काव्य / गीत – ग़ज़ल

चले जा रहे होगे तुम – कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा

चले जा रहे होगे तुम चले जा रहे होगे तुम, ओ दूर देश के वासी। चली रात भी, चले मेघ भी, चलने के अभ्यासी। भरा असाढ़,घटाएँ काली नभ में लटकी होंगी; चले जा रहे होगे तुम कुछ स्मृतियाँ अटकी होंगी। छोड़ उसाँस बैठ गाड़ी में दूर निहारा होगा, जबकि किसी अनजान दिशा ने तुम्हें पुकारा होगा, हहराती गाड़ी के डिब्बे में बिजली के नीचे, खोल पृष्ठ पोथी के तुमने होंगे निज दृग मींचे। सर सर सर पुरवैया लहकी होगी सुधि मंडराई, तभी बादलों ने छींटे...

जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे – कवि भारत भूषण अग्रवाल

जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे  जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे ढूँढते फिरोगे लाखों में फिर कौन सामने बैठेगा बंगाली भावुकता पहने दूरों दूरों से लाएगा केशों को गंधों के गहने ये देह अजंता शैली सी किसके गीतों में सँवरेगी किसकी रातें महकाएँगी जीने के मोड़ों की छुअनें फिर चाँद उछालेगा पानी किसकी समुंदरी आँखों में दो दिन में ही बोझिल होगा मन का लोहा तन का सोना फैली बाहों सा दीखेगा सूनेपन में कोना कोना किसके कपड़ों में टाँकोगे अखरेगा किसकी बातों में पूरी दिनचर्या ठप होना...

जैसे पूजा में आँख भरे – कवि भारत भूषण अग्रवाल

जैसे पूजा में आँख भरे  जैसे पूजा में आँख भरे झर जाय अश्रु गंगाजल में ऐसे ही मैं सिसका सिहरा बिखरा तेरे वक्षस्थल में! रामायण के पारायण सा होठों को तेरा नाम मिला उड़ते बादल को घाटी के मंदिर में जा विश्राम मिला ले गये तुम्हारे स्पर्श मुझे अस्ताचल से उदयाचल में! मैं राग हुआ तेरे मनका यह देह हुई वंशी तेरी जूठी कर दे तो गीत बनूँ वृंदावन हो दुनिया मेरी फिर कोई मनमोहन दीखा बादल से भीने आँचल में! अब रोम रोम में तू ही तू जागे जागूँ सोये सोऊँ जादू छूटा किस तांत्रिक का मोती उपजें आँसू बोऊँ ढाई आखर की ज्योति जगी शब्दों के बीहड़ जंगल में!

मन! कितना अभिनय शेष रहा – कवि भारत भूषण अग्रवाल

मन! कितना अभिनय शेष रहा  मन! कितना अभिनय शेष रहा सारा जीवन जी लिया, ठीक जैसा तेरा आदेश रहा! बेटा, पति, पिता, पितामह सब इस मिट्टी के उपनाम रहे जितने सूरज उगते देखो उससे ज्यादा संग्राम रहे मित्रों मित्रों रसखान जिया कितनी भी चिंता, क्लेश रहा! हर परिचय शुभकामना हुआ दो गीत हुए सांत्वना बना बिजली कौंधी सो आँख लगीं अँधियारा फिर से और लगा पूरा जीवन आधा–आधा तन घर में मन परदेश रहा! आँसू–आँसू संपत्ति बने भावुकता ही भगवान हुई भीतर या बाहर से टूटे...

हर ओर कलियुग के चरण – कवि भारत भूषण अग्रवाल

हर ओर कलियुग के चरण हर ओर कलियुग के चरण मन स्मरणकर अशरण शरण। धरती रंभाती गाय सी अन्तोन्मुखी की हाय सी संवेदना असहाय सी आतंकमय वातावरण। प्रत्येक क्षण विष दंश है हर दिवस अधिक नृशंस है व्याकुल परम् मनु वंश है जीवन हुआ जाता मरण। सब धर्म गंधक हो गये सब लक्ष्य तन तक हो गये सद्भाव बन्धक हो गये असमाप्त तम का अवतरण।

लो एक बजा दोपहर हुई – कवि भारत भूषण अग्रवाल

लो एक बजा दोपहर हुई  लो एक बजा दोपहर हुई चुभ गई हृदय के बहुत पास फिर हाथ घड़ी की तेज सुई पिघली सड़कें झरती लपटें झुँझलाईं लूएँ धूल भरी किसने देखा किसने जाना क्यों मन उमड़ा क्यों आँख चुई रिक्शेवालों की टोली में पत्ते कटते पुल के नीचे ले गई मुझे भी ऊब वहीं कुछ सिक्के मुट्ठी में भींचे मैंने भी एक दाँव खेला, इक्का माँगा पर पर खुली दुई सहसा चिंतन को चीर गई आँगन में उगी हुई बेरी बह गई लहर के साथ लहर कोई मेरी कोई तेरी...

राम की जलसमाधि – कवि भारत भूषण अग्रवाल

राम की जलसमाधि पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से, हारा-हारा, रीता-रीता, निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम, निःशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता। किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथमन किसलिए रहे, धरती को मैं किसलिए सहूँ, धरती मुझको किसलिए सहे। तू कहाँ खो गई वैदेही, वैदेही तू खो गई कहाँ, मुरझे राजीव नयन बोले, काँपी सरयू, सरयू काँपी, देवत्व हुआ लो पूर्णकाम, नीली माटी निष्काम हुई, इस स्नेहहीन देह के लिए, अब साँस-साँस संग्राम हुई। ये राजमुकुट, ये सिंहासन, ये दिग्विजयी वैभव अपार, ये प्रियाहीन जीवन मेरा, सामने नदी की अगम धार, माँग रे भिखारी, लोक माँग, कुछ और माँग अंतिम बेला, इन अंचलहीन आँसुओं में नहला बूढ़ी मर्यादाएँ, आदर्शों के जल महल बना, फिर राम मिलें न मिलें तुझको, फिर ऐसी शाम ढले न ढले। ओ खंडित प्रणयबंध मेरे, किस ठौर कहां तुझको जोडूँ, कब तक पहनूँ ये मौन धैर्य, बोलूँ भी तो किससे बोलूँ, सिमटे अब ये लीला सिमटे, भीतर-भीतर गूँजा भर था, छप से पानी में पाँव पड़ा, कमलों से लिपट गई सरयू,...

फिर-फिर बदल दिए कैलेण्डर – कवि भारत भूषण अग्रवाल

फिर- फिर बदल दिए कैलेण्डर फिर फिर बदल दिये कैलेण्डर तिथियों के संग संग प्राणों में लगा रेंगने अजगर सा डर सिमट रही साँसों की गिनती सुइयों का क्रम जीत रहा है! पढ़कर कामायनी बहुत दिन मन वैराग्य शतक तक आया उतने पंख थके जितनी भी दूर दूर नभ में उड़ आया अब ये जाने राम कि कैसा अच्छा बुरा अतीत रहा है! संस्मरण हो गई जिन्दगी कथा कहानी सी घटनाएँ कुछ मनबीती कहनी हो तो...

मेरी नींद चुराने वाले – कवि भारत भूषण अग्रवाल

मेरी नींद चुराने वाले मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए पूनम वाला चांद तुझे भी सारी-सारी रात जगाए तुझे अकेले तन से अपने, बड़ी लगे अपनी ही शैय्या चित्र रचे वह जिसमें, चीरहरण करता हो कृष्ण-कन्हैया बार-बार आँचल सम्भालते, तू रह-रह मन में झुंझलाए कभी घटा-सी घिरे नयन में, कभी-कभी फागुन बौराए मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए बरबस तेरी दृष्टि चुरा लें, कंगनी से कपोत के जोड़े पहले तो तोड़े गुलाब तू, फिर उसकी पंखुडियाँ तोड़े होठ थकें ‘हाँ’ कहने में भी, जब कोई आवाज़ लगाए चुभ-चुभ जाए सुई हाथ में, धागा उलझ-उलझ रह जाए मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए बेसुध बैठ कहीं धरती पर, तू हस्ताक्षर करे किसी के नए-नए संबोधन सोचे, डरी-डरी पहली पाती के जिय बिनु देह नदी बिनु वारी, तेरा रोम-रोम दुहराए ईश्वर करे हृदय में तेरे, कभी कोई सपना अँकुराए मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

मैं हूँ बनफूल – कवि भारत भूषण अग्रवाल

मैं हूँ बनफूल  मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना मैं भी उनमें ही हूँ जिनका, जैसा आना वैसा जाना सिर पर अंबर की छत नीली, जिसकी सीमा का अंत नहीं मैं जहाँ उगा हूँ वहाँ कभी भूले से खिला वसंत नहीं ऐसा लगता है जैसे मैं ही बस एक अकेला आया हूँ मेरी कोई कामिनी नहीं, मेरा कोई भी कंत नहीं बस आसपास की गर्म धूल उड़ मुझे गोद में लेती है है घेर रहा मुझको केवल सुनसान भयावह वीराना सूरज आया कुछ जला गया, चंदा आया कुछ रुला गया आंधी का झोंका मरने की सीमा तक झूला झुला गया छह ऋतुओं में कोई भी तो मेरी न कभी होकर आई जब रात हुई सो गया यहीं, जब भोर हुई कुलमुला गया मोती लेने वाले सब हैं, ऑंसू का गाहक नहीं मिला जिनका कोई भी नहीं उन्हें सीखा न किसी ने अपनाना सुनता हूँ दूर कहीं मन्दिर, हैं पत्थर के भगवान जहाँ सब फूल गर्व अनुभव करते, बन एक रात मेहमान वहाँ मेरा भी मन अकुलाता है, उस मन्दिर का आंगन देखूँ बिन मांगे जिसकी धूल परस मिल जाते हैं वरदान जहाँ लेकिन जाऊँ भी तो कैसे, कितनी मेरी मजबूरी है...