संस्मरण:दर्रों की घाटी लद्दाख
लेखिका संतोष श्रीवास्तव
अक्टूबर का खुशनुमा महीना और श्रीनगर से कारगिल की ओर रवाना होती हमारी मिनी बस ।बड़ा ही रोमांचक लगता है दुर्गम रास्तों का सफ़र ।ऊंचे ऊंचे भयानक खूबसूरती को समेटे पर्वत और अंधकार को गले लगाए गहरी गहरी घाटियां ।
मिनी बस के ड्राइवर का नाम हैदर था। हंसमुख पठानी मर्द। मैंने उससे रास्ते की जानकारी चाही तो तपाक से बोला “ओ जी चल रहे हैं वुहान कैंप ।जहाँ से मिलिट्री एरिया शुरू होता है। “
मैंने देखा छल छल बहते पारदर्शी पानी को चढ़ाई उतराई में संग संग बहते। वह सिंधु नदी थी। हमारी बस श्रीनगर से लेह राष्ट्रीय राजमार्ग पर थी ।रास्ते के दोनों ओर चिनार के पेड़ ही पेड़। चिनार के तांबे या हरे या हल्के लाल पत्ते पतझड़ में सड़क को ढंक देते हैं। तब पत्रविहीन चिनार की डालियां सूनी सूनी निर्निमेष सामने के ऊंचे ऊंचे पहाड़ों को बस देखती रहती हैं। पहाड़ कहीं-कहीं बर्फ से ढके थे ।रास्ते में चुने हुए पत्थरों के ढेर ,नदी के किनारे भी गोलाकार सफेद पत्थर जैसे पत्थरों की नुमाइश लगी हो ।नदी के ऊपर लकड़ी के हरे पेंट से रंगे पुल पर से जब बस गुजरती तो वह तेज़ आवाज कर खामोश वादियों को चौंका देता। सामने जोजिला पास ।जोजिला पास से गुजरते हुए युद्ध के दिन याद आ गए। यहीं बहा होगा पाकिस्तानी सैनिकों से मुकाबला करते हुए भारतीय सैनिकों का लहू। उनकी स्मृति में जोजिला वार मेमोरियल बना है। लाल सफेद रंगों वाला स्मारक देखते ही दाहिना हाथ सेल्यूट की मुद्रा में माथे तक पहुँच गया ।रास्ते में पड़ने वाले सभी गाँव बहुत कम आबादी वाले गाँव थे ।टीन के शेड वाले बस 20 या 25 मकान होंगे। चाहे डुमरी एरिया हो या मीणा मार्ग सभी एक जैसे गाँव ।समझ में नहीं आ रहा था कि पर्वत सड़क की दाहिनी ओर हैं या सामने या वैली से निकल रहे हैं क्योंकि रास्ता घुमावदार था ।पर्वतों पर वनस्पति नहीं के बराबर लेकिन मिट्टी के विविध रंग जैसे प्रकृति ने होली खेली हो इन पर्वतों के संग। हरे, भूरे, गेरू रंग के पीले कहीं गुलाबी भी। पर्वतों के पीछे से झांकते बर्फीले पहाड़ उन्हीं में से एक टाइगर हिल है जिसका आधा हिस्सा पाकिस्तान में है और आधा हिंदुस्तान में। कारगिल युद्ध के दौरान टाइगर हिल पर बने सैनिक बंकरों ने भारी तबाही मचाई थी। इन बंकरों को पाकिस्तान के चंगुल से छुड़ाने के लिए भारतीय सेना को असाधारण नीति से काम लेना पड़ा था।
थोड़ी ही देर में हम द्रास पहुँच गए। द्रास विश्व का दूसरा सबसे अधिक ठंडा आबादी वाला स्थान है ।सर्दी के मौसम में यहाँ तापमान शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस नीचे तक पहुँच जाता है ।अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस तरह की भीषण सर्दी में जीवन निर्वाह कितना मुश्किल होगा। गर्मी के चार ,पाँच महीनों में ही खाद्य सामग्री, ईंधन ,पेट्रोल तथा जरूरत की सभी चीजों का स्टॉक करना पड़ता है। बता रहे थे रेस्तरां के मालिक जगजीत जिनके रेस्तरां में हम ठंड से टकराते हुए उबलती चाय बिना फूंक मारे पी रहे थे। जगजीत ने बताया
“मैं तो यहाँ स्कूल में शिक्षक हूँ और यह रेस्तरां भी चलाता हूँ।अभी तो ऑफ सीजन है वरना यहाँ देशी-विदेशी पर्यटकों की भीड़ रहती है। द्रास में खूबानी खूब पैदा होती हैं। बाकी सामान जम्मू से आता है ।सब सामान गर्मियों में ही स्टोर कर लेना पड़ता है। क्योंकि श्रीनगर लेह राजपथ और लद्दाख मनाली मार्ग दोनों बर्फ की ऊंची ऊंची परतों से ढक जाते हैं। कृषि और उद्योग तो यहाँ नहीं के बराबर है।” एकाएक जगजीत के चेहरे पर पीड़ा झलक आई-“रह -रह कर पाकिस्तान की तरफ से अकारण गोलीबारी होती रहती है। कभी कोई जवान शहीद हो जाता है तो कभी कोई। कारगिल युद्ध की मार तो हम अभी तक नहीं भूल पाये हैं । 1999 से लगभग दो महीनों तक कारगिल ,मुश्की,द्रास बटालिक नूबरा आदि क्षेत्रों में सेना और आतंकवादियों की झड़पें चलती रहीं।उस वक्त हम सबने मिलकर उनका सामना किया। हालांकि कईयों को घर छोड़ने पड़े और परिवारजनों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा। लेकिन उससे क्या ।पाकिस्तान हमें जीने नहीं देगा तो क्या हम उसे जीने देंगे ?”
जगजीत के रेस्त्रां की दीवारों पर लद्दाख की हसीन वादियों की, नक्शे की और शहीदों की तस्वीरें उसके देश प्रेम को प्रकट कर रही थीं। विदा लेते वक्त मैंने उसे ” जय हिंद “कहा उसने भी तपाक से सैल्यूट किया-” जय हिंद मेरा भारत महान।”
कारगिल की ओर बढ़ते हुए हैदर ने बताया लद्दाख में बरसात द्रास तक ही होती है ।इसके बाद पानी की बूंदे बर्फ बनकर गिरती है ।”कारगिल में प्रवेश करते ही मन कई तरह के रोमांच से भर गया।
हमें जिस होटल “कारवां सराय “में रात बितानी थी वह बहुत ऊंचाई पर ढेरों सीढ़ियां चढ़कर था। यहाँ कमरा तापमान की तुलना में गर्म नहीं था लेकिन नीचे उतर कर जो डाइनिंग रूम था वह अपेक्षाकृत गर्म था। खाना पंजाबी तरीके से पकाया हुआ जायकेदार था। जम्मू के बाद अब अच्छा खाना नसीब हुआ। होटल के मैनेजर सरदार जी थे। बेहद सीधे एकदम किसान जैसे लग रहे थे। हमने खाने की तारीफ की तो खुश होकर गरम रोटियाँ मंगवाने लगे।
” बहन जी अभी तो ऑफ सीजन है। आपके लिए ही होटल खुला रखा है। कल तो बंद करके हम भी पंजाब चले जाएंगे।”
“यहाँ पर्यटक कब आते हैं?”
” जनवरी से लेकर जुलाई महीने तक तो कम भीड़ रहती है। अगस्त सितंबर में घाटियाँ और पेड़ों पर बसन्त आ जाता है। उस वक्त यहाँ की सुंदरता देखने बहुत पर्यटक आते हैं ।”
यानी कि हम एक महीना लेट हो गए यहाँ आने में। खाना खाकर कमरे में आए तो नल खुल ही नहीं रहा था। वही सरदारजी छेनी हथौड़ी लिए नमूदार।
” अरे आप?”
” क्या करें सब छुट्टी पर चले गए ।”
जब हम बालकनी में खड़े थे तो देखा सरदार जी इस कमरे से उस कमरे भाग रहे हैं छेनी हथौड़ी लिए गर्म पानी के नल को ठीक करने। सामने घाटी रात के अंधेरे में बेहद खूबसूरत दिख रही थी । वैली के घरों में बत्तियाँ जगमगा रही थीं।
लद्दाख के दो जिले हैं । कारगिल और लेह।कारगिल की आबादी 25 हज़ार है। पर्यटन ही मुख्य व्यवसाय है ।बाकी मिलिट्री एरिया होने के कारण अन्य माल की खपत जम्मू से होती है। यहाँ इस्लाम धर्म के अनुयायी अधिक हैं। खासकर शिया धर्मावलंबी ।ईरान से भी इनके लिए फंड आता है ।चीन से भी माल आता है। लद्दाख प्रदेश सदियों से एशिया के साथ व्यापार संबंधों का द्वार रहा है। अपनी अद्भुत सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखते हुए आधुनिकीकरण की ओर बढ़ते कदम अनूठी मिसाल पेश कर रहे हैं। क्योंकि यहाँ जीवन बहुत अधिक विषम है। महंगाई बहुत अधिक है। क्योंकि 80% माल तो बाहर का ही होता है। रात हमने कारवां सराय में ठिठुरते हुए गुजारी ।
सुबह नाश्ते के बाद लगभग 11 बजे हम लेह की ओर रवाना हुए ।लेह कारगिल से 240 किलोमीटर की दूरी पर है और जम्मू से 800 किलोमीटर की दूरी पर । हैदर ने कारगिल फिलिंग स्टेशन से पेट्रोल भरवाया। ठंड अधिक थी। कारगिल में 40 फुट तक बर्फ गिर जाती है। इतनी ठंड में पाकिस्तानी सैनिकों ने जिनमें आतंकवादी भी शामिल थे कारगिल के टाइगर वैली में हथगोले, गोलियां और सारे युद्ध के हथियारों की वर्षा कर दी थी। कारगिल के सिविलियन भी सड़कों पर उतर आए थे। पूरा कारगिल युद्ध के मैदान में तब्दील हो गया था। भारी मन से मैं कारगिल की सड़कों को निहार रही थी और उन शहीदों को सलाम कर रही थी जो हमारी रक्षा करते करते कुर्बान हो गए थे ।लेकिन समय सबसे बड़ा मलहम है। मेरे भर आये मन पर यहाँ की अद्भुत प्रकृति ने फाहा फेरा। लिंक रोड पर पीले पत्तों वाले पेड़ों ने मन मोह लिया। सामने सिंधु ओर जन्सकर नदी का खूबसूरत संगम था।जंसकर नदी जनवरी-फरवरी में जम जाती है। पूरी नदी पर बर्फ की चादर बिछ जाती है। यही वह समय होता है, जब यहाँ पर्यटकों की बाढ़-सी आ जाती है। गांव के लोग घर का पूरा सामान खरीदने निकलते हैं।
मुलबक से आगे खरबू गाँव में बौद्ध विहार हैं ।गौतम बुद्ध की आदमकद मूर्ति और धम्मचक्र है। सफेद रंग से पुते चौकोन स्थल पर कलश जैसे रखे हैं। लाल सुनहरे कंगूरेदार स्थापत्य कतारबद्ध। घाटी में भी सफेद कँगूरे दार मकान हैं। पक्की सड़क जो लगभग 50 किलोमीटर तक चली गई है ।बाईं तरफ रंग-बिरंगे अद्भुत पर्वत और दाहिनी ओर संग संग चलती सिंधु चुपके चुपके न जाने कब से मेरी हमसफर ।
द्रास,मुलबक, मठाईयां गाँव से गुजरते हुए नमकीला पास आया । जहाँ नमक के पहाड़ सूरज की रोशनी में चमक रहे थे। मुंबई में समुद्र से नमक बनता है ।यहाँ नमकीला ग्लेशियर की धार से। इस नमकीन धार को क्यारियों में इकट्ठा कर नमक बनाया जाता है। काँगरिल गाँव में कुछ तिब्बती बच्चे पत्थरों पर बैठे थे। हमने उनकी फोटो खींची तो खुश होकर बोले “थैंक यू” यानी शिक्षा वैली में बसे इस छोटे से गाँव तक पहुँच चुकी है ।
सफेद ईंटों से सजा और बीच में लाल हरे सफेद रंगों से A1 -105 लिखा शहीद स्मृति स्थल था। सब जगह शहीदों की स्मृतियाँ।
बड़ी अद्भुत निराली प्रकॄति दिखी यहाँ।ऊंचे पर्वतों को देखकर लग रहा था न जाने कितने रहस्य अपने में समेटे ये निर्विकार शांत खड़े हैं और तभी सिलसिला शुरू हो जाता है बर्फविहीन ,रंग बिरंगी मिट्टी वाले पर्वतों का ।आबादी छिटपुट….. नहीं के बराबर ।तभी अचानक बीच में छोटी सी हरी-भरी घाटी दिखाई पड़ जाती है ।जहाँ जिंदगी बड़ी ही सुस्त रफ्तार से चलती नजर आती है। कच्चे मकान इक्का-दुक्का ,चरते हुए जानवर ,खुबानी के हरे पेड़ ,हवाएं तेज और ठंडी कँटीली सी। पिछले मौसम में झुरमुट में उगी वनस्पति सूखकर गहरी लाल, काली सी दिख रही थी। मानो किसी ने गोबर के कंडे( उपले) बनाकर चिपकाए हों।
रात घिर आई थी। अँधे मोड़ ,खतरनाक पहाड़ी रास्ते, आसमान में पूर्णिमा के बाद वाली चतुर्थी का चाँद चमक रहा था। शुभ्र ज्योत्सना बिखरी थी। लिहाजा टेंशन क्यों ? रास्ता पार हो ही जाएगा। मैग्नेट हिल्स पर गाड़ी रोककर हमने अद्भुत दो मैग्नेट पर्वत देखे। साउथ और नॉर्थ हिल्स ।इनकी मैग्नेट पहले गाड़ियों को खींचे रखती थी ।अब भी गति में रुकावट आ ही जाती है ।दोनों के बीच में पक्की सड़क बनी है और सफेद स्क्वायर बनाकर यह बताया गया है कि संभालकर गाड़ी चलाना ।उतना एरिया मैग्नेटिक है ।पास ही बोर्ड पर यह बात अंग्रेजी में लिखी है ।हमें पत्थरसाहिब गुरुद्वारा भी देखना था। लेकिन वह बंद हो चुका था। प्रार्थना की तो सरदार जी ने अंदर आने दिया।1517 ईस्वी में गुरु गोविंद सिंह तिब्बत से होते हुए लेह आए थे उसके बाद यह गुरुद्वारा बना।
लेह पहुंचते-पहुंचते रात हो गई थी।डाइनिंग रूम में गर्मागर्म डिनर हमारा इंतजार कर रहा था और बिस्तर पर पानी की गर्म थैलियां ।
नींद कब आई पता ही नहीं चला।
इस बार लेह के दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए बड़ी तवेरा गाड़ी मिली। ड्राइवर नीमा स्वयं लद्दाखी था और काफी जानकारियां रखता था। वैसे तो पूरा लद्दाख 96.701 वर्ग किलोमीटर तक फैला है और आबादी 2 लाख है। अकेले लेह की आबादी 25 हज़ार है। यहाँ बौद्ध धर्म के अनुयायी सबसे अधिक हैं ।ईसाई ,मुसलमान भी हैं लेकिन सबसे कम संख्या हिंदू धर्मावलंबियों की है ।ज्यादातर हिंदू होटल बिजनेस से जुड़े हैं ।यहाँ लोहा, स्टील और पर्यटन आय के प्रमुख स्रोत हैं ।लद्दाख जम्मू कश्मीर का हिस्सा है। सरकार लद्दाख के विकास के लिए जो करती है उससे कहीं अधिक इन्हें मिलिट्री हेल्प मिलती है ।यही वजह है कि कारगिल युद्ध के समय इन्होंने सैनिकों की हर तरह से मदद की थी। यहाँ सूरज सुबह 7:30 बजे उदित होता है और शाम 6:00 बजे तक भरपूर चमकता है। धूप लद्दाख के बर्फीले पर्वतों को शीशे सा चमकाती रहती है। इतनी ठंड के बावजूद धूप तीखी और त्वचा को जलाने वाली होती है ।मई से अगस्त तक यहां की प्रकृति पूरे यौवन पर रहती है। खूबानिओं से पेड़ लद जाते हैं। खेतों में गेहूं की फसल लहलहाती है ।सभी तरह की सब्जियां, फल ,सेव ,अखरोट की पैदावार होती है ।केला यहाँ नहीं होता इसलिए बहुत महंगा है । 40 से ₹50 दर्जन ।केला श्रीनगर और चीन से आता है और महंगे दामों में बेचा जाता है। हम यहाँ के सबसे बड़े बौद्ध मठ हेमिस जा रहे थे ।हेमिस में कई ऊंची ऊंची सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं जो एक प्रांगण में जाकर खुलती हैं ।खूबसूरत पच्चीकारी और सुनहले रंग से सजा गेट प्रांगण में कुछ स्तंभ। पांच मंजिल वाली पत्थरों पर बनी इमारत है। जो सफेद और गेरू रंग से रंगी है ।ऊपर चढ़कर गौतम बुद्ध की विशाल मूर्ति है ।उनके बाजू में जबोपेकार देवता हैं जो उनकी रक्षा करता है ।सीढ़ियों पर धम्मचक्र बने हैं। जिन्हें घुमाते हुए मंदिर तक जाना होता है। दीवारों पर गौतम बुद्ध के जीवन की झांकी चित्रित है। म्यूजियम हम देख नहीं पाए ।ऑफ़ सीजन के कारण बंद था ।लामा बाल्यावस्था से ही बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर विवाह नहीं करने, घर-घर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करने और गरीबों की मदद करने का संकल्प लेते हैं। घुटे सिर और कत्थई कपड़ों में लामा बहुत अच्छे दिख रहे थे। खासकर छोटे छोटे बच्चे।
हेमिस खूबसूरत पहाड़ी जगह पर ऊंचे ऊंचे यूलक वृक्षों के जंगल से घिरा है। चारों ओर पहाड़। वहीं एक गुफा में मेडिटेशन केंद्र भी है ।हेमस में हर साल जून या जुलाई में पदमा संभवा की स्मृति में मेला भरता है ।तब यहाँ बौद्ध अनुयायियों तथा स्थानीय लोगों के अलावा विदेशी पर्यटकों की भारी भीड़ गुंपा पूजा स्थान में इकट्ठी होती है। श्रद्धालु पारंपरिक रूप से नृत्य गायन द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करते हैं। इस अवसर पर महान लामा के सम्मान में विशेष कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं।
त्रिशूल हिल के सामने लंबा चौड़ा मैदान है। जहाँ आर्मी को ड्राइविंग सिखाई जाती है। खारू मिलिट्री एरिया भी है। एक पूरी कॉलोनी सैनिकों की है। ठिकसे गाँव के बीच से सुनहले पेड़ों से घिरी सड़क से गुजरते हुए अद्भुत पर्वतीय सौंदर्य दिखाई देता है। ठिकसे मठ में पहुंचकर ऊपर तक निगाह गई। पत्थरों पर बसा अद्भुत शे पैलेस था। बड़े से गेट पर वही चित्रकारी, सुनहला रंग। पत्थर की 120 सीढ़ियां चढ़कर ऊपर गौतम बुद्ध की विशाल मूर्ति का मंदिर है और सामने प्रार्थना स्थल है। वहाँ लामा जोर जोर से मंत्रोच्चारण कर रहे थे। उसके निचली मंजिल में भी बौद्ध मंदिर हैं। सामने पंच धातु से बने दो बड़े दीप कांच के शोकेस में जल रहे थे। थोड़ी सीढ़ियां चढ़कर गौतम बुद्ध की 7 .5 मीटर ऊंची मूर्ति है जो तांबा सोना और चांदी से बनी है। मूर्ति के सामने चांदी के दीपक लाइन से रखे थे। बाजू में सांख्यमुनि की मूर्ति है ।छोटे-छोटे बच्चे सीढ़ियों पर धमाचौकड़ी मचा रहे थे। ऊपर से लेह सिटी का व्यू देखते ही बनता था ।इसी में तीन मंजिल का शे पैलेस है जो लेह मनाली रोड पर सोलवीं सदी में राजा डेलदन नामग्याल ने बनवाया था ।जिसकी ऊपरी मंजिल का कलश सोने का बना है। राजकीय परिवार 1834 में स्टोक महल में आ गया। स्टोक महल में राजपरिवार गर्मियों में रहता था और शे महल में सर्दियों में। शे महल में अब नूतन स्थापत्य का बौद्ध मठ है।
हम सिंधु दर्शन के लिए रवाना हुए। पहले लोग सिंधु दर्शन के लिए पाकिस्तान जाते थे। सिंधु नदी हिमालय से निकलकर लद्दाख से बहती हुई पाकिस्तान जाती है और वहाँ से फिर भारत लौटती है। ऐसा भूगोल समझ आते ही लोग लेह में सिंधु दर्शन करने लगे। 1 जून 2001 को लालकृष्ण आडवाणी के हाथों सिंधु दर्शन का उद्घाटन हुआ । खूब लंबे चौड़े पक्के चबूतरे पर 12 छतरियां गेरू के रंग की हैं ।दो-तीन सीढ़ी उतरकर मैंने सिंधु जल अंजली में भरकर होठों से लगाया तो खारा लगा। पहाड़ी पानी खारा और भारी होता है। पानी की लापरवाही से हिल डायरिया हो जाता है। यहाँ की हवा भी सूखी है। अगर शरीर में पर्याप्त गर्माहट नहीं पहुंची तो बुखार की चपेट में आ जाते हैं। हवा भी तेज थी धूप भी तीखी। अनोखा प्रदेश है लद्दाख। साल में करीब 300 दिन सूर्य पूरी आबताब के साथ चमकता है और रात होते ही बर्फीली ठंड अपनी करामात दिखाती है।
झक्क सफेद शांति स्तूप अधिक ऊंचाई पर स्थित गोल गुंबद पगोडा है जो बौद्ध अध्यापन का प्रतीक है। इसे 1983 में भिक्षु ग्योम्यो नाकामूरा ने जापानी आर्थिक सहायता से बनवाया। 1985 में दलाई लामा ने इससे संलग्न बौद्ध मंदिर बनवाया। विशाल प्रांगण में स्थित शांति स्तूप में तेज हवा ने धर दबोचा ।दर्शन के बाद सभी गाड़ी में आ बैठे ।
सड़क पर काफी चहल-पहल थी। सूर्य अस्त हो चुका था। नीले निरभ्र आकाश पर तारे टिमटिमाने लगे थे।
आज हम मनाली चाइना बॉर्डर रोड पर हैं और समुद्र सतह से 17586 फीट की ऊंचाई तय करने वाले हैं ।वहाँ से 13900 फीट पर स्थित 134 किलोमीटर लंबी पैंगोंग झील तक जाएंगे।
चांगथांग कोल्ड डेजर्ट वाइल्ड लाइफ सेंचुरी से लगा टँग्स स्ट्रीम था ।धूप में झिलमिलाता। आगे गढ़वाल बटालियन का सफेद हरा लाल चिन्ह लगा था। गढ़वाल बटालियन 1962 में हुए भारत चाइना युद्ध में काफी सक्रिय रही। अब त्रिशूल में एयरपोर्ट भी बन गया है ।यह एयरपोर्ट केवल मिलिट्री ही उपयोग में लाती है। सिविलियन नहीं।
चांगला दर्रा 17586 फीट ऊंचा है। बर्फीले पहाड़ की चोटी पर जब हम पहुँचे तो बर्फानी विरल हवा में साँस भरना मुश्किल हो गया। हवा का दबाव काफी कम था ।कपूर सूंघते रहने से साँस नॉर्मल हुई। जो पर्वत दूर से बर्फ से ढका दिखता था अब वह सड़क के किनारे था। यानी हम 17586 फीट की ऊंचाई पर पहुंच चुके थे ।तभी तो हवा का दबाव कम था ।ऐसा लग रहा था जैसे आसमान ने बाहों में भर लिया है ।धरती नीचे छूटी जा रही है ।
आज मैं ऊपर ,आसमां नीचे ।
अब हमें 3586 फीट उतरना था ।जब 14 फीट की ऊंचाई पर पहुंचे। झील के दर्शन हुए। मोरपंखी रंगों वाली झील देखकर मंत्रमुग्ध जैसी स्थिति हो गई ।नीला, हरा ,बैंगनी, पीला, गाढ़ा नीला रंग का पानी कैसे है यहाँ ! पीछे पर्वतों का सौंदर्य भी अद्भुत था। दो तीन रंग के पर्वत झील को अपनी गोद में समेटे थे। दूर चुशूल था ……वह लैंड जिसके इस पार भारत और उस पार चीन है ।यही रंग बिरंगा पानी बहता हुआ चीन तक गया है। सर्दियों में झील जम जाती है। 5 फीट तक का पानी ठोस बर्फ बन जाता है। तब उस पर फौजी गाड़ियां चलती हैं ।जो सीमा पर सैनिक शिविर में सामान पहुँचाती हैं।
झील के किनारे सीजन के समय टैंट लग जाते हैं ।जिनमें देशी-विदेशी पर्यटकों को थ्री स्टार होटल ऐसी सुविधा दी जाती है। पास ही रेस्टोरेंट और सोविनियर शॉप भी है। इक्का-दुक्का फौजी गश्त लगा रहे थे ।सोविनियर शॉप में भी वे बैठे दिखे। इतने ठंडे सुनसान एरिया में सैनिक हमारे देश की रक्षा के लिए डटे रहते हैं।
पैक्ड लंच लेकर हम दूर तक झील के किनारे किनारे गाड़ी से गए और अथाह सौंदर्यवान झील को सलाम कर लेह की ओर लौटने लगे ।
” यहाँ 2 थिएटर हैं। एक मिलिट्री का एक सिविलियन का। हिंदी फिल्में काफी पसंद की जाती है लेकिन इन थियेटरों की बड़ी दुर्दशा है। केवल मजदूर वर्ग ही जाता है वहाँ।
लद्दाख डिग्री कॉलेज ,केंद्रीय विद्यालय, लद्दाख मिशन स्कूल, लद्दाख पब्लिक स्कूल ,दिल्ली पब्लिक स्कूल, टेन प्लस टू स्कूल ,आदि कई स्कूल हैं। जहाँ उच्च शिक्षा प्रदान की जाती है लेकिन टेक्नीशियन शिक्षा के लिए बाहर जाना पड़ता है। प्रकाशन के क्षेत्र में लद्दाख पीछे है ।वैसे यहाँ बौद्ध अखबार निकलता है। बस एक इकलौता दैनिक अखबार ।बाकी के उर्दू ,अंग्रेजी, हिंदी अखबार श्रीनगर ,जम्मू ,दिल्ली से आते हैं ।हिंदी की पत्रिकाएं नहीं के बराबर आती हैं ।लेकिन डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी में हिंदी ,उर्दू ,अंग्रेजी और बौद्ध संस्कृति पर लिखी पुस्तकें उपलब्ध हैं ।इन पुस्तकों को बड़े चाव से पढ़ा जाता है ।तिब्बती बौद्ध परंपराएं यहाँ की समस्त परंपराओं की केंद्र बिंदु हैं। बौद्ध धर्म के प्रति इतनी आस्था है कि 10 वर्ष के बालक को यह मठ को सौंप देते हैं ।उन्हें पता है कि उसका बचपन छिन रहा है और वह सांसारिक सुखों से वंचित किया जा रहा है ।अब उसे सारा जीवन वरिष्ठ लामा की देखभाल में बिताना है और बौद्ध भिक्षु बनना है। इसमें कहीं भी उसकी मर्जी को कोई स्थान नहीं है। बौद्ध धर्मावलंबियों का मानना है कि वे निर्माण धम्मचक्र घुमाएंगे और जीवन मरण के चक्र से मुक्ति पा लेंगे ।वे शामया नामक लामा को अवतारी लामा मानते हैं ।साथ ही प्रखर विद्वान भी।
बह खिलखिलाती चमकदार थी। आसमान में एक भी बादल का टुकड़ा नहीं था ।हम लेह से सुबह 9:00 बजे खरदुंगला टॉप के लिए रवाना हुए। खरदुंगला टॉप दुनिया की सबसे ऊंची सड़क है जो अत्यंत दुर्गम बर्फीले पर्वतों पर 18380 फीट की ऊंचाई पर बनाई गई है। प्रकृति पर विजय के इस एहसास को कौन अपनी स्मृति में संजोकर नहीं रखना चाहेगा। इस सड़क तक गाड़ियां आती हैं। यानी कि ट्रैकिंग नहीं करना पड़ता। कुछ साहसी नौजवान तो मोटरसाइकिल से भी जाते हैं।
इस बार हमारी गाड़ी काफी आरामदायक थी। जैसे-जैसे हम ऊंचाई पर चढ़ते गए ,पर्वत नीचे होते गए ।सभी बर्फीले मोड़दार रास्तों के किनारे भी बर्फ कंगूरे की रेलिंग के रूप में मौजूद थी। मात्र 49 किलोमीटर दूर है लेह से खारदुंगला टॉप । फिसलन भरे रास्ते पर कार ड्राइव करना काफी जोखिम भरा था। ऊंचाई पर हवा का दबाव कम होने के कारण हमें लगातार कपूर सूँघना पड़ रहा था। खरदुंगला टॉप पहुंचते ही बर्फीली हवा ने हमें कँपा डाला। सिर से पैर तक ऊनी कपड़ों और विंडचीटर के बावजूद बदन कांप रहा था। गाड़ी से उतरते ही चारों ओर बर्फ के सिवा कुछ दिखाई नहीं दिया। बर्फीली धरती, बर्फीले पहाड़ ।इतनी ऊंचाई पर पक्की सड़क बनाना काबिले तारीफ है । माइनस 5 तापमान के बावजूद हम बर्फ पर खूब खेले ,खूब फोटो खिंचवाई। कई जगह फिसले, गिरे। लेकिन बहुत रोमांचक था सब कुछ। छः सात मिलिट्री के ट्रक जिन पर व्हीकल फैक्ट्री जबलपुर लिखा था लाइन से खड़े थे ।सामान से लदे ट्रकों पर फौजी जवान सवार थे। नीचे उतर कर वे ट्रक के चकों में लोहे की चेन बांधने लगे। क्योंकि रास्ता फिसलन भरा था। दो-चार दिन पहले गिरी बर्फ पर पैर फिसलने लगता है। ताजी बर्फ भुरभुरी थी ।पैर को आहिस्ता से अपने में समेट लेती थी ।
फौजी ने बताया कि यह सभी ट्रक लेकर हम सियाचिन जा रहे हैं। जो चाइना बॉर्डर पर है। वहाँ माइनस 45 से 60 तक तापमान हो जाता है । इन ट्रकों में 6 महीने की रसद भरी है। मैंने मन ही मन उन्हें सलाम किया। देश की रक्षा करते ये जवान जमा देने वाली ठंड में दुनिया के सुखों से वंचित रहते हैं।
जब ट्रक चले गए तब हम भी लेह की ओर रवाना हुए ।होटल में लौट कर थोड़ा सुस्ता कर हम बाजार घूमने गए। छोटा सा बाजार ,तिब्बती बाजार अलग। ऐसा कुछ भी नहीं था जो आकर्षित करता ।अधिकतर गर्म कपड़े और ख़ूबानियाँ बिक रही थीं। कुछ स्कूली लड़कियों को देख कर मन खुश हो गया। सिलेटी फ्रॉक ,सलवार, लालकोट ।शायद यहाँ की यूनिफार्म थी।
लद्दाख के विषय में अधिक जानकारी के लिए मैंने होटल के मालिक निसार से संपर्क किया। उन्होंने अपने केबिन में मुझे सम्मान पूर्वक बैठाया और यह जानकर कि मैं पत्रकार और लेखिका हूँ वे बहुत चाव से हमें जानकारी देने लगे।
” सबसे पहले तो मैं यह बता दूं कि लद्दाख का अर्थ है दर्रों की घाटी। यहाँ दर्रे यानी पास बहुत अधिक हैं। इसीलिए इसका नाम लद्दाख पड़ा। उत्तर में काराकोरम और दक्षिण में हिमालय रेंजेज से घिरा लद्दाख विश्व के सबसे ऊंचे प्रदेशों में से एक है। यहाँ नुन,कुन ,वाइट नीडल, पिनेकल, जेड वन चोटियां है। जो समुद्र सतह से हजारों फीट ऊंची हैं ।नुब्रा घाटी में ऊंटों पर सवारी की जाती है ।सीजन के समय वहाँ पर्यटकों की भीड़ रहती है ।अच्छा हुआ आप नहीं गई ।इस वक्त तो वहाँ ऊंट भी नहीं मिलते ।वैसे नुब्रा से काराकोरम की सभी चोटियां, पेड़-पौधे, ग्लेशियर देख सकते हैं। अद्भुत पर्वतीय सौंदर्य और बौद्ध संस्कृति से पूर्ण लद्दाख को लिटिल तिब्बत भी कहते हैं। बौद्ध धर्म के अलावा यहाँ तिब्बती संस्कृति भी है। लेह लद्दाख की राजधानी है जो समुद्र सतह से 3505 मीटर ऊंचाई पर स्थित है ।जिसके पूर्व में जम्मू-कश्मीर है।
पूरे लद्दाख में साल भर में 90 मिलीमीटर वर्षा होती है। आप यहाँ तक आई है तो कुल्लू मनाली भी घूम लें। मनाली यहाँ से 473 किलोमीटर है। भारी हिमपात में यह रास्ता बंद हो जाता है। लेह में अक्सर फिल्मों की शूटिंग होती है। फिल्मी यूनिट से होटल भरे रहते हैं। “
“यहाँ के आदिवासी क्या कल्चरड हो गए हैं ?”
“हाँ अब वैसे नहीं रहे जैसे आज से 20 25 साल पहले रहा करते थे ।यहाँ के आदिवासी नॉमेट्स कहलाते हैं जो खरनक गाँव में रहते हैं। पहले इनके तंबू यॉक के बालों से बने होते थे ।अब उनके घर आधे जमीन के अंदर आधे ऊपर होते हैं ।जैसे उत्तरी ध्रुव में बर्फ के होते हैं ।ये पश्मीना ऊन वाली भेड़ें यॉक और बकरियां पालते हैं। हर पशमीना भेड़ से 200 ग्राम पशमीना बनता है। जिनसे वैभव की प्रतीक पशमीना शॉल बनाई जाती है ।अब तो ये हिंदी भी बोलने लगे हैं और शहरी तौर तरीके को अपनाने लगे हैं।”
“और जनजाति?”
“दाह और बियामा गाँव में मूल आर्य नस्ल के डूकृपा जनजाति के लोग रहते हैं। बड़ा कठिन जीवन है इन धरती पुत्रों का।”
निसार से बातचीत करना अच्छा लग रहा था लेकिन हमारे पास समय नहीं था। सुबह लेह से दिल्ली 9:00 बजे की फ्लाइट थी। सामान पैक करना था और ठंड बढ़ती जा रही थी। लिहाजा निसार को अलविदा कहना पड़ा।
सुबह 8:00 बजे एयरपोर्ट केबीआर पहुँच गए ।केबीआर तिब्बती गुरु कुशोबा बाकुला रिंपोचे हैं। उन्हीं के नाम से इस एयरपोर्ट को पहचाना जाता है ।शार्ट में केबीआर एयरपोर्ट कहते हैं। हवाई जहाज में बैठते ही मैंने खिड़की के शीशे के उस पार लेह के बर्फीले पर्वत देखे।विदा लेह। ये पाँच दिन मेरी यादों में अद्भुत दिनों के रूप में बसे रहेंगे ।
बहुत बहुत शुक्रिया राजुल जी
तस्वीरों सहित मेरे संस्मरण को प्रकाशक पेज पर प्रकाशित करने के लिए