गांव में पैदा हुआ था…बहुत बड़ा घर था.मोटी मोटी मिट्टी की दीवारों पर भारी भारी लकड़ियों और पटरों पर इलाहाबादी खपरैल रहते थे। बड़ा सा आंगन, पशुओं के लिए दरखोला, घर के पीछे छोटा बागीचा।
अब तो घर जमींदोज़ हो गया। उसकी जगह एक छोटे घर ने ले ली है। गाय और भैंस तो थी ही, बचपन में मेरे बाबा ने ख़ास मेरे लिए एक दुधारू बकरी भी मंगवाई थी, बच्चे को शुद्ध दूध मिल सके।
बाबा ज़मींदार, रोब दाब वाले और दादी शुद्ध गृहिणी। मेरी मां, शहर में पढ़ी थीं । गांव में अनपढ़ों की तादाद ज़्यादा थी। उनको लगा कि बच्चे पढ़ नहीं पायेंगे। इसलिए बच्चों को पढ़ाने के लिए दादा दादी की इच्छा के विरुद्ध जाकर शहर आ गईं।
छूट गया गांव, गांव का वह शिवाला जिसके इर्दगिर्द हमलोग खेला करते थे ।परिसर का वह मंदिर जिसकी घंटियां और घड़ियाल मीठा प्रसाद पा लेने को लालायित किया करता था। शहर में माहौल दूसरा था।
मां ने बच्चों को पढ़ाया, योग्य बना डाला। हां, पिताजी वकालत करते थे । शहर में भी उन दिनों खपरैल का घर हुआ करता था। बरसात में कभी इधर कभी उधर खाट हटानी पड़ती। लाइट तो थी ही नही। लैम्प और लालटेन की रौशनी में पढ़ाई हुई। सुबह रेडियो से भजन सुनते उठना होता था और रात में हवामहल सुनकर सोना होता था।
सेंट एन्ड्रयूज इंटर कालेज और डी.ए.वी.में पढ़ाई हुई। हम किशोर और युवा हो रहे थे और छूटता जा रहा था बचपन……
तमाम असुविधा के बावजूद बचपन फिर भी मोहक था। पूरा मुहल्ला परिवार लगता था।सब एक दूसरे को जानते थे। सुख दुख में साथ रहते। पंख लगाकर कब और कहां उड़ गया बचपन, पता ही नहीं लगा।
अब सारी सुख सुविधाएं हैं, लेकिन वह अनिवर्चनीय सुख नहीं है जो बचपन में पाता रहा। हां, पौत्र पौत्रियों के बीच जब रहता हूं तो सच मानो बचपन एक बार फिर जीवंत हो उठता है। और..और पार्श्व में अब भी रेडियो से सुनाई देने लगता है वह गीत..
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन..
सेंट एन्ड्रयूज कालेज,गोरखपुर जहां से मैंने हाई स्कूल किया
2 thoughts on “संस्मरण : कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन – प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी”
भाई श्री अशोक हमराही जी,आप और आपकी टीम ने बहुत ही प्रशंसनीय काम किया है।प्रकाशक डाट इन ढेर सारी रचनात्मक प्रतिभाओं को मंच दे रहा है और साहित्यिक अभिरुचि रखने वालों को भरपूर प्रोत्साहन भी !मैं बचपन से यौवन तक ख़ूब लिखा और ख़ूब छपा।सेवा में रेडियो के लिए ही लिखना पढ़ना ज्यादातर हुआ।लेकिन रिटायरमेंट के बाद जब फिर लिखने पढ़ने लगा तो पत्र पत्रिकाएं व्यावसायिक हो चली थीं।वे वही छाप रहे हैं जिनसे उनका अख़बार/पत्रिका बिके।पारिश्रमिक का तो सवाल ही नहीं।फलस्वरूप थोड़ा मायूस हुआ।फ़ाइलों और डायरियों में रचनाएँ दम घुटने लगीं कि आप प्रकाशक डाट इन के साथ अवतरित हुए।आपको बधाई।
भाई श्री अशोक हमराही जी,आप और आपकी टीम ने बहुत ही प्रशंसनीय काम किया है।प्रकाशक डाट इन ढेर सारी रचनात्मक प्रतिभाओं को मंच दे रहा है और साहित्यिक अभिरुचि रखने वालों को भरपूर प्रोत्साहन भी !मैं बचपन से यौवन तक ख़ूब लिखा और ख़ूब छपा।सेवा में रेडियो के लिए ही लिखना पढ़ना ज्यादातर हुआ।लेकिन रिटायरमेंट के बाद जब फिर लिखने पढ़ने लगा तो पत्र पत्रिकाएं व्यावसायिक हो चली थीं।वे वही छाप रहे हैं जिनसे उनका अख़बार/पत्रिका बिके।पारिश्रमिक का तो सवाल ही नहीं।फलस्वरूप थोड़ा मायूस हुआ।फ़ाइलों और डायरियों में रचनाएँ दम घुटने लगीं कि आप प्रकाशक डाट इन के साथ अवतरित हुए।आपको बधाई।
अति सुन्दर व रोचक मनमोहक सजीव चित्रण आप ने प्रस्तुत किया है ।