कवयित्री विनीता मिश्रा
नाव है या नाद नदी में
नाव है या नाद नदी में
चप्पू की छप -छप है केवल
या तबले की थाप नदी में।
डोल रही जो डगमग डगमग
सात सुरों के संग में पग-पग
हमको तो लगता है ऐसा
यह खुसरो की छाप नदी में।।
भोर की बेला सुरों का मेला
लहरों पर लहरों का खेला
हृदय चक्षु से यदि देखो तो
यह शंभू के पाद नदी में।।
यह गंगा की बहन गोमती
निर्मल करती मति गोमती
तनिक मान इसका भी धर लो
होती यह फरियाद नदी में।।
गंगा जैसी निर्मल धारा
ले करके यह प्रभु का सारा
रावण वध का पाप भी हरती
कहती धो लो पाप नदी में।।
अवध क्षेत्र में कल -कल करती
तुलसी के मानस में बहती
धेनुमति के नाम से मिलती
कटते सब संताप नदी में।।
आज ज़रा तुम आकर देखो
पास घड़ी दो जाकर बैठो
कल- कल धार ,न छप छप छैंया
रुदन के साथ विलाप नदी में।।
क्या थी तुमने क्या कर डाला
घट -घट मेरे बसे शिवाला
अब प्रलाप से लगते हमको
कल तक थे आलाप नदी में।।
बैर को छोड़ो प्रेम को पकड़ो
जाति को छोड़ो देश को पकड़ो
लहर लहर सुर कहते जाएं
यही करो संवाद नदी में।।
मकां से घर तक….. फिर घर से मकां तक
घर हमारे बनते नहीं
मकाँ खड़े हो जाते हैं।
आज बचपन खेले बिना
लोग बड़े हो जाते हैं।
इक कोठी के अंदर
दो कमरों का हिस्सा था
लगता है जैसे ये बस …
कल ही का तो क़िस्सा था ।
एक बड़ा अहाता था
कुएँ में ठंडा पानी था ।
आम – शरीफ़े फलते थे
जीवन एक कहानी था ।
पलते – पढ़ते, मिल – जुल कर
खटिया- चारपाइयों में ।
धमा – चौकड़ी करते दिन भर
पिछवाड़े अमराइयों में ।
चोर – पुलिस में जम कर डंडा
चोरों पर बरसाते थे ।
इमली – कैथा ,गोला – चुस्की
छीन – झपट का खाते थे ।
किसी के घुटने फूटें तो ,
किसी का नारा खिंचता था ।
गेंद – तड़ी और रस्सा कसी में
कमज़ोर बेचारा पिसता था ।
अब बंगला एक प्यारा है
अपना लॉन- गलियारा है ।
पेड़ों की ठंडी छांव भी है
समाज में मेरा ठांव भी है ।
संगमरमर के फ़र्शों पर
क़ालीने कश्मीरी हैं।
Branded furniture के संग
चहुँ ओर पड़ी अमीरी है ।
इस समाज की देखा – देखी
घर का सपना देख लिया ।
इसे बना ही डालेंगे
प्लॉट भी अपना देख लिया ।
सारे गुल्लक फोड़ दिये
FD अपने तोड़ दिये ।
सोना भी थोड़ा रख आये
हम बैंक से क़र्ज़ा ले आये ।
ईंटा सिमेंट जोड़ लिया
मौरंग – गिट्टी मोल लिया ।
सिर को उठाया कमर कसी
नींव भी गहरा खोद लिया ।
चार दीवारें उठने लगीं
कमर हमारी झुकने लगी ।
ज्यों ज्यों घर वो बनता गया
सम्मान हमारा बढ़ता गया ।
फिर कोना – कोना निखर गया
हर एक का कमरा सँवर गया ।
संगमरमर के फ़र्शों पर
ब्रैंडेड फ़र्नीचर पसर गया ।
तोषक – परदे सभी लगे
पढ़ने वाले दूर गये ।
हम बैठे कुर्सी डाले हैं
लड़ने वाले छूट गये।
अब चलते – चलते थकते हैं
कुछ घुटने हमसे कहते हैं।
थोड़ी खाँसी सी भी आती है
नज़र कभी धुँधलाती है ।
हम लॉन में अपने ठाठ करें
आने वालों की बाट तकें।
कभी कोई निमंत्रण आता है
मन हुलस – हुलस तब जाता है ।
चल दें सबसे मिल आयें
कुछ नए – पुराने मिल जायें।
मन खिड़की में से झाँक रहा ,
मैं बैठा घर को ताक़ रहा ………..
राम की स्वीकारोक्ति
सबने बल देखा था मेरा ,
दुर्बलता कोई ना देख सका ।
मैं छुपा रहा तुम चलीं गयीं!
मैं वो क्षण भी ना देख सका!!
मैं कह पाता तो कहता ,
मैं सह पाता तो कहता ।
तुम सबला थीं मैं निर्बल था ,
तुमसे तो मैं दुर्बल था ।
तुम निर्जन में भी सबल रहीं,
मैं महलों में भी निर्बल था ।
ये प्रेम ही शक्ति बनता है
और दुर्बल भी वो करता है ।
मैं धनुष उठा तो सकता था
पर नयन ना तुमसे मिला सका ।
था दुखी तुम्हारे कष्टों से
पर किसी को मन ना दिखा सका ….
समय चला चलता ही गया ,
संताप मेरा ना मिटा सका ।
हर पुकार बस मन में रह गयी
स्वर तुम तक कोई पहुँचा ना सका ।
जो मैंने तुमसे कहा नहीं
क्या ऐसा ही था ? कहा नहीं ??
यदि कह पाता क्या कहता मैं ?
अपराधी सा बस रहता मैं !
मैं स्वयं , स्वयं से बचा गया ,
हा ! तुमने मुझको क्षमा किया
मैं आज भी ये दुःख सहता हूँ
तेरे नाम के पीछे छुपता हूँ।
जब तक ना तेरा नाम जुड़े
आधा अधूरा लगता हूँ।
यह भी तो त्याग तुम्हारा है
तुम से ही प्रेम हमारा है ।
तुम बल थीं मेरा , सदा रहीं,
चाहे पास रहीं या जुदा रहीं ।