जले  जब पांव अपने  तब कहीं जाकर समझ आया – डॉ अनिल त्रिपाठी

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ग़ज़ल

जले  जब पांव अपने 

तब कहीं जाकर समझ आया

जले  जब पांव अपने  तब कहीं जाकर समझ आया
घने  बरगद सरीखा था मेरे मां बाप का साया

   जो अक्सर  खांस  कर करवट बदल लेते थे बिस्तर पर
उन्हें मालूम होता था कि मैं कल रात कब आया

  किसी को क्या  गरज जो हाल मेरा खुद समझ जाए
वो  मेरी मा  ही थी जो पूछती थी आज क्या खाया

बहुत हैं लोग  दुनिया में मगर फिर भी अकेला हूं
तुम्हारे बाद इस दुनिया में फिर कुछ भी नहीं भाया

डॉ अनिल त्रिपाठी

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