कवयित्री संध्या सिंह

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गीत

“कान उगे दीवारों में “

तहखाने से राज़ निकल कर
आ पहुंचे बाजारों में
जब भी खुसफुस की अधरों ने
कान उगे दीवारों में

सागर तल की गहराई में
दबे हुए थे किस्से मन के
बंद सीप में धरे छुपा कर
मोती जैसे पल जीवन के

शातिर गोताखोर ख़बरिये
छाप रहे अखबारों में
जब भी खुसफुस की अधरों ने
कान उगे दीवारों में

तट पर एक रेत के घर मे
दिल के दस्तावेज़ धरे थे
देख बुरी सागर की नीयत
लहर लहर पर राज डरे थे

उड़ीं गगन तक गुप्त कथाएं
सरे आम गुब्बारों में
जब भी खुसफुस की अधरों ने
कान उगे दीवारों में

चली झांकने खिड़की खिड़की
चुगली बैठ पवन के काँधे
रुसवाई का तार बाँध कर
किस्से चौराहों पर बाँधे

प्यार फूस का सूखा छप्पर
हवा चली अंगारों में
जब भी खुसफुस की अधरों ने
कान उगे दीवारों में


ग़ज़ल

एक भी खतरा न था मँझधार के कारण

एक भी खतरा न था मँझधार के कारण
नाव डूबी थी वहाँ पतवार के कारण

बात इतनी सी नहीं उसने किया धोखा
मर गए कितने यकीं गद्दार के कारण

लूट चोरी भीड़ हिंसा रेप हत्यायें
हो गया मातम सुबह अखबार के कारण

माल घटिया चमचमाती बन्द पैकिंग में
दब गए सारे हुनर बाज़ार के कारण

छाँव दे कर आ गया कितना उसे ग़ुरूर
छत टिकी थी शान से दीवार के कारण

व्यंग्य रचना
घर को खूब बुहारे रखना

घर को खूब बुहारे रखना
गन्दे सब गलियारे रखना

आसमान जिस पर भी टूटे
तू बस चाँद सितारे रखना

तूती की आवाज़ न आये
अगल बगल नक्कारे रखना

जिसकी तुमको टाँग खींचनी
उसके चरण पखारे रखना

मुट्ठी में इक सुई छुपा कर
वादों के गुब्बारे रखना

बात अगर हो तेरे हित की
सारे नियम किनारे रखना

जीना जैसे युद्ध हो गया

हम मूरख से रहे ताकते
सारा जहां प्रबुद्ध हो गया
तर्क बहस के बीच प्रेम का
जीना जैसे युद्ध हो गया

अपनी निजता छोड़ एक दिन
सुख दुख जिसके साथ जिये थे
मान लिया था जिसको पूरक
जिसने खुद भी वचन दिये थे

वही अधूरा छोड़ रात मे
स्वयं अकेला बुद्ध हो गया
जीवन जैसे युद्ध हो गया

जिन पौधों को सींच सींच कर
बढते देख नयन हर्षाये
आंधी बरखा धूप सभी से
बचा बचा कर वृक्ष बनाये

उसी बाग़ का पत्त्ता पत्ता
माली पर ही क्रुद्ध हो गया

मुस्कानों की कठिन शर्त पर
जीवन में अनुबंध हुए हैं
काजल की रेखा से बाहर
बूंदों पर प्रतिबंध हुए हैं

हम अपराधी हुए प्रमाणित
कंठ अगर अवरुद्ध हो गया

एक दाग से चाँद कलंकित
एक बहम से टूटी यारी
एक भूल से भंग तपस्या
एक दोष सौ गुण पर भारी

एक बूँद मदिरा से पूरा
अमृत कलश अशुद्ध हो गया


घाव में काँटा चुभाया है किसी ने

घाव में काँटा चुभाया है किसी ने
इन्तहा को आज़माया है किसी ने

फिर ज़मीं की धड़कनें रुक सी गयी हैं
आसमां सर पर उठाया है किसी ने

नींद से फिर हड़बड़ा कर उठ गए हैं
नाम ले कर फिर बुलाया है किसी ने

मेघ बरसे बाँध टूटे बाढ़ आयी
बज़्म में आँसू छुपाया है किसी ने

काँपते पर्वत हवाएं चीख़ती हैं
बेजुबाँ को फिर सताया है किसी ने

दोहे

संध्या समय

आदिकाल से तू रही, पश्चिम की मेहमान l
फिर भी उगना चाहती, संध्या तू नादान ll

सूरज थक कर ढल गया, सिमट गयी सब धूप
संध्या जोगन हो गयी, घर कर भगवा रूप ll

दिनभर दिनकर को तका, लिया नहीं संज्ञान l
संध्या को छू कर हुआ, पल में अंतर्ध्यान ll

बारिश

मदिरालय से मेघ हैं, बूँद बूँद में सोम l
नृत्य दिखाती दामिनी, जश्न मनाता व्योम ll

सूर्य ढका जब मेघ ने, धरा हुई बेचैन l
भरे भरे पोखर लगें, ज्यों बिरहन के नैन ll

सागर ने तो भेज दी, अपनी जल जागीर l
अब बादल के हाथ है, प्यासे की तकदीर ll

1 thought on “कवयित्री संध्या सिंह

  1. बहुत प्यारी – प्यारी रचनाएं हैं ।

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