिता मुल्‍ख राज जी ने बचपन में सुनाई थी जो मैं यहा लिख रही हूं । इस कथा का कही लिखित उल्‍लेख मुझे नहीं मिला पर मैं  इस तथ्‍य से पूरी तरह सहमत हूं ।

जब बरबरीक ने कृष्‍ण को अपनी विशेषता की जानकारी दी तो श्रीकृष्‍ण ने एक विशाल वृक्ष के सारे पत्‍तों में एक तीर के साथ छेद करने का निमंत्रण बरबरीक का दिया जिसे उसने स्‍वीकार कर लिया । श्रीकृष्‍ण ने कुछ पत्‍ते अपने पांव के नीचे छिपा लिये । जब बरबरीक ने एक तीर चलाया तो उस विशाल वृक्ष के सारे पत्‍तों में एक साथ छेद हो गये । जब श्री कृष्‍ण ने अपने पैर के नीचे छिपाये पत्‍ते देखे तो उनमें भी छेद हो चुके थे । श्रीकृष्‍ण ने इस योद्धा की साहसिकता देख उससे उसका शीश मांग लिया और कहा जाता हे कि उस वीर  बरबरीक ने अपने शीश को दान दे दिया दे दिया लेकिन श्रीकृष्‍ण से महाभारत का युद्ध देखने की इच्‍छा जतायी । कहा जाता  है श्री कृष्‍ण ने बरबरीक के शीश को सारा युद्ध दिखाया । पता नहीं क्‍यों मुझे ऐसा लगता है महाभारत काल के दौरान दूरदर्शन जैसे वैज्ञानिक यंत्र का अविष्‍कार हो चुका था । महाभारत में ऐसे कई उल्‍लेख है मसलन राजा धृतराष्‍ट्र को युद्धस्‍थल से बहुत दूर होकर भी विधुर द्वारा आंखों देखा हाल बताने की घटनएं भी  सीधे प्रसारण के वैज्ञानिक यंत्र की उपस्थिति की ओर इंगित करती है ।

आज भी वीर घटोत्‍कच के कुल्‍लु की सिराज वैली में अनेक स्‍थानों पर मंदिर है ये मंदिर लोगों की आस्‍था के प्रतीक भी है । जो लोग घुमंतु प्रवृत्ति के होते हैं उन्‍हें प्रकृति, संगीत ऐतिहासिक स्‍थलों से अदभुत प्रेम होता है । वे अपनी ही धुन में रहने वाले और दुनियादारी की फिजूल बातों से सरोकार भी नहीं रखते हालांकि मनाली में बने बाजारों में बहुत कुछ खरीदा जा सकता था पर हमारा ध्‍यान तो ऐतिहासिक स्‍थलों के लिए प्‍यास था ।

अगले दिन प्रात:  9 बजे हम गुरू वशिष्‍ठ मंदिर और यहां बने गर्म पानी के  कुण्‍ड में स्‍नान हेतु निकल पड़े । यहां पर एक प्राचीन मंदिर है जिसका अपना इतिहास है । हमें बताया गया कि रधुवंश के कुल गुरू ब्रहमार्षि वशिष्‍ठ तथा मर्यादापुरूषोत्‍तम राम से संबद्व यह पावन ऐतिहासिक स्‍थान भारत वर्ष में  कुल्‍लुघाटी में प्रसिद्व तीर्थ के रूप में विख्‍यात है । बिपाशा नदी के तट पर स्थित गुरू वशिष्‍ठ इसी स्‍थान पर आत्‍मगलानि  के बंधन से मुक्‍त हुये थे तथा इसी स्‍थान पर घोर तपस्‍या की थी । श्री राम के 14 वर्ष के बनवास के दौरान रावण की मृत्‍यु के कारण ब्रहम्‍ हत्‍या के पाप का प्रायश्चित करने के लिए जब अश्‍वमेध यज्ञ कराना था तब कुल गुरू वशिष्‍ठ इसी स्‍थान पर घोर तपस्‍या में लीन थे  । अन्‍य  ऋषियों से परामर्श कर गुरू वशिष्‍ठ की तलाश का काम लक्ष्‍मण का सौंपा  गया । बहुत तलाश के बाद लक्ष्‍मण ने गुरू वशिष्‍ठ को यहां ढूंढ लिया । सर्दी का मौसम देख लक्ष्‍मण जी ने गुरू के स्‍नान की सुविधा के लिए अपना अग्नि वाण चलाकर गर्म जल की धारा निकाली । वशिष्‍ठ तो तपस्‍वी थे उन्‍हें गर्म जल की  जरूरत नहीं थी । वशिष्‍ठ जी ने लक्ष्‍मण को थका जान कर इस कुंड में स्‍नान करने की आज्ञा दी तथा वरदान दिया कि जो भी यहां स्‍नान करेगा उसकी थकान भी दूर होगी और सभी चर्म रोग दूर हो जांयेगें ।  मैने देखा इस कुंड में देश विदेश की सभी महिलाएं दूर दूर से स्‍नान के लिए उपस्थित थी । यहां पुरूषों और महिलाओं के स्‍नान के लिए अलग अलग  कुडं है ।

इस मंदिर की स्‍थापना लगभग 4000 वर्ष पूर्व  राजा परीक्षित की मृत्‍यु के बाद,  अपने पिता की आत्‍मा की शांति के लिए उनके बेटे जन्‍मेजय ने तीर्थ स्‍थानों की यात्राएं की और बाद में यहां इस मंदिर की स्‍थापना की । कहा जाता है कि जो मूर्ति अश्‍वमेघ  यज्ञ के लिए राम जी की बनवाई गयी थी राजा जगतसिंह जी ने उस मूर्ति को लाने के लिए अनुचरों को भेजा परंतु पहचान न होने के कारण अलग अलग मूर्तिया आती गयी और कालांतर में इन्‍हीं मूर्तियों को वशिष्‍ठ और मणिकर्ण आदि में राम मंदिर में स्‍थापित किया गया। इतिहास की कई खूबसूरत और प्रेरणादायक कहानियां हैं जिन्‍होंने कई महान व्‍यक्तियों के जीवन को बदला है ओर उन्‍हें श्रेष्‍ठता के सोपान दिये हैं।

यात्रा की वापसी पर रास्‍ते में मणिकरण गुरूद्वारा आया । इस स्‍थान पर भी महिलाओं और पुरूषों के लिए गर्म पानी के स्रोत है जहां पर स्‍नान करके यात्रा की और संभवता जीवन की थकान भी मिटाई जा सकती है । इस विशाल मंदिर की शुरूआत में ही  आपको काले चने का प्रसाद मिलेगा और साथ में मिलेगा दूध मिश्रित रूहअफजा । प्राकृतिक सुंदरता को समेटे मनाली में कई आकर्षक और सुंदर दृश्‍य मिलते है जिन्‍हें आप जीवन भर अपनी स्‍मृति में संजों कर सकते है लेकिन इन बीच हिडिंबा देवी, वीर घटोत्‍कच और बरबरिक को भी आप कभी भूल नहीं पांयेगे।

सविता चड्ढा
संपर्क-899 रानी बाग, दिल्‍ली 110034

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