यथार्थ के धरातल पर रचित मार्मिक कहानियों का संग्रह : उसका सच
पुस्तक समीक्षा -समीक्षक - डाॅ.दिनेश पाठक‘शशि’ 28,सारंग विहार,मथुरा-6,मोबा-9870631805पुस्तक - उसका सच (कहानी संग्रह), ISBN 978-93-87915-61-9 लेखिका -श्रीमती...
पुस्तक समीक्षा -समीक्षक - डाॅ.दिनेश पाठक‘शशि’ 28,सारंग विहार,मथुरा-6,मोबा-9870631805पुस्तक - उसका सच (कहानी संग्रह), ISBN 978-93-87915-61-9 लेखिका -श्रीमती...
लेखिका :संतोष श्रीवास्तव शैली की कविता है मैनी अ ग्रीन आइल नीडस् मस्ट बी/इन द डीप वाइड सी ऑफ मिज़री/ऑर...
🌼उम्मीद की दस्तक🌼 सुनो जिंदगी! ये मंदिर की घंटियाँ जो हैं ना, मेरे लिए महज पूजा का एक उपक्रम मात्र...
लेखिका : संतोष श्रीवास्तव ऑस्ट्रिया शब्द मेरे मन में हलचल मचा रहा था| विश्व प्रसिद्ध संगीत की धुनें तैयार करने...
लेखिका -संतोष श्रीवास्तव गूँगी संतोष श्रीवास्तव हॉल की आधुनिक लेकिन राजसी सजावट को वह बिटर-बिटर टाक रही थी| सोफे...
दुखिया दास कबीर है 30 अप्रैल 1999 बनारस का मणिकर्णिका घाट.... मैं छोटी सी तांबे की लुटिया में एहतियात से...
लेखिका : संतोष श्रीवास्तव जिन खोजा तिन पाईयाँ सिविल लाइंस के विशाल बंगले को हमें शीघ्र ही छोड़ना पड़ा क्योंकि...
सृजन गाथा छत्तीसगढ़ द्वारा आयोजित पांचवें अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में मुझे साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने हेतु...
कथाकार : कुसुम भट्ट नदी की उंगलियों के निशान हमारी पीठ पर थे। हमारे पीछेदौड़ रहा मगरमच्छ जबड़ा खोले निगलने को आतुर! बेतहाशा दौड़रही पृथ्वी के ओर-छोर हम दो छोटी लड़कियाँ...! मौत के कितनेचेहरे होते हैं अनुभव किया था उस पल...! दौड़ो... कितना भी दौड़ोपृथ्वी गोल है, घूम कर फिर इसी जगह.... कुछ भी घट सकता है...? नदी की उंगलियों को कोंचने के लिये आमादा मगरमच्छ .... इससेलड़ नहीं सकते हम... इससे बचना है किसी तरह .... यही समझआया था... उस मूक स्वर से ... उस मौन चीख से जो उस थरथरातेगले में अटकी छटपटा रही थी ... एक तीली आग जली थी ..., उसमें जल रही थी हमारी इच्छायेंहमारे स्वप्न....! और हमारी मुक्ति ..? उस मछली सी जिस परबगुला घात लगाये खड़ा था धारा में ...! बस एक तीली आग जली थी उसमंे जलने लगा था भुवनचाचा का जिन्दगी की पन्द्रह सीढ़ियों पर अर्जित किया पौरूष! सुबहदम भरता वह साहस पल भी ही तिरोहित हुआ! अब वहाँ कातर पंछीकी फड़फड़ाहट थी, माँ के शंकालू मन पर विश्वास का मरहमलगाते हुए कहा था, भुवन चाचा ने ‘‘इसमें डरने की बात क्या है भाभी..... मैं हूँ न ... अकेली कहाँ जा रही हैं लड़कियाँ ... और अब उसकाथर थर कांपता हाथ - भागोऽ...........‘‘भुवन चाचा के थरथर काँपतेजिस्म और कातर चेहरे को देख हम समझ गई थी कि मृत्यु निश्चितहै, फिर आखिरी सांस तक कोशिश जारी रखनी है ..... पल भर में समय उलट जायेगा तब कहाँ सोचा था हमने ... सोचने की फुर्सत भी कहाँ थी, नदी के किनारे रेत देखी, रेत के घरौंदेबनाने लगी, बमुश्किल आते हैं ऐसे विरल क्षण जब अपना समय था, जिसे हम अपने मुताबिक पा सकते थे। माँ ने बहुत रोका था- अभीछोटी है लड़कियाँ ‘‘कितनी बार की थी माँ की चिरौरी ‘‘माँ मुझे नदीदेखनी है मछलियाँ देखनी हैं और देखना है घटवार ...’’ नदी से तो माँकांप ही उठी थी’’ ना बाबा नदी में मछलियाँ देखने जाना है तोबिल्कुल नहीं भेजूँगी, नदी में कितने ही लोग डूब गये गर्मियों में बर्फपिघल कर आती है ऊपर से ... पानी कब बढ़ता है पता नहीं चलता‘‘भुुवन चाचा बोले थे’’ नदी में कौन जाने देगा इनको... अरे! भाभीनदी में तो मगरमच्छ भी रहता है... ‘‘भुवन चाचा ने आँख झपकायीथी माँ को, भुवन चाचा के घर पिसान समाप्त हो चुका था, दादीबीमार थी, ‘‘चूल्हा जलाना है तो आटा घटवार से पिसा कर लानाहोगा, भुवन ‘‘दादी ने बुखार में कराहते कहा था। भुवन चाचा अपनेघर में बड़ा, बड़ी बहन शादी करके जा चुकी थी, छोटी बहन माधुरीमेरी सहेली मेरे बिना घटवार में जाना स्थगित कर रही थी, फिर उसनेकहा कि नदी में मछलियाँ रहती हैं जो किनारे आकर लहरों को भीसाथ लाती हैं, उसने खेत की ढ़लान से दिखाई थी नदी, नदी के ऊपरघटवार जिसके पत्थर धूप में चमक रहे थे। माँ ने कहा हमारे घर मेंपिसान के कनस्तर भरे हैं, फिर भी थोड़ा मक्की और ज्वार के दानोंकी पोटली बना कर झोले में रख दी थी, पिछली रात मुझे नदी कासपना भी आया था, नीले जल की धारा मीठा-मीठा राग गुनगुनातीलहरों के साथ उसकी मछलियाँ उछलती गोया लहरों में नृत्य कर रहीहों..... नदी कह रही थी, शिवानी मेरी मछलियों को छूकर देख.... मैंनेनदी को छुआ..... तो मैं बहने लगी धारा में.... मैंने मछलियों को छुआतो मेरे पंख उग आये मैं उड़ने लगी हवा में ऊपर ... मगरमच्छ को मैंनेनहीं देखा, मैंने देखा सिर्फ पानी, बहता पानी, पानी के साथ बहतीमछलियाँ, सपना मुझे पंख देकर उड़ाने पर आतुर चन्द्रमा के समीप! चन्द्रमा हँस रहा था’’ इतनी सी खुशी चाहिये बस्स...’’ मैंने कहा’’ हाँबस इतनी सी खुशी .. मैंने सपने की बात माधुरी और भुवन चाचासे कही, भुवन चाचा ने मेरे सिर पर चपत मारी ‘‘इतनी छोटी लड़कीऔर इतने बड़े सपने कि चाँद से बतिया कर आये... उसने घुड़कनेके अंदाज में कहा’’ छोटे सपने देखा कर लड़की.... बेवकूफ! उसे पता ही नहीं सपनों पर अपना वश नहीं चलताउन्हें तो नींद लेकर आती है, जैसे मछलियों को लेकर आता है पानी... चीड़ के लम्बे जंगल को पार कर हम पहाड़ की ढलान पर उतरते खूबनीचे आये थे। घाटी में यहीं था घटवार नदी के ऊपर घने पेड़ों केबीच जहाँ से एक छोटी धारा बहती थी। घटवार में कोई नहीं सिर्फअनाज के बोरे ठसाठस भरे थे, बोरों के पीछे दिखी घटवाड़ी कीटोपी, भुवन चाचा ने थैला उतार कर पूछा ‘‘हम दूर से आये हैं, हमाराअनाज पिस जायेगा घटवाड़ी भैजी ?’’ घटवाड़ी ने कहा ‘‘पिसेगा ... क्यों नहीं पिसेगा दोपहर तकजरूर पिस जायेगा’’ भुवन चाचा बैठ गया अनाज के बोरों के ऊपर, हम देहरी सेझांक कर घटवार को चलते देखने लगी, उसका पानी बहुत तेजी केसाथ बहता, पानी का इतना शोर, घटवार की टिक टिक आवाज काशोर दोनों मिलकर दहशत देने लगे, तो हम बाहर हो लिये, माधुरी नेकहा ‘‘शिवानी चल... नदी देखने चलते हैं... तू मेरे भाई से पूछले...’’ भुवन चाचा ने घूरकर देखा ‘‘नदी में डूब जाते हैं लोग... क्याकहा था तेरी माँ ने ... याद है न ...?’’ माधुरी भी हाँ सुनने के लिए अन्दर आ चुकी थी, उसने चिरौरीकी, ‘‘हम रेत में ही खेलेंगे भाई आगे नहीं जायेंगे...’’ भुवन चाचा नेआँख दिखाई बोला ‘‘न हींऽ ‘‘घटरवारी को हमारे, उदास चेहरे अच्छेनहीं लगे वह भी उदास हो गया। उसके चेहरे पर आटा पुता था, परआँखों से उदासी झलकने लगी, पृथ्वी पर कुछ अच्छे लोग भी होते हैं, जिन्हें छोटी बच्चियों का उदास होना अच्छा नहीं लगता, जैसे बागको तितलियों का चुप बैठना अच्छा नहीं लगता, वह फूल खिलाता हैकि तितलियाँ मंडराती रहें तभी दिखता है, सौन्दर्य प्रकृति का, मैंने हीमन कहा, हे भगवान! अच्छे लोगों की दुनिया बनाओ... जिन्हें छोटीलड़कियों की कद्र हो... हमारे घर वालों की तरह जेलर मत बनाओकि जरा सा आसमान माँगने पर! मुट्ठी में कसने लगी है गर्दन - ‘‘जानेदो बेटा... कोई डर नहीं नदी के किनारे पानी भी कम है...’’ घटवाड़ीभुवन चाचा की मनुहार कर रहा था। भुवन चाचा के चेहरे पर धूप की तितली बैठी, माधुरी हवा मेंउड़ी उसके पंख पकड़ कर मैं भी उड़ने लगी.... उस विजन में हम दो लड़कियाँ जिंदगी की नौवीं-दसवीं सीढीपर पांव रखती प्रकृति की भव्यता से अभीभूत! रेत में नहा रही कत्थईरंग की चिड़िया हमारे पास आकर जल का मोती चुगने लगी, हमारेपांव नदी मंे थे, हम पत्थरों पर बैठी नदी का बहना देख रही थी, सिर्फ नदी का कोलाहल और दूर तक कोई नहीं, माधुरी बोली ‘‘नदीकुछ कह रही है सुन - मैंने उसकी आवाज पर कान रखा’’ नदी बोली‘‘मछली की तरह उतरो मेरी धारा में....‘‘ पारदर्शी जल में मछलियों का तैरना दिखा, लेकिन हमारे पासतो दूसरी फ्राकें नहीं हैं, नदी बोली ‘‘फ्राके ंउतार दो कूद जाओधारा में... किनारे कम पानी था, माधुरी बोली’’ शिवानी पहले रेत मेंलेटते हैं। मैंने कहा,...
सुलगते आँसू ऑफिस पहुँचकर मानसी ने घडी देखी और चैन की साँस ली। समय के पहले ही आ गयी थी...