आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (16)
महेंद्र कार्तिकेय जी ने मॉरिशस चलने का न्योता दिया। वे 17 से 23 अक्टूबर 20004 तक अपनी संस्था समकालीन साहित्य सम्मेलन के 24 वें अधिवेशन के लिए भारत से 35 पत्रकारों, साहित्यकारों का दल लेकर जा रहे थे। पासपोर्ट बनवाने की जद्दोजहद शुरू हुई और मेरी पहली विदेश यात्रा की उड़ान ने मुझे मेरे तमाम गुदगुदे एहसास सहित राजधानी पोर्ट लुइस के सर शिवसागर रामगुलाम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पहुँचाया।
मॉरीशस अपने द्वीप की दहलीज पर पांव रखने वाले मेहमान को गले लगाता है और बुजुर्ग की तरह आशीर्वाद देता है और क्यों न आशीर्वाद दे आखिर उसे बसाया भी तो भारतीयों ने है।भले ही वे गिरमिटिया मजदूर कहलाए पर निर्जन पथरीले द्वीप के पत्थरों के नीचे से सोना उन्हीं ने निकाला है और अंग्रेजी हुकूमत का खजाना भरा है ।चाँद की आँख से झरे इस द्वीप में बिताए 7 दिन अविस्मरणीय थे। विभिन्न शहरों और स्थलों के पर्यटन के साथ ही अधिवेशन में प्रवासी लेखकों से मिलना बहुत आनंददायक था ।राजेंद्र अरुण, अजामिल, माताबदल ,चिंतामणि, अभिमन्यु अनत ,जनार्दन ,हेमराज, रामदेव धुरंधर ,राज हीरामन, रेणुका, हरिनारायण जैसे लेखकों के साथ हर शाम रचनाधर्मिता पर बहस चर्चा में गुजरी ।नवभारत टाइम्स के लिए मैंने अभिमन्यु अनत का साक्षात्कार भी लिया । यह द्वीप ज्वालामुखी के गर्भ से निकला ऐसा द्वीप है जो बरसों वीरान, दुनिया से अलग-थलग रहा।
1505 में एक पुर्तगाली नाविक समुद्र के रास्ते मॉरीशस के तट पर जब आया तो यहाँ की प्राकृतिक समृद्धि देख दंग रह गया| दूर-दूर तक न आदम न आदमजात…..लेकिन उपजाऊ जमीन, खुशगवार मौसम, समुद्रतट और स्वच्छ समुद्री हवाएँ, पर्यावरण ने उसका मन मोह लिया और उसने इस द्वीप को अपने राजा को नजराने के रूप में दे दिया| अफ्रीका और भारत में पैदा होने वाले फल, फूल, पक्षियों और मछलियों का भंडार था यहाँ| इन खासियतों की वजह से यह द्वीप पश्चिमी देशों को लुभाने लगा|पुर्तगालियों से हॉलैंड के डच लोगों ने इसे छीना और १५९८ से १७१२ ईस्वी तक यहाँ राज किया| १७१५ से १८१० तक फ्रांसीसी इसके शासक रहे और फिर पेरिस संधि के अंतर्गत मॉरिशस १८१४ से अंग्रेज़ों के अधिकार में आ गया|उस समय तक अंग्रेज़ों का विश्व के कई देशों में शासन स्थापित हो चुका था|भारत तो उसका गुलाम था ही लिहाज़ा सूखे की चपेट से गुज़र रहे बिहार के किसानों मज़दूरों को सब्ज़बाग दिखाकर मॉरिशस लाया गया…..अधनंगे, पिचके पेट के बिहारियों ने जिनके हाथ में बस रामचरितमानस की गुटका भर थी…..खाली विस्मित आँखों से मॉरिशस की
धरती को निहारा….. अंग्रेज़ों ने इन्हें नाम दिया गिरमिटिया|कोड़ों की मार, भूखे पेट सुबह से शाम तक जानवरों की तरह काम करते इन बिहारियों की पत्नियाँ, बहनें इनसे दूर दूसरी जगह काम पर लगाईं जाती थी ताकि वे अंग्रेज़ों की हवस शांत कर सकें|चाँदकी आँख से झरे इस द्वीप में ऐसा जुल्म बरसों चला है और तब जाकर मॉरिशस सजा सँवरा है| रूह काँप गई इस ऐतिहासिक तस्वीर से| धन्य है मेरे देश के वे किसान, मज़दूर…..मेरे पुरखों के खून से उपजी मॉरिशस की मिट्टी को माथे से लगाने को मन तड़प उठा|
मॉरीशस से विदाई के वे चंद घंटे। जब मैं विदा ले रही थी होटल के रिसेप्शन के कर्मचारियों से, रसोइयों ,वेटरों से, हेड वेटर ने मुझे ढेर सारी लोंग इलाइची और जैतून का अचार भेंट किया। एयरपोर्ट पहुँचे तो ध्यान आया कि मैं मॉरीशस की करेंसी को डॉलर में कन्वर्ट कराना भूल गई थी। सामने ही फोरेक्स बैंक था। पर मैं कस्टम की जांच से गुजर चुकी थी तो बाहर निकलना मुश्किल था ।तभी एयरपोर्ट के सफेद शर्ट ,नीली पेंट ,नीली टाई वाले कर्मचारी ने मदद की। वह मेरा पासपोर्ट और करेंसी लेकर दौड़ता हुआ गया और लौटकर डॉलर हाथ में थमाए
” आप तो श्रीवास्तव हैं ,अमिताभ बच्चन की कास्ट की। आपको जय हिंद ।भारत को जय हिंद ।”
जब तक मैं सिक्योरिटी चेकिंग गेट के अंदर दाखिल नहीं हो गई वह हाथ हिलाता रहा ।
मेरी दूसरी विदेश यात्रा योरोप के लिए थी।जो 2 जून से 25 जून 2005 तक की नौ देशों की थी। मेरे साथ 18 प्रतिनिधि सदस्यों का दल था। जर्मनी के फ्रेंकफर्ट शहर के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे में इमीग्रेशन के दौरान जर्मन अधिकारी ने अंग्रेजी में पूछा- ‘आप लेखिका हैं? इंडिया से? किस विषय पर लिखती हैं? यहां आपको किसी तरह की मदद चाहिए तो यह रहा मेरा कार्ड।’ मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी थी। अपने लेखिका होने पर गर्व तो हुआ ही साथ ही यह एहसास भी कि जर्मनी में लेखकों की कितनी कद्र है फिर चाहे वह किसी भी देश का क्यों न हो। जर्मनी ने संस्कृत भाषा को विश्व मंच पर लाने में अहम भूमिका निबाही है।
विदेश यात्राओं का सिलसिला अब तक जारी है और मेरी यादों में दर्ज अब तक के 26 देश कलमबद्ध हो दो यात्रा संस्मरणों की पुस्तक में संग्रहित हैं। नमन प्रकाशन दिल्ली से 2013 में प्रकाशित 18 देशों मॉरीशस, ऑस्ट्रेलिया ,न्यूजीलैंड, जापान, थाईलैंड ,उज्बेकिस्तान और यूरोप के देश जर्मनी ,स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रिया, इटली ,फ्रांस ,बेल्जियम, हॉलैंड,रोम स्कॉटलैंड, इंग्लैंड के यात्रा संस्मरण हैं दूसरी पुस्तक किताबगंज से वर्ष 2020 में प्रकाशित हुई ।
“पथिक तुम फिर आना “जिसमें कंबोडिया ,वियतनाम ,श्रीलंका ,भूटान, दुबई ,इजिप्ट और रूस के संस्मरण हैं। मैंने अपनी आँखों के कैमरे में इन सभी देशों को कैद कर लिया। फिर उन्हें संवेदना के तारों से एक-एक करके पिरोती चली गई। मैं उन यादों के संग हमसफ़र की तरह रही।
अम्मा कहती थीं इसके पांवों में चक्र है एक जगह टिकती ही नहीं ।
अध्यापन के दौरान पूरा भारत तो कॉलेज और स्कूल के टूर करते हुए देख ही लिया था। उसके बाद 2004 से विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ ।चीनी यात्री फाह्यान व्हेन सांग आदि की एक बड़ी भूमिका रही है सांस्कृतिक संबंधों को अपनी यात्राओं से प्रगाढ़ करने की ।महात्मा बुद्ध की धार्मिक यात्राओं ने कई देशों को बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित किया। बौद्ध धर्म को मानने वाले दुनिया के 18 देश हैं। डॉ कोटनीस, डॉ सुनायात्सेन, सिल्क रूट के सर्जक, व्यापारी सभी यात्राओं के द्वारा ही व्यापारिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संबंधों को अन्य देशों में बढ़ाते रहे। लेकिन मेरी यात्राएँ साहित्यिक थीं और मैं विश्व स्तर पर हिंदी के लिए कार्यरत थी। मेरे लिए दुनिया को देखना आवश्यक भी था क्योंकि मैं लेखिका हूँ और जब तक दुनिया की नब्ज नहीं पहचानूँगी लिखूंगी क्या? मैं जहाँ-जहाँ गई वहाँ की ग्रामीण संस्कृति को मैंने करीब से देखा क्योंकि गाँव ही है जहाँ देश की संस्कृति जीवित रहती है ।मेरे लिए यह अनुभव आश्चर्यजनक थे। प्रकृति तो है ही रहस्यमय। सागर नदियाँ,पर्वत ,मैदान ,ज्वालामुखी ,झीलें, ग्लेशियर, द्वीप कितना कुछ रहस्यों से भरा ,अनजाना ,अनचीन्हा, दुर्लभ, दुर्गम ।बड़ा खतरनाक होता है इनके प्रति आदिम सम्मोहन और वह सम्मोहन मैंने अपने में पाया। मैंने दुर्गम रास्तों पर जाने का खतरा भी उठाया। घने जंगलों में दुर्लभ पक्षियों, जानवरों को करीब से देखा ।आदिवासियों के संग रोमांचक समय गुजारा और ऐसा सब करते हुए मैंने पाया कि मुझे यायावरी का नशा सा चढ़ गया है। तो मैंने अपना अलग घुमक्कड़ी हिसाब किताब अपने जहन में बैठा लिया। जहाँ भी जाती हूँ एक छोटा सा सूटकेस ,उतना ही वजनी जिसे मैं खुद उठा सकूँ। मोबाइल ,कैमरा ,दूरबीन, और नोटबुक जिसमें हर दिन की घटना रात को सोने से पहले लिख लेती हूँ। इस यात्रा शैली में मेरे साथी विश्व मैत्री मंच के सदस्य रहे जिनके साथ मेरी यात्रा का आनंद दुगना हो गया। मैं इस बात से चकित भी और गदगद भी रही कि भगवान कृष्ण हर देश में हर जगह मिले मुझे ।क्या लीला है कृष्ण की। हर देश में उनके मंदिर उनके अनुयायी, भजन, रथयात्रा और सड़कों पर हरे रामा हरे कृष्णा का संकीर्तन करते ढोल मंजीरे बजाते भक्तगण। कृष्ण ने सरहदें मिटाने में बड़ी भूमिका अदा की है।
इन यात्राओं में प्रमुखता से मेरे साथ रहा अंतरराष्ट्रीय पत्रकार मित्रता संघ जिसकी 10 साल तक मैं मनोनीत सदस्य रही। जिसने मुझे 18 देशों में हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए प्रतिनिधि के तौर पर भेजा। बाकी के 4 देश मैंने अपनी संस्था विश्व मैत्री मंच के साहित्यकारों के साथ देखे। यह सारे यात्रा संस्मरण वागर्थ, शब्दयोग, पुष्पगंधा, सृजन संदर्भ, अक्षर पर्व, साहित्य अमृत, सृजनलोक ,पाखी, संबोधन, शीराज़ा, मंतव्य, नया ज्ञानोदय ,कथादेश आदि में जब प्रकाशित हुए तो बेहद चर्चित, लोकप्रिय हुए ।इन संस्मरणों ने एक बड़ा पाठक वर्ग मुझे दिया। मेरी लेखनी के लिए इससे बढ़िया उपहार क्या हो सकता है? यात्रा करते हुए बूंद भर प्रयास दुनिया को जानने का और दृढ़ संकल्प है उसे और अधिक जानने का। देखती हूँ भविष्य और कहाँ कहाँ ले जाता है।
क्रमशः