लघु कथा: बैसाखियों का दंश – गोप कुमार मिश्र
लघु कथा:
बैसाखियों का दंश
गोप कुमार मिश्र
" विशालकाय भब्य ड्राइंग कक्ष में बैठा रमेश बस
घूरे जा रहा था, बगल में रखी बैसाखियों को एकटक।”
"आज से ठीक पैतीस साल पहले ये बैसाखियाँ आ लगी थी उसकी बगल से। पता ही नही चला, कि कब बन गयी असतित्व का अभिन्न हिस्सा।"
"काश उस दिन जुटा ली होती हिम्मत। बैसाखियों की जगह आत्मबल को चुना होता। पहले तो दो कदम चल भी लेता था। काश गुजर लेता थोड़ी प्रसव पीड़ा से।झटक देता बैसाखियों का हाँथ। तो आज तन के साथ मन से तो पंगु न होता।"
" आज वह समझ ही नही पा रहा है, कि बैसाखियाँ उसे ढ़ो रही है या उसकी आत्मग्लानि बैसाखियों को ढो रही है।"
"आज उसनें ठान लिया कि वह त्याग देगा , पर पैरों नें उठनें से मना कर दिया और हाँथ बरबस खिँचे चले गये बैसाखियों की ओर । "
" उसनें हार मान ली अपनें देश की तरह। जो बहुमत में होते हुए भी बैसाखियों पर जीनें को मजबूर।
सियासत जो ठहरी पंगु और बैसाखियाँ वोट बैंक।”
"आत्मा जार जार रो रही थी और धर्म ,जाति, मजहब आदि बैसाखियाँ ठहाका लगा रही थी।"