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विदेही सुख
जो स्वप्न में देखा था कब से
आज देखा वही सवेरा !
जो तथाकथित हरदम रहे थे
आज सच में अपने हुए थे।
महसूस मुझको हो रहे थे
कई स्नेह के स्पर्ष तन पे ।
कोई कपोलों को सहलाता
कर रहा कोई माथे का चुम्बन!
थाम कर कोई हाथ बैठा
कोई कर रहा था हल्दी चंदन!
बता रहा सरल-स्नेहपूर्ण कोई
कोई कहता तू घर का बंधन!

थोड़ा मुझे अचरज हुआ था!
झूम उठी पर, मैं खुशी से ।
आहा ! कितना अच्छा आज दिन ये!
चुपके से दबे पाँव फिर मैं
सबसे जरा नजरें बचा कर
आ गई बाहर निकल कर।
गली-गलियारे , आंगन-चौबारे
पास-पड़ोसी , दोस्त सार !
हर तरफ चर्चे मेरे थे ,
हर जगह बस बात मेरी !
हर जुबां पे नाम मेरा,
मेरी गुनगुन, मेरी भुनभुन !
सहसा ! सहसा महसूस हुआ तन पे ,
थी अलग सी एक जलन ।
विचार आया घर चलूं अब
रवि प्रखर है हो गया ।

वापस आई घर तो देखा
ये क्या !?
सारे संबंधियों व घर का
हो रहा शुद्धिकरण !
सुबह यूँ जाना मेरा और देर से फिर आना मेरा !
किसी को भी इसका भान नहीं था !?

कुछ समझ ना पाई थी मैं
हाँ जरा घबराई थी मैं ।
ढूंढने लगी फिर उस प्रिय को
जिसकी बनी परछाईं थीं मैं ।
उसे पूर्ण बनाने की खातिर खुद को मिटाती आई थी मैं ।
वो तो ना दिखा मुझे, पर !
कुछ नक्श कदमों के दिखे थे।
फिर उसी ओर मैं चल पड़ी थी ।
बस जरा कुछ दूर जा कर
सामने कुछ दिख रहा था ।
अरे ! ये क्या था !?
अचरज जरा मुझको हुआ था ।
सुवासित सुगंध पसरा हुआ था
वो फूलों से लदा हुआ था , जो
एक सेज सुंदर सजा हुआ था ।
भीड़ मुट्ठी भर खड़ी थी ,
चेष्ठा की देखने की ,
सेज पर मैं ही पड़ी थी !

काठ चंदन शीतलता भरी थी
पर आग क्षण भर में लगी थी।
ढूंढ कर देखा तो पाया
चिंगारी उसी हाथ पड़ी थी
मुझे वरण किया था जिसने
ओह ! साक्षी तो यही अग्नि बनी थी ।
जिसने नीर अक्सर, मेरी आँखों में भरा था ।
मेरे लिए ! आज पर वो रो रहा था ।

ये नेह स्नेह ये प्रेम अपार
और एक जरा सा सम्मान
चाहा तो यही सब था मैंने ,
आज जो सब कुछ मिला था ।
अरे ! पर मुझे मरना पड़ा था ।

वो देह सामने जो जल रही थी
जिसमें मैं स्त्री बनी थी ।
अरे ! वो तो उम्र भर जली थी ।
आज चिता में बुझ रही थी ।
आज वो सारे फफोले,
अपनो के छल के वो छाले
जो उम्र भर मन पे पड़े थे
सारे मिटते जा रहे थे ।
ठंडक आग में मैं पा रही थी ।

जो भीड़ मुट्ठी भर जमा थी
अपने घर को जा चुकी थी
और विदेही मैं,
विदेही मैं अब भी खड़ी थी
अपना दाह देखे जा रही थी।
बुझ रही उन लकड़ियों में
अपनी राख होती देह को मैं
बड़े प्यार से सहला रही थी ।
कर के आलिंगन मैं खुद का,
आज बड़ा सुख पा रही थी ।
अग्नि मेरी माँ बनी थी,
मुझे कोख लेती जा रही थी ।
और मैं ! मैं, विदेही सुख पा रही थी ।

दिव्या त्रिवेदी
स्वरचित अप्रकाशित/अप्रसारित मौलिक रचना

1 thought on “विदेही सुख – दिव्या त्रिवेदी

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