आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (08)

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पत्रकारिता के मेरे अनुभवों ने यह तो समझा दिया था कि पत्रकारिता का भविष्य अनिश्चित है। दुनिया बदल देने और कलम की धार से सत्ता की चूलें हिला देने का दम भरने वाले पत्रकार कब सड़क पर आ जाएं कहना मुश्किल है। मैंने धर्मयुग बंद होते देखा। जनसत्ता बंद होते देखा ।पत्रकारों को हुक्मरानों का हुकुम बजाते देखा। जो विचार जो सपने लेकर वह पत्रकारिता की दुनिया में प्रवेश करता है वह तो कब के टूट चुके होते हैं और वह सिर्फ नौकरी कर रहा होता है ।इस तरह तो नहीं चलेगा। ठोस जमीन होनी ही चाहिए पैरों के नीचे ।मेरे सामने हेमंत का भविष्य भी था।

जिंदगी फिर दोराहे पर थी और मैं बहुत अधिक तनाव में ।वैसे भी विजय भाई के निधन से मैं उबर नहीं पा रही थी। पत्रकारिता से निराशा तो थी ही साथ ही रमेश को लेकर मैं व्यथित थी। मेरी वैवाहिक जिंदगी डगमगाने लगी थी और रमेश को लेकर मेरे भ्रम टूटने शुरू हो गए थे। वे बेहद अच्छे गायक थे पर उतने ही अधिक कुंठित भी ।उन्हें वह सब करने नहीं मिला जिसका सपना लेकर लखनऊ से मुंबई आए थे। पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी उनके मामा थे ।खानदानी स्वाभिमान उन्हें विरासत में मिला था। अतः अपने सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने किसी की एप्रोच नहीं ली और बिना पहुंच के तो ………उनकी असफलता उनकी कुंठा बन गई जिसे वे मुझ पर और हेमंत पर बिला वजह नाराजगी प्रकट कर निकालते। वे नियमित शराब पीने लगे और दो दो बजे रात तक हमें सोने नहीं देते । उनकी चीख-पुकार गुस्से से पूरा मोहल्ला परिचित था ।मैं हेमंत को उनके गुस्से की जद में नहीं आने देती। चिड़िया की तरह मानो अपने  पँखों में छुपा कर रखती ।रमेश की इन्हीं आदतों की वजह से कभी उनके मित्र, भाई-बहन ,भतीजे उनके नहीं हुए ।मैं इतनी शॉक्ड थी कि धीरे-धीरे अपना स्वास्थ्य खोने  लगी ।गहरे अवसाद का शिकार हो गई। मेरी दोनो ओवरीज में सिस्ट पड़ गई और लगातार रक्तस्राव से मैं कई कई बार बेहोश होने लगी। डॉक्टरों ने कैंसर की संभावना जताई। लंबे-लंबे थका देने वाले टेस्ट्स से गुजरने लगी ।लंबा ऑपरेशन हुआ । यूट्रस और दोनो ओवरीज रिमूव कर दी गईं। मेरा शरीर निरंतर छीजने लगा। टांके रड़कते रहते ।ढेरों दवाइयां, इंजेक्शन ,दर्द …… उफ।मेरा मन बुझ गया। लेखनी थम गई और मुझे लगा मैं जिंदगी से हार गई हूँ। रमेश की कुंठा की, अनचाहे माहौल की ,वैवाहिक जीवन की भेंट चढ़ गई हूँ। सब कुछ इतना जानलेवा होगा सोचा न था। कतरा कतरा दर्द बाहर का भी ,भीतर का भी कलेजे को भी बींध रहा था। मैं मर रही थी ।मैं मरती रही ।लगातार चार सालों तक मैंने अपने अंदर का वनवास सहा लेकिन यह भी तय था कि मुझे हेमंत के लिए खुद को इस वनवास से बाहर निकालना होगा। मेरे लिए नियमित आय का स्रोत अध्यापन ही था इसलिए मैंने बी एड का फॉर्म भरकर खार स्थित हंसराज कॉलेज में दाखिला ले लिया। इसी बीच ललित पहवा संपादक के पद का प्रस्ताव लेकर मेरे घर आए। वे मेरी सहेली नाम से महिलाओं की एक पत्रिका लांच कर रहे थे और चाहते थे कि मैं उसे पूरी तरह से संभालूं। पत्रिका का कलेवर महिला विषयक था ।पति को कैसे रिझाएँ, पुरानी साड़ियों से पर्दे कैसे बनाएं, सर्दियों में चेहरे की कैसे देखभाल करें ।वगैरह वगैरह । मैंने असमर्थता प्रकट की फिर उन्होंने खुद ही पत्रिका संपादित की हेमा मालिनी का नाम संपादक में देकर। हालांकि वे मेरी कहानियाँ और स्त्री विमर्श के लेख छापने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। खूब छापा,अच्छा पारिश्रमिक भी दिया और आज भी ललित पहवा बहुत मान सम्मान देते हैं मुझे ।मेरी हर उपलब्धि पर मुझे बधाई देना कभी नहीं भूलते।

सन 1985 में मैंने खार स्थित हंसराज जीवनदास कॉलेज ऑफ एजुकेश्न में बी एड में दाखिला लिया। ट्रेनिंग एक साल की थी। वह पूरा साल मानो कड़ी मेहनत और तपस्या का था ।सुबह 8 बजे कॉलेज पहुंचना होता था ।हेमंत तब तीसरी कक्षा में था। कहाँ छोड़ती उसे जो पढ़ाई का समय निकाल पाती। लिहाजा उसे आगरे में अम्मा के पास दयालबाग ले गई। दौड़ भाग करके उसका एडमिशन करवाया और मुंबई आकर पढ़ाई में जुट गई। मेरे कॉलेज की प्रिंसिपल उर्मी संपत मुझ से बहुत प्रभावित थीं। मेरी रेडियो में कहानी प्रसारित होती तो कांटेक्ट लेटर की प्रिंट निकाल कर नोटिस बोर्ड पर लगा देतीं। कहीं कहानी छपती तो वह भी नोटिस बोर्ड पर …….और बड़े बड़े अक्षरों में मेरा नाम कि “हमें फख्र है कि लेखिका संतोष श्रीवास्तव हमारे कॉलेज की विद्यार्थी हैं ।”

वह पूरा साल मेरी बेशुमार गतिविधियों से भरा रहा। सुबह उठकर मैं रमेश के साथ रियाज भी करती। हारमोनियम बजाकर फिराक और फैज़ की गजलें गा लेती  थी । फिल्मी गाना बचपन की मोहब्बत को दिल से न जुदा करना और रमेश के साथ नैन सो नैन नाही मिलाओ ,जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा और छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा पर हाथ बैठ गया था हारमोनियम पर और गला भी बेसुरा न था ।कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हारमोनियम पर गीत गाती और प्रस्तुति भी करती। उसी दौरान 14 सितंबर हिंदी दिवस पर हिंदी भाषण प्रतियोगिता का निर्णायक बनाकर वालकेश्वर स्थित बिरला पब्लिक स्कूल में प्रिंसिपल श्रीमती प्रकाश ने बुलाया। मैंने अपने वक्तव्य में कहा-” मैं बीएड कर के अध्यापन करना चाहती हूँ और लड़कियों के स्कूल में पढ़ाना चाहती हूँ ताकि हर घर शिक्षित हो।“ उस समय बिरला पब्लिक स्कूल केवल लड़कियों का कान्वेंट स्कूल था। यह बात श्रीमती प्रकाश को बहुत पसंद आई ।उन्होंने कहा “आप बीएड करके इस स्कूल को ही ज्वाइन करना ।”

सर्दियों के दिन थे ।मैंने हेमंत के लिए स्वेटर ,फुलपैंट ,शर्ट आदि का पार्सल तैयार करके उसकी मनपसंद चॉकलेट भी उसमें रखी। कुछ दिनों बाद उसके हाथ का लिखा पोस्टकार्ड  मिला ।बस एक वाक्य ” मम्मी आप बोहोत अच्छी हैं ।”अम्मा से पता चला कि पार्सल में स्वेटर और चॉकलेट नहीं थी ।पार्सल की चोरी का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा। चीज भले छोटी थी। पर मेरे हेमंत के लिए महत्वपूर्ण थी। मैं अम्मा के ऊपर भी हेमंत को लेकर किसी तरह का बोझ तनाव नहीं डालना चाहती थी। आगरे की कड़ाके की सर्दी में मेरा बच्चा बिना स्वेटर के!

लेकिन अम्मा के रहते उसे कभी किसी तकलीफ का सामना नहीं करना पड़ा । 

B.Ed में मैं मैरिट में आई। हिंदी विषय में मैं टॉप पर थी। रिजल्ट के पहले ही मेरी जी डी सोमानी में 14 सौ रुपए महीने की नौकरी लग गई थी। मैं हिंदी और इतिहास पढ़ाती थी। गर्मियों में हेमंत को आगरा से मुंबई ले आई। वह पास तो हो गया था पर अच्छे नंबरों से नहीं। मैंने उसे अपनी देखभाल में जी डी सोमानी स्कूल में भर्ती करा दिया। जी डी सोमानी में मेरी नौकरी केवल एक साल की थी क्योंकि जिस अध्यापिका की जगह मुझे लिया गया था वह एक साल की छुट्टी पर थी। मैंने जी डी सोमानी छोड़ा तो हेमंत को भी वहाँ से वडाला के बंसीधर हाई स्कूल में भर्ती करा दिया। लेकिन मुझे अधिक दिन इंतजार नहीं करना पड़ा।

6 महीने बाद ही बिरला पब्लिक स्कूल से नौकरी के लिए बुलावा आ गया। मेरे लिए यह बहुत बड़ा जिंदगी से मिला उपहार था कि जिसके बल पर मैं अपनी हार को किसी तरह जीत में बदलने की कोशिश कर सकती थी। मैं जो शरीर और मन से इतनी बड़ी त्रासदी से गुजरी अब और होम होना नहीं चाहती थी। मुझे अपने अंदर उठे पेचीदा सवालों से खुद ही जूझना था। खुद ही उनके हल ढूंढने थे ।गलत के आगे झुकना नहीं था ।

क्रमशः

लेखिका – संतोष श्रीवास्तव

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