समीक्षा : पचास के पार
समाज के यथार्थ की अभिव्यक्ति है राजासिंह की कहानियाँ
“पचास के पार” सुपरिचित कथाकार राजा सिंह का दूसरा कहानी संग्रह है। इनकी रचनाएँ हंस, पाखी, प्रगतिशील वसुधा, साहित्य अमृत, लहक, किस्सा, निकट, पुष्पगंधा, उद्भावना, ककसाड, बया, चौराहा, दैनिक जनसत्ता इत्यादि प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। संवेदनशील व उम्दा कथाकार राजा सिंह उपेक्षित, पीड़ित, बदनाम लोगों से जुड़ी तमाम बातों को और जटिल यथार्थ को बड़ी बेबाकी से अपनी कहानियों में अभिव्यक्त करते हैं। समाज की रूढ़ीवादी, जर्जर मान्यताओं ने स्त्रियों का किस तरह शोषण किया है, लेखक ने अपनी कहानियों में इस शोषण को बहुत प्रभावी रूप से उजागर किया है। लेखक ने इस संग्रह की कहानियों में भावनाओं के अनियंत्रित प्रवाह को बयां किया है। राजा सिंह अपनी कहानियों में अपने पात्रों को पूरी आजादी देते हैं।
इस कहानी संग्रह की भूमिका बहुत ही सारगर्भित रूप से सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री सिद्धांत यादव ने लिखी है। श्री सिद्धांत यादव ने भूमिका में लिखा है ” राजा सिंह अपने पात्रों को एक नजर से देखते हैं, पर सुनते हैं उनके आन्तरिक परिवेश के कई कर्ण-कोणों से। उनके पात्रों के तर्क-कुतर्क निरी भावुकता अथवा आदर्शवादी भावुकता से दूर यथार्थवादी धरातल पर होते हैं।” राजेश कदम ने इस कहानी संग्रह पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिखा है “कम समय में बेहद जागरूक और प्रमाणिक कहानियाँ करने वालों में राजा सिंह का नाम शामिल किया जा सकता है। राजा सिंह चालू ढर्रे या रटे-रटाए आदर्श सिद्धांत या बंधे-बंधाए फार्मूलों या नए पुराने फैशन या जबरन लदे पैशन की रचनात्मकता से स्वयं को दूर बहुत दूर रख छोड़ा है।” इस कहानी संग्रह में छोटी-बड़ी 14 कहानियाँ हैं। इस कहानी संग्रह की कहानियों में यथार्थवादी जीवन, पारिवारिक रिश्तों के बीच का ताना-बाना, दोगलापन, संवादहीनता, बेबसी, शोषण, उत्पीड़न, स्त्री संघर्ष और स्त्रीमन की पीड़ा आदि का चित्रण मिलता है।
संग्रह की पहली रचना छत्रछाया में ठाकुर बल्देवराज सिंह सांमती अवमूल्यों का जीता-जागता रूप है। कथाकार ने ठेकेदारों की परेशानियों और उनके मानसिक तनाव को इस कहानी में स्वाभाविक रूप से निरूपित किया है। इस कहानी में सपना का प्रभावशाली किरदार प्रभावित करता है जो यथार्थ से टकराकर अपने वजूद को पहचानती है और अपने पति मनोज को सहारा देती है। “एक हमसफर” एक अलग कलेवर की बेहद खिलंदड़ अंदाज में लिखी गई कहानी है। इस कहानी की नायिका तरन्नुम की मजबूरी सोचने को विवश कर देती है। सरकार के बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ के नारे के बावजूद बेटियां कदम-कदम पर छली जा रही है। “घरेलू पति” में आधुनिक समाज की स्थिति को चित्रित किया है। “गिरगिट का जाल” में जागीर सिंह एक भोले भाले युवक को ब्लेकमेल करके अपने इशारों पर नचाता है और उसका गलत फायदा उठाता है। “मिस चक्रव्यूह” कहानी अपने कथ्य और कथानक से काफी रोचक बन पड़ी है। यह कहानी कथाकार की पैनी लेखकीय दृष्टि तथा सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव का जीवंत सबूत है। यह गरीब दलित युवती पुनीता के यौन शोषण, उत्पीड़न की कहानी है। इस कहानी में ठाकुर रंजीत सिंह, ड्राइवर सज्जनसिंह, अब्दुल, बलराम की कारस्तानियों और नारी उत्पीड़न की सूक्ष्मता से पड़ताल की गई है। इस कहानी की नायिका पुनीता एक दलित युवती है जो अन्याय, अत्याचार और शोषण का विरोध करती है। यह कहानी दलित स्त्री विमर्श पर एक नई बहस को जन्म देती है। कथाकार ने एक महत्वपूर्ण विषय को उठाया है संग्रह की शीर्षक कहानी पचास के पार में। इस कहानी में कथाकार ने पचास वर्ष के ऊपर की उम्र के व्यक्तियों की मन स्थिति और उसके मनोविज्ञान का चित्रण सफलतापूर्वक किया है। “प्रारम्भ” की सपना की कल्पना और परिकल्पना में स्कूल छाया रहता है। वह पढ़ना चाहती है। “प्रारम्भ” महानगरों की झुग्गी-झोपड़ियों में पल रहे परिवार के घर घर की कहानी है। इस संग्रह की अन्य कहानियाँ मन को छूकर उसके मर्म से पहचान करा जाती हैं। “प्रेमान्त” प्रेम, मोहब्बत, रूमानियत, विछोह के माध्यम से मानव जीवन के विशिष्ट क्षणों का दर्शन कराती है। “सफेद गुलाब” इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी है। इस कहानी का कैनवास बेहतरीन है। स्त्रीमन की पीड़ा को बहुत बारीकी के साथ उठाया इस में। “सफेद गुलाब” कहानी मेहविश खान के जीवन के अंतर्संघर्ष, खामोशी, उदासी, बेचैनी को खोजने का प्रयास करती है। मेहविश के व्यक्तित्व रूपांतरण के लिए उसका पति रमन एक नायाब तरीका ढूंढ़ता है। वह शादी की दूसरी वर्षगांठ पर अपनी पत्नी मेहविश की गोद में आठ-नौ माह का एक बच्चा डाल देता है।
इस संग्रह की कुछ कहानी अंशों पर गौर करिए –
मगर इलाहाबाद की बुलबुल लालगंज के गाँव में आकर कैद हो गई थी। बहुत फड़फड़ा कर उड़ी भी तो लालगंज तक ही डोर थी और वापस लौटकर गाँव का घर। (छत्रछाया)
इस तल तक आते-आते चीफ भेड़िया का रूप अख्तियार कर चुका था। वह किसी को जल्दी दबोचने के फिराक में था, परंतु उसे कोई मुद्दा मिल नहीं रहा था। (चीफ…दि बॉस)
मैं हवा में उड़ रहा था, वह जमीन में चल रही थी। अचानक मैंने देखा कि मैं बुलबुल बन गया हूं, शैला डोर और जागीरसिंह अड्डे में परिवर्तित हो गया है। डोर का एक सिरा बुलबुल के पैर में बंधा था और दूसरा सिरा अड्डे से जुड़ा था। बुलबुल का उड़ना सीमित हो गया था। (गिरगिट का जाल)
बाज ने झपट्टा मारा और चिड़िया को लेकर सामने की गली में गूम हो गया। बाज ने एक सुरक्षित कोने में ले जाकर चिड़िया को खाया-पिया और चिड़िया नुचें पंख लेकर वापस चबूतरे पर। चिड़िया बाज या शेर को पहचान गई थी, वह था महेश शर्मा। (कमरे का अभिशाप)
मैं बाहर आ गया था। उजड़े लान पर टहलकदमी करता हुआ। उस उजड़े गुलशन में भी आत्मीयता थी। एक कसक थी। एक आकर्षण था। अंतहीन यादों का सिलसिला था। (लाल का पतन)
वह पस्त और निढाल पड़ी है उसमें मरने की भी जान नहीं बची है। खून रिस रहा है। निर्वस्त्रता को ढकती ही है कि तभी सज्जनसिंह दाखिल होता है, “ठाकुर साहब मेरा हिस्सा।” शिकार की जूठन पर तो सियार का हक होता ही है। ठाकुर साहब को कोई एतराज नहीं है, निपटो। बाज, कबूतरी पर दबे पांव बढ़ता है। खुली कबूतरी, बाज बन जाती हैं। असीमित ताकत पैदा होती है और सज्जनसिंह धड़ाम दूर जा गिरा और वह चीखती-चिल्लाती बाहर को भागी। (मिस चक्रव्यूह)
मैंने बड़ी मुश्किल से अपने को बचा कर रखा है, आमना के लिए परंतु कब तक? कहीं आमना छूट न जाए। आमना का यहां होना जरूरी है, मुझे ताड़का से बचाने के लिए परन्तु अब्बू ने उसे रोक रखा है लक्ष्मी की तरह। (मिस्टर लक्ष्मण)
कुछ दिनों तक वैराग्य की स्थिति हो गई थी। परन्तु कब तक? शीघ्र ही दबी चिंगारी फिर उभरेगी भूख और प्यास को दबाया जा सकता है, समाप्त नहीं। जब साधु, महात्मा अपने को नहीं रोक पाए तो साधारण व्यक्ति की क्या विसात? (पचास के पार)
….अचानक वह हिलने लगती है। वह कम्पायमान है। कोई झकझोर रहा है। कुछ सुनाई पड़ने लगा है। गालियों की आवाजें। उसकी तृन्द्रा टूटती है। मां की कर्कश गालियों की बौछारें, सुनाई पड़ने लगी हैं। “उठ, हरामजादी उठ। उठ जल्दी उठ कुतिया। कैसी सूअर जैसी सो रही है, काम पे चलना है। यह तो सारे घर छुटवां कर रहेगी। उठती है कि लगाऊं दो-चार हाथ, रांड। वह उठ गई। आंख मलते उसने देखा कि वह वही मटमैली कुचैली अपनी फ्रॉक में थी। वह अब भी नहीं उठती तो उसका मार खाना शर्तिया था। वह नि:सहाय, बेबस वर्तमान के कठिन कठोर धरातल पर लौट आती है। (प्रारम्भ)
मन्नू साहब के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहा है अपने सुधार के लिए। मेरी कृतज्ञता दिल-दिमाग के रास्ते आंखों से प्रगट हो रही थी। वह कह रहा था “साहब आते रहियेगा।” मैं यह भी नहीं कह पा रही थी। (प्रतिदान)
-क्या, हम दोस्त नहीं हो सकते? मेरे स्वर में आद्रता थी। -दोस्ती मोहब्बत में तबदील होती है, मोहब्बत दोस्ती में नहीं बदलती। यह नामुमकिन है। उसकी आँखों में टूटने का दर्द था और दिल में खलिश थी। परन्त उसके स्वर में दृढ़ता थी। बाहर बादल छट गए थे। बारिश बंद हो गई थी। सब कुछ धुला-धुला साफ हो गया था। हमारी कहानी भी धुल गई थी, सिर्फ खरोंच बाकी थी। (प्रेमान्त)
रमन के अंदर एक अजीब व्याकुलता भर गई थी, अकथ एवं अव्यक्त। उसके अंदर एक जिद पनप रही थी, उस एकाकी, खामोशी, उदासी से परिपूर्ण सफेद गुलाब को गुलाबी में बदलनें को आतुर और उसकी खुशबू जो कि अंतर्निहित थी उसे अपने अन्तःकरण में समाहित, व्याप्त कर लेने की जिद। (सफेद गुलाब)
इनकी कहानियों में समाज के यथार्थ की अभिव्यक्ति है। इस संग्रह की कहानियां हमारे आज के समय का दर्पण है। प्रत्येक कहानी आँखों के सामने घटना का सजीव चित्र खड़ा कर देती है। कहानियों के कथ्यों में विविधता हैं। ये कहानियाँ जीवन से सार्थक संवाद करती हैं। लेखक की कहानियाँ कहानी समाज के ज्वलंत मुद्दों से मुठभेड़ करती है और उस समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करती है। इस कहानी संग्रह को पढ़कर लेखक के मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था, उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता का परिचय मिलता है। सहज और स्पष्ट संवाद, घटनाओं का सजीव चित्रण इस संकलन की कहानियों में दिखाई देता हैं।
राजा सिंह की कहानियों में नारी पात्र के विविध रूप चित्रित हुए हैं। राजा सिंह के नारी पात्र पुरुष से अधिक ईमानदार, व्यवहारिक, साहसी और कर्मठ दिखाई देती हैं। कहानियाँ नारी मन का मनोवैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण करती हैं। संकलन की अधिकाँश कहानियों के स्त्री पात्र विपरीत समय आने पर चुनौतियों का सामना करनेवाली सशक्त नारी के रूप में दिखाई देते हैं। राजा सिंह की कहानियों के स्त्री चरित्र स्वयं निर्णय लेने की क्षमता रखते हैं। इस संग्रह की कहानियों के सारे पात्र जाने पहचाने लगते हैं। लेखक ने परिवेश के अनुरूप भाषा और दृश्यों के साथ कथा को कुछ इस तरह बुना है कि कथा खुद आँखों के आगे साकार होते चली जाती है। इनकी कहानियों के पात्र जेहन में हमेशा के लिए बस जाते हैं। कहानियों के शीर्षक अत्यंत आकर्षक एवं विषयानुरूप है। संग्रह की कहानियाँ पाठक को बांधे रखती हैं और साथ ही कथाकारों, समीक्षकों, आलोचकों को प्रभावित करती है। बेशक “पचास के पार” एक पठनीय और संग्रहणीय कृति है।